भागवत कथा
भागवत कथा

भागवत कथा  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 3265 | अप्रैल 2014

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरत श्चार्थेस्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्न हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः। तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परं धीमहि।। जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, वह परमात्मा सत् रूप से सभी सत् पदर्थों में स्थित है और असत् पदार्थों से पृथक है। चेतन है, स्वतंत्र है एवं स्वयं प्रकाश है उसी माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं। महामुनि वेदव्यास के द्वारा रचित इस श्रीमद् भागवत महापुराण में मोक्षपर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। जिस समय भी महानुभाव महापुरूष इसके श्रवण की कामना करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलंब उनके हृदय में आकर बंदी बन जाता है। यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है। श्री शुकदेव तोते के मुख का संबंध हो जाने से यह दिव्यातिदिव्य परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है। इसमें त्याज्य वस्तु कुछ भी नहीं है। अन्यान्य फलों की (गुठली, छिलका) तरह। यह मूर्तिमान् रस है। अतः जब तक शरीर में चेतना रहे, तब तक इस दिव्य भागवत् रस का अविराम बार-बार पान करते रहो।

यह रस केवल और केवल पृथ्वी पर ही सुलभ है। एक बार परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने भगवत्प्राप्ति की इच्छा से जीवमात्र के कल्याणार्थ सूतजी का पूजन कर ऊंचे आसन पर बैठाकर बड़े आदर से यह प्रश्न किया। भगवन ! आप निष्पाप हैं, आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है। आप कृपा करके बतलाइये कि इस संसार में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहज साधन क्या है? यदुवंशियों के रक्षक भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी के गर्भ से क्या करने की इच्छा से अवतीर्ण हुए थे? धर्मरक्षक ब्राह्मण भक्त योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन पर धर्म ने अब किसकी शरण ली है? ऋषियों के मंगलमय वचन सुनकर रोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनंद हुआ और कहने लगे - ऋषियों संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए आपने यह उत्तम प्रश्न किया है; क्योंकि यह प्रश्न श्रीकृष्ण के संबंध में है और इससे सम्यक् रूप से आत्मशुद्धि हो जाती है। वेदों का तात्पर्य भी श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्री कृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिए ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्री कृष्ण में ही है।

वे ही संपूर्ण लोकों की व लोकों में स्थित विभिन्न जीवों आदि की रचना करते हैं एवम् देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं। सूतजी ने शौनकादि ऋषियों को भगवान् के महन्तत्व आदि से निष्पन्न पुरूष रूप ग्रहण एवं उसमें दस इन्द्रियां, एक मन और पांच भूत का रहस्य बताते हुए नाभि सरोवर से कमल और कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी की उत्पत्ति आदि का वर्णन करते हुए

1. सनत्कुमार

2. सूकर (वाराह)

3. देवर्षि नारद

4. नर-नारायण,

5. कपिल,

6. दत्तात्रेय

7. यज्ञ,

8. ऋषभदेव,

9. पृथु राजा,

10. मत्स्य,

11. कच्छप,

12. धन्वन्तरि

13. मोहिनी,

14. नृसिंह,

15. वामन,

16. परशुराम,

17. वेदव्यास,

18. श्रीराम,

19. बलराम,

20 श्रीकृष्ण,

21-बुद्ध,

22. कल्कि अवतार

20 अवतार तो उपर्युक्त ही हैं। राम और श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं। शेष चार अवतार श्रीकृष्ण के ही अंश हैं- केश का अवतार, सुतपा तथा पृश्नि पर कृपा करने वाला अवतार, संकर्षण-बलराम तथा परब्रह्म और इन चार अवतारों से विशिष्ट पांचवें साक्षात् भगवान् वासुदेव हैं। कुछ विद्वानों के मत से 22 तो उपर्युक्त ही हैं इनके अतिरिक्त- हंस और हयग्रीव हैं। इनका वर्णन किया। इस दिव्य ज्ञान को श्री शुकदेव मुनि ने अपने पिता व्यासजी से प्राप्त किया था। पुनः राजा परीक्षित को गंगा तट पर यह ज्ञान श्री शुकदेव मुनि ने श्रवण कराया। वहीं इस ज्ञान की प्राप्ति मुझ (सूत जी) को हुई। यह परम कल्याणकारी व संपूर्ण दुखों का नाशक है। शौनकजी बोले -सूतजी ! महर्षि व्यास को यह ज्ञान कैसे कहां, किससे प्राप्त हुआ? सूतजी बोले-शौनकजी। स कदाचित्सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचि। विविक्तदेश आसीन उदिते रविमंडले।। 1-4-15।। द्वापर में महर्षि पराशर के इस वसु कन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान् के कलावतार योगिराज व्यासजी का जन्म हुआ। एक दिन स्नानादि कृत्यों को पूर्ण कर सरस्वती नदी के पावन तट पर स्थित शम्याप्रास आश्रम में व्यासजी उद्विग्नमना एकान्त में विराजमान थे। वेदों का विभाग, पुराण, महाभारत आदि की रचना से भी मानसिक संतुष्टि प्राप्त न हो पायी, इसी चिंतन में लीन विषाद ग्रस्त व्यासजी के समीप देवर्षि नारद का आगमन हुआ।

उन्हें देखकर व्यासजी तुरंत उठकर खड़े हो गए और विविध उपचारों से उनका पूजन किया। नारदजी ने पूछा - महाभाग । आपके शरीर एवं मन दोनों ही अपने कर्म व चिंतन से संतुष्ट हैं न? व्यासजी बोले मुनिवर । मैं अभी तक किसी भी साधन से संतुष्ट नहीं हूं। इसका क्या कारण है? आपका ज्ञान अगाध है। कृपया करके मेरी संतुष्टि का मार्ग बताइये। नारद जी ने कहा व्यास जी। आपने वेद विभाग किए, पुराण व महाभारतादि की रचना तो की परंतु किसी शास्त्र में भगवान के निर्मल व पवित्र यश का गान प्रायः नहीं किया। मेरा ऐसा विश्वास है व मानना भी है कि जिससे भगवान् संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अपूर्ण है। हे महाभाग ! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यपरायण व दृढ़व्रत हैं। इसलिए आप संपूर्ण जीवों को बंधन से मुक्त करने हेतु समाधि के द्वारा अचिन्त्यशक्ति भगवान् की लीलाओं को स्मरण कर शास्त्र के रूप में प्रकट कीजिए। भगवान श्रीकृष्ण ही एकमात्र सबके हितकारी व सभी के हृदयेश्वर हैं। बड़े-बड़े महापुरूष जिनकी चरण-धूलि को अपने सिर पर धारण करने की इच्छा रखते हैं, उसी चरण-धूलि को आप भी अपने सिर पर धारण कर विषाद से मुक्त हो जाइये। श्री कृष्ण नाम का संकीर्तन आनंद प्रदायक है।

नारदजी पुनः बोले - व्यासजी ! पूर्व जीवन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की एक दासी का लड़का था। वे योगी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपन में ही मुझे उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हो गया और उनकी प्रसादी जूठन को खा-खाकर मेरा मन हृदय शुद्ध हो गया। प्रतिदिन श्रीकृष्ण भगवान् की दिव्य लीला कथाओं का श्रवण करते-करते मेरा मन यशोदानंदन के चरणों में अनुरक्त हो गया। मुझे संसार के विषयों से वैराग्य हो गया। चित्त के रजोगुण और तमोगुण को नाश करने वाली भक्ति का मेरे हृदय में प्रादुर्भाव हो गया। महात्माओं ने जाते समय मुझे गुह्यतम ज्ञान का उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से किया है। नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि। प्रद्युम्नायानिरूद्धाय नमः संकर्षणाय च।। (1-5-3)।। प्रभो ! आप भगवान् श्रीवासुदेव को नमस्कार है, हम आपका ध्यान करते हैं। प्रद्युम्न, अनिरूद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है। जो चतुव्र्यहरूपी भगवन्मूर्तियों के नाम द्वारा यज्ञपुरूष का पूजन करता है, उसी का ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है। व्यास ने नारद जी से इस कथा को श्रवण कर पूछा - महात्माओं के चले जाने के बाद आपने क्या किया? नारदजी ने कहा - उस समय मेरी अवस्था छोटी थी, मां का स्नेहपाश ही प्रबल था। मेरा मन श्रीकृष्ण में ही रमण करता रहता था। पर एक दिन मेरी मां गौ दोहन के लिए रात के समय घर से निकली।

रास्ते में उनके पैर से सांप स्पर्श कर गया और उसके डसने मात्र से ही मेरी मां का देहावसान हो गया। प्रभु की ऐसी ही इच्छा थी। मां के संस्कार के बाद उत्तर दिशा में जाकर घने जंगल में स्थित पीपल वृक्ष के नीचे महात्माओं से जैसा सुना था, उसी रूप का ध्यान करने लगा। भक्तवत्सल भगवान् मेरे हृदय में प्रकट हो गए। मेरा हृदय शांत हो गया, अद्भुत आनंद आने लगा और एकटक मैं उनके अनिर्वचनीय रूप का दर्शन करने लगा। आसन से उठा, पर पुनः उस रूप का दर्शन न कर सका। मैं व्याकुल हो गया तभी चित्त को शांत करने वाली आकाशवाणी हुई- ‘इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे।’ पुनः साधना करो और पूर्णत्व को प्राप्त करो। वासनाओं को ध्वस्त कर दो तभी दर्शन होगा। मैं श्री हरि के मंगलमय नामों का स्मरण करता रहा। हृदय शुद्ध हो गया। पंच भौतिक शरीर नष्ट हो गया। कल्प के अंत में श्रीहरि के शयन करने पर समग्र सृष्टि को समेटकर ब्रह्माजी जब उनके हृदय में प्रवेश करने लगे तब उनके श्वांस के साथ मैं भी प्रवेश कर गया। सहस्त्र चतुर्युगी व्यतीत होने पर ब्रह्माजी ने जब पुनः सृष्टि की तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया और तभी से अबाधगति से लोकों में विचरण करता हुआ प्रभु नाम का संकीर्तन करता रहता हूं। व्यास जी से अनुमति प्राप्त कर वीणा बजाते हुए देवर्षि चले गए।



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