यजुर्वेद के मंत्र द्वारा यह कामना की गयी है - भद्रं कर्मेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्य जत्राः। स्थिरैरजै तुष्टवा सस्तनूभित्र्यशेयहि देवहितं यदायुः।। षड्यन वेदांगों में ज्योतिष शास्त्र जिसे वैदिक वांङमय के मतानुसार वेदों के नेत्र रूप में निर्देशित किया गया है। अर्थात बिना इस शास्त्र के ज्ञान के हमें काल ज्ञान नहीं हो सकता। यह शास्त्र ग्रहों के चलन, उनके समागम या वियोग से सामान्य जन जीवन, पृथ्वी व मनुष्य जाति पर होने वाले शुभाशुभ प्रभावों का निर्धारण तथा उससे होने वाले परिवर्तनों (सुख-दुख) का ज्ञान कराता है। आकाशीय पिंडों, ग्रहों के परिचालन द्वारा उत्पन्न होने वाले योगों की गणना एवं उनसे होने वाले दुष्प्रभावों को गणना द्वारा प्रतिपादित करना इस शास्त्र का प्रमुख उद्देश्य है
जिनमें दुखरूपी व्याधि, अनिष्ट कृत्य, किसी कार्य में विलंब तथा संखरूपी व्याधि परिहार, मांगलिक कार्य इत्यादि का संपादन करता है। ज्योतिष शास्त्र में अनेक प्रकार के रोगों का वर्णन किया गया है। आयुर्वेद के अनुसार कहा है कि ”शरीर व्याधि मन्दिर“ अर्थात शरीर रोगों का घर है। जब रोग होंगे तब रोग के प्रकार होंगे, किस अवस्था में कौन सा रोग होगा इसका वर्णन ज्योतिष के होरा शास्त्र में वर्णित है। मनुष्य स्वस्थ व दीर्घ जीवनयापन करता है। इसके लिए आवश्यक है कि समय से पूर्व उचित निदान, यह तभी संभव ै जब कारण के मूल का ज्ञान बहुत से रोगों के कारण ज्ञात हो जाते हैं पर बहुतों के कारण अंत तक नहीं ज्ञात होते। रोगों का संबंध पूर्व जन्म से भी होता है। आचार्य चरक लिखते हैंः
कर्मजा व्याध्यः केचित दोषजा सन्ति चापरे। त्रिषठाचार्य ने भी लिखा है- जन्मांतरम् कृतं पापं व्यधिरुपेण जायते। अर्थात कुछ व्याधियां पूर्व जन्मों के कर्मों के प्रभाव से होती हैं तथा कुछ व्याधियां शरीरस्थ दोषों (त्रिदोष-वात, पित्त, कफ) के प्रभाव से होती हैं। आचार्य कौटिल्य का कथन है कि सभी वस्तुओं का परित्याग करके सर्वप्रथम शरीर की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि शरीर नष्ट होने पर सबका नाश हो जाता है। महर्षि चरक ने भी उपनिषदों में वर्णित तीन ऐषणाओं के अतिरिक्त एक चैथी प्राणेप्रणा की बात कही है जिसका अर्थ है कि प्राण की रक्षा सर्वोपरि है।
जैसा कि महाभारत के उद्योग पर्व में कहा गया है- मृतकल्पा हि रोगिणः। रोगस्तु दोष वैषम्यं दोष साम्यम रोगत। (अष्टांग हृदय 1/20) शरीर को स्वस्थ रखने के लिए इन तीन दोषों को संतुलित रखना पड़ता है क्योंकि सब रोगों का कारण त्रिदोष वैषम्य ही है। सभी रोगों के साक्षात कारण प्रकुपित दोष ही हंै। हमारे आचार्यों ने मनुष्य के प्रत्येक अंगों की स्थिति ज्ञात करने के लिए ज्योतिष शास्त्र में काल पुरुष की कल्पना की है, काल पुरुष के अंगों में मेषादि राशियों का समावेश किया गया हैः काल पुरुष के अंग सिर मेष मुख वृष बांह मिथुन हृदय कर्क उदर सिंह कटि कन्या वस्ति तुला गर्दन वृश्चिक उरु धनु जानु मकर जंघा कुंभ चरण मीन जातक स्कंध में मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को लग्नादि बारह भावों में विभक्त कर द्वादश भाव तनु, धन, सहज, सुहृत, सतु, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय व व्यय के नाम से जाने जाते हैं। इन बारह भावों में छठा भाव रिपु भाव है। इसे रोग भाव भी कहा जाता है।
छठे भाव से रोग व शत्रु दोनों का विचार किया जाता है। आठवें व बारहवें भाव तथा भावेश का भी संबंध रोग से होता है। फलदिपिका के 14 अध्याय का प्रथम श्लोक में कहा गया है कि रोग के लिए विभिन्न ग्रहों का विचार करना चाहिए-
1. जो ग्रह छठे भाव में हो,
2. जो ग्रह अष्टम में हो,
3. जो ग्रह बारहवें में हो,
4. जो ग्रह षष्ठेश हो,
5. जो ग्रह षष्ठेश के साथ हो इस प्रकार इन ग्रहों के विचार से दो तीन प्रकार से जब तक एक ही निर्दिष्ट रोग मालूम पड़े तभी वह रोग होगा।
ज्योतिष शास्त्र में उदर का स्थान कालपुरुष की कुंडली में उदर का स्थान पंचम भाव है जिसकी राशि सिंह है। सिंह राशि जो पंचम भाव का कारक हैः उससे प्रभावित अंग उदर है जिसमें मन्दाग्नि, गुल्म, पथरी, पाण्डुरोग, यकृत इत्यादि के रोग उत्पन्न होते हैं। अतिसार संग्रहणी, प्लीहा, उदरशूल, अरुचि या मुंह का स्वाद बिगड़ना, अजीर्ण इत्यादि। चिकित्सकों का विचार है कि वीर्य का देह में विशेष महत्व है, वीर्य के क्षीण होने पर वायु विकृत हो जाती है
जिससे पाचन तंत्र बिगड़ जाता है तथा मन्दाग्नि, गैस या गुल्म सरीखे रोग पैदा होते हैं। उदर रोग के प्रमुख ज्योतिषीय कारण पराशर आचार्यों ने उदर रोग को निम्न प्रकार से रेखांकित किया है। षष्ठ भाव फलाध्याय में लिखते हैं कि षष्ठेश अपने घर, लग्न या अष्टम भाव में हो तो शरीर में व्रण (घाव) होता है। षष्ठ राशि में जो राशि हो उस राशि के आश्रित अंगों में रोग उत्पन्न होता है। राहु या केतु हो तो पेट में घाव होता है।
जातकालंकार में लिखते हैं कि षष्ठेशे पापयुक्ते तनु निधन गते तनु निधनगते नु शरीरे व्रणास्युः जातक के जन्मांग चक्र में रोग का विचार मुख्यतः षष्ठ भाव, षष्ठेश, षष्ठ भावस्थ ग्रह, अष्टम भाव, अष्टमेश, अष्टम भावस्थ ग्रह, द्वादश भाव, द्वादशेश, द्वादशस्थ ग्रह, षष्ठेश से युक्त एवं दृष्ट ग्रहों द्वारा एवं मंगल ग्रह द्वारा किया जाता है। इसमें हमें ग्रह राशियों का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि ये निर्बल, दोष युक्त या पुष्ट दोषयुक्त होकर रोगकारक, मारक या रोग निवारक बन जाते हैं। उदररोग के ज्योतिषीय कारण जो प्रमुख रूप से उदर रोग को निर्देशित करने में सहायक होते हैंः
- सूर्य, मंगल, शनि, राहु-केतु में से तीन ग्रहों का एक स्थान पर युति करना पेट में विकार देता है।
- नीच राशि का चंद्रमा लग्नस्थ होकर मंगल, शनि या राहु से दृष्ट हो तो उदर रोग देता है।
- गुरु शत्रुक्षेत्री होकर षष्ठस्थ हो तथा पापी मंगल अष्टम भाव में हो तो मंदाग्नि, अतिसार या पेट का कैंसर रोग देता है।
- मंगल यदि शनि क्षेत्री अथवा मंगल की राशि में शनि षष्ठ भाव में स्थित हो तथा चंद्रमा से केंद्र में हो तो रक्त विकार सहित उदर पीड़ा होती है।
- चंद्रमा का सिंह राशि या षष्ठस्थ होना उदर रोग देता है।
- लग्न राहु-केतु के अक्ष में हो।
- विषम राशि के लग्न में षष्ठेश तथा लग्नेश भी विषम राशि में हो तथा दोनों पर शनि की दृष्टि हो।
- अष्टम भाव में शनि तथा लग्न में चंद्रमा स्थित हो तो इनमें से कोई भी योग हो तो उदर रोग देता है।
- सप्तम भाव या सातवीं राशि तुला तथा चंद्रमा और गुरु गुर्दे के रोगों के कारक माने गये हैं।
- लग्न में राहु तथा दशम भाव में सूर्य चंद्र की युति होने से 19वें वर्ष में जलोदर रोग होता है।
- चंद्र शनि की युति पंचम में हो तो भी उदर रोग देता है।
- पंचम भाव, पंचमेश या सिंह राशि पर पाप ग्रहों की दृष्टि, युति तथा लग्न का हीन बल होना भी उदर रोग का संकेत देता है।
हमारे मन में ये शंका बहुधा उत्पन्न होती है कि पंचम भाव पर पाचन तंत्र का इतना अधिक महत्व क्यों है। डाॅ. जगनाथ भसीन ने कहा कि- पंचम भाव मधुमक्खी का छत्ता है। यह अति संवेदनशील भाव है। मनुष्य की अभिरुचियां, मित्र, मनोरंजन, बहु संतान, पेट, कोख (गर्भाशय) सभी कुछ तो पंचम भाव में है। पंचम भाव में सभी भावों की साझेदारी है। पेट में पहुंचा हुआ भोजन छोटी आंत, तत्पश्चात बड़ी आंत में जाता है।
पाचन क्रिया में रस, रक्त व सभी धातुओं की पुष्टि हेतु तत्वों को समेट कर उसे मलमूत्र के रूप में देह से बाहर निकालने के लिए क्रमशः मूत्राशय व मलाशय की ओर भेजती है। अनुपयोगी व निरर्थक भाग, मलमूत्र द्वार (अष्टम भाव) से बाहर निकल जाता है। इस प्रकार प्रथम लग्न से अष्टम भाव तक सभी का उदर रोग में प्रमुख योगदान है। उदाहरण कुंडली 1: उदर रोग पीड़ित (गाल ब्लेडर में स्टोन) भरणी नक्षत्र - 2 प्रस्तुत कुंडली में राहु/गुरु की दशा में जातक का गाल ब्लैडर निकाला गया जिसमें स्टोन थे। उदाहरण कुंडली में चंद्रमा राहु, केतु, मंगल से पीड़ित हंै व गुरु, राहु व मंगल की पूर्ण दृष्टि चंद्रमा पर है। गुरु पित्ताशय का कारक है जिसने अपनी दशा महादशा में जातक का आॅपरेशन करवाया। कालपुरुष की कुंडली में पंचम भाव उदर को दर्शाता है जिसमें राहु उपस्थित है जिसने उदर में तकलीफ दी। पंचमेश शुक्र, षष्ठेश मंगल से युक्त है, पर शनि जो अष्टमेश भी है, की दृष्टि है। शुक्र द्वादशेश भी है जिसने जातक को रोग दिया।
उदाहरण कुंडली 2: उदररोग पीड़ित (किडनी में स्टोन) नक्षत्र: रोहिणी-2 गुरु/गुरु की दशा के दौरान जातक को किडनी की बीमारी से जूझना पड़ा। सारांश: समस्त ज्योतिषीय कारणों से यह स्पष्ट होता है कि किसी भी बात पर ज्योतिष में विचार करते समय सबंधित भाव व उसके स्वामी तथा उसके कारक द्वारा विचार किया जाना चाहिए। राहु व केतु की दृष्टि का ज्ञान ज्योतिष में परम आवश्यक है। ये अपने स्थान पर स्थित राशि, भाव तथा ग्रह पर भी पूर्ण दृष्टि डालते हैं। पंचम भाव का संबंध पाचन तंत्र, पाचन क्रिया से है। सूर्य को पाचन तंत्र का नियंत्रक माना जाता है।
हमारे प्राचीन विद्वानों का मत है कि पाचन क्रिया में रश्मियों का महत्वपूर्ण योगदान है। जब भी सूर्य आभाहीन होता है उदर में गड़बड़ी देता है। ज्योतिष का नियम है- औषधि, मणि, मंत्राणां, ग्रह नक्षत्र तारिका। भाग्य काले भवेत्सिहि अभाग्यं निष्फलं भवेत्।। सत्य ही कहा गया है कि जहां भौतिक विज्ञान की सीमाएं समाप्त होती हैं वहीं से अध्यात्म विज्ञान की सीमाएं प्रारंभ होती हैं।