वास्तु का प्रचलन कुछ वर्षो से बहुत अधिक हो गया है। वैसे तो वास्तु का इस्तेमाल हजारों वर्षों से हो रहा है एवं इसका उल्लेख नारद संहिता में भी मिलता है, लेकिन आज यह कई रूपों में उभर कर सामने आ रहा है। वास्तु का प्रमुख उद्देश्य घर, कार्य या उद्योग में समृद्धि एवं शांति लाना है। यह केवल भूमि चयन या भवन निर्माण के समय तक ही सीमित नहीं है, वरन् इससे हम यह भी जान सकते हैं कि घर में फर्नीचर कैसे स्थापित करें, रसोई घर में चूल्हा कहां रखा जाए, या ड्राॅइंग रूम में आगंतुक को किस स्थान पर बैठाया जाए; इसी प्रकार कार्यालय में किस ओर मुंह कर के बैठा जाए, जिससे अधिक से अधिक लाभ हो एवं शांति से काम होता रहे।
भारत में छोटे-बड़े लाखों उद्योग हैं एवं सब उद्योगपति किसी वास्तुकार से सलाह, कई कारणवश, नहीं लेना चाहते। उनके लिए वास्तु के कुछ नियम नीचे बताये जा रहे हैं, जिनको अपनाने से नब्बे प्रतिशत तक वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं। भूमि चयन: चैकोर या आयताकार भूमि सबसे अच्छी होती है। भूमि तिकोनी नहीं होनी चाहिए। उत्तर या पूर्व से प्रवेश अच्छा होता है। भूमि का उत्तर-पूर्व कोना कटा हुआ नहीं होना चाहिए। यह कोना लंबा या न्यून कोण का होना चाहिए। दक्षिण-पश्चिम का कोना समकोण होना चाहिए। दक्षिण-पश्चिम में ऊंचाई होनी चाहिए अर्थात् उत्तर-पूर्व की ओर ढलान होनी चाहिए। यदि ऐसा न हो, तो उसे मिट्टी से भरवा कर ऐसा अवश्य करना चाहिए। यदि दक्षिण-पश्चिम नीचा होगा, तो मालिक का स्वास्थ्य खराब रहेगा। पूर्व-पश्चिम कटा हो, तो मालिक को मानसिक तनाव रहेगा।
भवन निर्माण
यदि आप भवन निर्माण करवा रहे हैं, तो हमेशा ध्यान रखें कि दक्षिण-पश्चिम के कोने से निर्माण कार्य शुरू करवाएं और जैसे-जैसे भवन का निर्माण होता जाए, दक्षिण-पश्चिम का निर्माण उत्तर-पूर्व से हमेशा ऊंचा रहे। ऐसा करने से काम में बाधा नहीं आती और निर्माण कार्य शीघ्र संपन्न होता है। कुल मिलाकर भवन निर्माण के दौरान दक्षिण-पश्चिम भाग सबसे भारी एवं ऊंचा होना चाहिए एवं इस ओर कोई गड्ढे आदि नहीं होने चाहिए। वास्तु में नलकूप या पानी की टंकी का विशेष महत्व है।
नलकूप आप उत्तर-पूर्व में लगवाएं। पानी की टंकी को दक्षिण या पश्चिम में लगवाने का प्रयत्न करें, पर दक्षिण-पश्चिम में नहीं। बिजली या ऊर्जा का स्रोत दक्षिण-पूर्व में सबसे अच्छा होता है। अतः उद्योग में इस ओर जेनरेटर, बाॅयलर एवं ट्रांसफार्मर इत्यादि रखने चाहिए। गंदे पानी का निकास उत्तर-पश्चिम में अच्छा रहेगा। इसी ओर पक्के माल का गोदाम होना चाहिए। इस ओर रखी हुई वस्तु कभी टिकती नहीं और जल्द ही उसकी निकासी हो जाती है।
कच्चा माल उत्तर या पूर्व में होना चाहिए। ध्यान रखें कि दक्षिण-पश्चिम की ओर कोई द्वार न हो, क्योंकि यह चोरी या घाटे का द्वार होगा। दक्षिण-पश्चिम में द्वार हो, तो घाटा होता है। यदि पानी का बहाव दक्षिण-पश्चिम को हो, तो सारी मेहनत बेकार जाती है और सारे खर्चे हानि में परिवर्तित हो जाते हैं। पश्चिम या दक्षिण की ओर दरवाजे-खिड़कियां कम एवं उत्तर-पूर्व की ओर अधिक होनी चाहिए। इससे धूप एवं हवा का अच्छा असर रहता है, रोग दूर होते हैं तथा मजदूर खुश रहते हैं एवं मेहनत से कार्य करते हैं। उत्पादन प्रकिया दक्षिण से उत्तर एवं पश्चिम से पूर्व की ओर चलनी चाहिए। इससे उत्पादन के कार्यों में विघ्न नहीं आते। प्रशासनिक विभाग उत्तर-पूर्व में रखें। वहीं कोई मंदिर आदि रखें एवं मुख्य प्रवेश द्वार भी वहीं रखें। प्रवेश द्वार पर घोड़े की नाल अथवा एक लोहे की कील ठोक देनी चाहिए। इससे नज़र नहीं लगती है। उत्तर-पूर्व में खुला मैदान रखें, या बगीचा बनाएं। मालिक को अपना मुंह पूर्व की ओर कर के बैठना चाहिए एवं आगंतुक का मुंह पश्चिम की ओर होना चाहिए। इससे आगंतुक हमेशा मालिक से प्रभावित रहता है एवं उसकी शर्त मान लेता है।
उपर्युक्त नियमों का ठीक से पालन तभी संभव है, जब भूमि में प्रवेश उत्तर या पूर्व से हो। यदि प्रवेश दक्षिण या पश्चिम से रहता है, तो सब तरह के आराम संभव नहीं है। आपके समझने के लिए एक नक्शा दिया जा रहा है। आम तौर पर यह मुमकिन नहीं है कि उद्योग में आप हमेशा इस प्रकार का नक्शा अपना सकें। लेकिन इसका प्रयास निश्चित ही संभव ह