परीक्षित को श्रीमद्भागवत का श्रवण कराने वाले श्री शुकदेव के प्रति नमस्कार - मं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेत कृत्यं द्वैपायनो विरह कातर आजुहाव। पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।। कैशिकी संहिता के माहात्म्य में कथा है कि एक समय भगवान् सदाशिव गौरी को श्रीमद्भागवत का अत्यंत गोपनीय उपदेश कर रहे थे तब उन्होंने पूछ लिया कि यहां कोई दूसरा व्यक्ति तो नहीं है? इधर-उधर दृष्टिपात किया, कुछ भी नजर नहीं आया। परंतु संयोगवश एक शुक का मृत अण्ड वहां पड़ा हुआ था। वह अमृतमयी श्रीमद्भगवत कथा के सेवन से जीवित हो गया। गौरा को तो श्रवण करते-करते भाव-समाधि लग गयी और शुक-शावक दिव्य कथा का कर्णेन्द्रिय-पुरों से पान करने लगा और बीच-बीच में ‘ऊँ ऊँ’ का उच्चारण करने लगा। जब शंकर जी को ज्ञान हुआ कि शुक-शावक ने कथा का श्रवण कर लिया, किंतु कोई दीक्षा ग्रहण नहीं की, ऐसे ही सुन लिया तब उनको क्रोध आ गया और उन्होंने उसपर त्रिशूल का प्रहार कर दिया। शुक भागकर श्री व्यासजी महाराज की कुटिया में प्रवेश करते हुए उनकी पत्नी अरणी देवी (पिंगला) के शरीर में प्रविष्ट हो गया। अमृतमयी कथा-पान से महाकाल के त्रिशूल का तेज भी शुक-शावक का अनिष्ट न कर सका। बारह वर्ष तक यह गर्भ में छिपा रहा, बाहर निकला ही नहीं। माता को कष्ट होने लगा, श्री व्यासजी महाराज ने पेट में से आ रही वेद ध्वनि को सुना, तब उन्होंने गर्भस्थ बालक से बाहर निकलने के लिए बड़ी प्रार्थना की। उस शिशु ने कहा कि जब तक भगवान् का दर्शन नहीं होगा तब तक बाह्य जगत् में नहीं जाऊँगा। वेदव्यास जी भगवान् श्री कृष्ण को बुलाकर ले आए। श्रीकृष्ण ने आश्वस्त किया कि बेटा बाहर आने पर तुझे मेरी माया स्पर्श भी न कर सकेगी। भगवान् के कृपा प्रसाद को प्राप्त होते ही श्री शुकदेव जी गर्भ से बाहर निकले और निकलते ही बोले जिसको विकार होता है उसे संस्कार की आवश्यकता होती। जब हम अविकृत हैं तो संस्कृत भी नहीं होंगे। विकार और संस्कार दोनों से विलक्षण रहेंगे। हम ब्रह्मचर्य-गृहस्थ -वानप्रस्थ आश्रमों व विश्व-तेजस- प्राज्ञ की अवस्थाओं तथा सत-रज- तम गुणों को स्वीकार करने लिए तैयार नहीं। हम तो साक्षात् संन्यास में ही प्रतिष्ठित रहेंगे।