जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामान्यतः होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास केवल ज्योतिष के माध्यम से ही सम्भव है। ज्योतिष हमारा मार्गदर्शक शास्त्र है, नियामक नहीं। वस्तु स्थिति यह है कि शास्त्र व अनुभव ये दो आंखें हैं, इन्हीं आंखों के द्वारा दैवज्ञ फल कथन करता है। अतः उसे भी परीक्षा के लिए पूर्ण समय मिलना चाहिए। तब वह निश्चिन्तता से ज्योतिष-चक्षु द्वारा भावी फल पढ़कर आपको अपने अनुभव से कुशल मार्गनिर्देश प्रदान करेगा। धीरतापूर्वक अनेक साधक-बाधक प्रमाणों का ऊहापोह के साथ विवेचन करने के पश्चात ही किसी एक बात को अन्तिम रूप दिया जा सकता है। विशेषतः आयु निर्णय जैसे गूढ़ एवं गम्भीर विषय में तो यह अधिक आवश्यक है। ज्योतिष कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि पूर्ण विज्ञान है। जिस प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में नित्य नूतन अनुसंधान हो रहे हैं तथा कुछ पुरानी मान्यताएं ध्वस्त होती जा रही हैं, उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र की इयत्ता को आज के परिप्रेक्ष्य में परखना आवश्यक है।
आचार्यों ने आयु योगों में मुख्यतः तीन खण्ड माने हैं: अल्प, मध्य व दीर्घ। यह खण्ड एक आधारभूत अनुमान होता है तथा इसके आधार पर एक निश्चित परिणाम पर पहंुचा जा सकता है। व्यवहार में यह आवश्यक नहीं है कि जो सूक्ष्म अवधि आपकी आयु की आई है
वह यथावत ही जीवन में फलित हो तथापि आयु वर्षों का निर्धारण किसी सीमा तक सफलतापूर्वक किया जा सकता है। बारह वर्ष तक की अवस्था के बालकों के विषय में आयु प्रभृति विषयों का निर्धारण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में बालक का शरीर कोमल व तुरन्त रोग पकड़ने वाला होता है, अतः इस अवस्था में माता-पिता को प्रयत्नों से सम्भावित बीमारियों का बचाव करना चाहिए। वेंकटेश के अनुसार ‘आद्वादशाब्ज्जन्तूनामायुज्र्ञातुं न शक्यते। जपहोमचिकित्साधैर्बाल रक्षां तु कारयेत्’।। सर्वार्थ चिन्तामणि, 10.4) बारह वर्ष की अवस्था तक अनेक उपायों (चिकित्सा, जप, होम औषधि आदि) से बाल्यावस्था में बालक की रक्षा करें। प्राचीन समय में चिकित्सा के अभाव के कारण बाल्यावस्था में मृत्युदर अधिक थी अतः अरिष्ट योगों में मृत्यु होना प्रायः सिद्ध था वहीं आज के युग में यदा-कदा सम्भाव्य है।
आज के युग में बालारिष्ट योगों का फल जीवन में खरा नहीं उतरता जबकि प्राचीन ग्रन्थों में इन योगों का विस्तार से वर्णन किया गया है। आयु निर्धारण पर बनाए गये शास्त्र, ग्रन्थ व अत्यधिक नियम 500 वर्ष ई.पू. से 100 ई. तक के हैं जिनमें आचार्य बदरायण, गर्ग, यवन, पराशर, वाराहमिहिर, श्रीपति, सत्य, मणित्य तथा श्रीधर आदि थे। ये आचार्य जो जातक शास्त्र के तत्त्वज्ञ थे, इन्होंने आयु को तीन खण्डों में विभाजित किया। इसके अतिरिक्त बालारिष्ट बारह वर्ष तक की ली गई। वाराहमिहिर ने आयु के दो भाग स्वीकार किए; योगायु तथा दशायु। योगों के द्वारा जानी गई आयु योगायु कहलाई तथा मारक दशा, अन्तर्दशा का निर्णय करके जानी गई आयु दशायु कहलाई। कुछ ग्रन्थकार गणितगत आयु, योगायु व अकाल मृत्यु से निर्णित आयु के प्रकार त्रिविध आयु मानते हैं।
गणितागत आयु नियतायु है। मृत्यु कारण से आने वाली आयु की अवधि को अनियत आयु कहा गया ै। योगों द्वारा निश्चिन्तता से आयु का तथा अरिष्ट योगों का विचार करके ही बाद में आवश्यक होने पर गणित द्वारा आयु का निर्णय करना चाहिए, ऐसा बहुधा ग्रन्थकार मानते हैं। प्रस्तुत शोध ग्रह-गणित (दशा-अन्तर्दशा-गोचर आदि) द्वारा आयु का निर्धारण करने में सहयोगी है। यह शोध 479 जातकों की शुद्ध जन्म कुण्डलियों पर परखा गया है। अतः नियत आयु का निर्धारण करने में परम सहयोगी है। इससे पहले कि हम शोध की बात करें हमें योगायु के बारे में भी जान लेना चाहिए। प्रश्न मार्ग के अनुसार योगों का विभाजन 6 प्रकार से किया गया है, जो इस प्रकार हैं:
1. सद्योऽअरिष्ट (तुरन्त फल देने वाले) योग
2. अरिष्ट योग
3. योगारिष्ट
4. मध्यायु योग
5. दीर्घायु योग
6. अमितायु योग। आठ वर्ष पर्यन्त ‘बालारिष्ट’, नौ से बीस वर्ष तक ‘योगारिष्ट’, बत्तीस वर्ष तक ‘अल्पायु’, सत्तर वर्ष तक ‘मध्यायु’, सौ वर्ष तक दीर्घायु तथा सौ वर्ष से ऊपर योगाभ्यास, सदाचार, उत्तम औषधि तथा उत्तम रोगोपचार से ‘उत्तमायु होती है
ऐसा स्वीकार किया गया है। शास्त्राचार्यों ने अरिष्ट तीन प्रकार के बताए हैं: गण्डारिष्ट, ग्रहारिष्ट तथा पातकीवेधारिष्ट गण्डारिष्ट में नक्षत्र गण्ड (रेवती, अश्विनी, ज्येष्ठा, मूल, आश्लेषा, मघा) मीन, कर्क तथा वृश्चिक लग्न की अन्तिम आधी घटी तथा मेष, सिंह व धनु लग्न की प्रारम्भिक आधी घटी लग्न गण्ड है।
बालारिष्ट के कुछ योग इस प्रकार हैं: आयुहीन योग:
1. जन्म कुण्डली में पूर्वार्द्ध में पाप ग्रहों तथा परार्द्ध में शुभ तथा लग्न में वृश्चिक व कर्क राशि हो तो बालक की शीघ्र मृत्यु होती है।
2. लग्न में चन्द्रमा, बारहवें या आठवें स्थान में बृहस्पति तथा आठवें स्थान में मंगल हो।
3. षष्ठ या अष्टम स्थान में मंगल की राशि में बृहस्पति हो तो इन्हीं स्थानों में चन्द्रमा हो।
4. छठे या आठवें स्थान में चन्द्रमा हो और व्यय स्थान में मंगल से युक्त सूर्य हो।
5. लग्न या अष्टम में सूर्य, शनि तथा मंगल हो और वे शुभ ग्रहों से दृष्ट न हों तथा पाप ग्रहों से दृष्ट हों।
6. सायंकाल में जन्म हो, जन्म लग्न में चन्द्रमा की होरा हो, राशि के तीसरे अंश में पाप ग्रह हांे तो बालक की मृत्यु हो जाती है।
7. चतुर्थ स्थान में सूर्य, चन्द्रमा की दृष्टि हो तथा अन्य किसी शुभ ग्रह की वहां सूर्य पर दृष्टि न हो तो बालक की शीघ्र मृत्यु होती है।
आठ मास पर्यन्त आयु योग (बालारिष्ट योग):
1. लग्नेश अष्टम स्थान में हो तथा जन्म राशीश (चन्द्र राशीश) भी वहीं हो तथा वह पाप ग्रहों से दृष्ट हो।
2. लग्नेश अष्टम स्थानगत होकर सारे बली पाप ग्रहों से देखा जाता हो तो चार मास में बालक का मरण होता है।
3. लग्नेश लग्न में ही हो तथा सारे पाप ग्रह अदृश्य चक्रार्द्ध में हों तो भी बालक की चैथे मास में मृत्यु हो जाती है।
4. व्यय स्थान में बृहस्पति, लग्न में शनि और शुक्र यदि सूर्य से युत हों तो बालक पांच मास तक जीवित रहता है।
5. अष्टम स्थान में चन्द्रमा व शनि हों और लग्न में शुक्र हो तो छठे मास में बालक की मृत्यु हो जाती है।
एक वर्ष पर्यन्त आयु: चन्द्रमा से केन्द्र में पाप ग्रह हों और शुभ ग्रह न हों तो एक वर्ष के भीतर मृत्यु होती है। यथा- केन्द्रैश्चन्द्रात्पापयुक्तैर सौम्यैः। स्वर्गंयाति प्रोच्यते वत्सरेण।।
दो वर्ष पर्यन्त मृत्यु: वक्री शनिर्भौम गृहे केन्द्रे षष्ठे अष्टमेऽपि वा। कुजेन बलिन दृष्टे हन्ति वर्षद्वये शिशुम।।
तीन वर्ष पर्यन्त आयु योग: तीसरे, छठे या नवें स्थान में पाप ग्रह से युक्त लग्नेश हो और केन्द्र अथवा व्यय स्थान में बृहस्पति हो।
चार वर्ष की आयु के योग: छठे या आठवें स्थान में कर्क राशि में बुध हो तथा उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो बालक समस्त प्रयत्नों के बावजूद भी चार वर्षाें में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस योग को कल्याण वर्मा ने भी कहा है-
कर्कटधामनि सौम्यः षष्ठाष्टम संस्थितो विलग्नक्षत्।ि चन्द्रेण दृष्टमूर्तिवर्षचतुष्केण मारयति।। (सारावली 10/10) छह वर्ष की आयु के योग:
1.कर्क या सिंह राशि में शुक्र हो तथा उसे सारे शुभ ग्रह देखते हों।
2.चन्द्रमा के नवांश में शनि हो तथा उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो और लग्नेश भी चन्द्रमा से दृष्ट हो।
सात वर्ष पर्यन्त आयु योग: सातवें स्थान में क्षीण चन्द्रमा हो, लग्न में शनि हो तथा शुक्र, मंगल भी इनके साथ हों, बृहस्पति की दृष्टि न हो।
आठ वर्ष पर्यन्त आयु योग: सातवें स्थान में सूर्य, लग्न में मंगल या चन्द्रमा हो। आठवें स्थान में पाप ग्रह तथा चन्द्रमा निर्बल हो।
योगारिष्ट विचार नौ वर्ष की आयु के योग:
1. लग्नेश से आठवें स्थान में निर्बल चन्द्रमा समस्त पाप ग्रहों से दृष्ट हो।
2. यदि लग्नेश सूर्य (सिंह लग्न) शनि से युक्त हो तथा उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो नवें वर्ष में बालक का मरण हो जाता है।
दस वर्ष की आयु के योग:
1. शनि, मकर के नवांश में स्थित हो, तथा बुध से दृष्ट हो।
2. चतुर्थ स्थान में राहु तथा केन्द्र, षष्ठ व अष्टम स्थानों में चन्द्रमा हो तो दसवें वर्ष में मृत्यु हो जाती है।
ग्यारह वर्ष की आयु के योग:
1. बुध यदि सूर्य व चन्द्रमा से युक्त हो तथा उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो।
2. बुध यदि सूर्य से युत हो तथा उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो।
बारह वर्ष की आयु के योग:
1. सिंह राशि में चन्द्रमा हो और आठवें स्थान में सूर्य व शनि हो तथा उन पर शुक्र की दृष्टि हो।
2. वृश्चिक के नवांश में शनि हो तथा उस पर सूर्य की दृष्टि हो तो बारहवें वर्ष में बालक की मृत्यु हो जाती है। तेरह वर्ष से बत्तीस वर्ष की आयु तक अल्पायु योग होता है।
तेरह वर्ष की आयु के योग: यदि जन्म समय में व्यय स्थान में वक्री शनि हो तथा वह राहु से युक्त हो, अथवा तुला राशि के नवांश में शनि हो तथा उस पर गुरु की दृष्टि हो तो इन योगों में तेरहवें वर्ष में बालक का मरण होता है।
चैदह वर्ष की आयु के योग: आठवें स्थान में शनि, सूर्य, मंगल, राहु व बुध हों। कन्या के नवांश में शनि हो तथा उस पर बुध की दृष्टि हो। बारहवें स्थान में शनि या मंगल से युक्त राहु हो।
पन्द्रह वर्ष की आयु के योग: छठे स्थान में सूर्य, चतुर्थ स्थान में चन्द्रमा हो तथा केन्द्र स्थानों में ग्रह न हो।
सोलह वर्ष की आयु के योग: शनि कर्क राशि के नवांश में हो तथा उस पर केतु की दृष्टि हो तो सोलहवें वर्ष में सांप के काटने से मृत्यु होती है।
सत्रह वर्ष की आयु के योग: सिंह, तुला व वृश्चिक लग्न में जन्म हो तथा राहु लग्न में ही स्थित हो और उस पर अन्य पाप ग्रहों की दृष्टि हो, गुरु व शुक्र की दृष्टि न हो।
अठारह वर्ष की आयु के योग: अष्टमेश अपनी नीच राशि में किसी केन्द्र स्थान में स्थित हो तथा अष्टम स्थान में अस्त बुध विद्यमान हो।
उन्नीस वर्ष की आयु के योग: मंगल अपनी नीच राशि कर्क में हो, सूर्य मकर में हो तथा वह शनि शुक्र से युक्त हो और बुध अस्त हो।
बीस वर्ष की आयु के योग: सूर्य चन्द्रमा आठवें स्थान में हों, चतुर्थ या नवम स्थान में राहु हो, सातवें स्थान में मंगल व दूसरे स्थान में बृहस्पति हो।
अल्पायु योग इक्कीस वर्ष की आयु के योग: वृष, कन्या या कुम्भ में सूर्य हो, मेष में शनि हो, वृषभ में बुध हो और आठवें स्थान में पाप ग्रह हों।
बाईस वर्ष की आयु के योग: लग्न में बृहस्पति के साथ कोई पाप ग्रह हो तथा उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो और आठवें स्थान में कोई ग्रह हो।
चैबीस वर्ष की आयु के येाग: निर्बल लग्नेश व निर्बल चन्द्रमा यदि आपोक्लिम स्थानों में हो तथा उन पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो।
पच्चीस वर्ष की आयु के योग: व्ययेश व अष्टमेश निर्बल हो और द्विस्वभाव राशि में लग्न में शनि हो।
छब्बीस वर्ष की आयु के योग: लग्न, सप्तम या त्रिक स्थानों में चन्द्रमा हो तथा वह पाप ग्रहांे से युक्त या दृष्ट हो।
सत्ताईस वर्ष की आयु के योग: यदि गुरू अपनी राशि व द्रेष्काॅण में हो, अष्टम में पापयुक्त लग्नेश हो, तथा अष्टमेश भी वहीं पर हो।
अट्ठाईस वर्ष की आयु के योग: यदि लग्नेश अष्टम स्थान में हो तथा अष्टमेश पाप ग्रह हो और उस पर गुरु व किसी अन्य पाप ग्रह की दृष्टि हो।
उनतीस वर्ष की आयु के योग: चन्द्रमा शनि का परस्पर सम्बन्ध हो और सूर्य लग्न से आठवें स्थान में हो तो उन्तीसवें वर्ष में मृत्यु हो जाती है।
तीस वर्ष की आयु के योग: बलरहित, क्षीण चन्द्रमा यदि पाप ग्रहों से युक्त होकर बारहवें स्थान में हो और लग्नेश पर पाप ग्रह की दृष्टि हो।
बत्तीस वर्ष की आयु के योग: लग्न में यदि राहु हो और लग्न को छोड़कर शेष केन्द्र स्थानों में चन्द्रमा हो। म
ध्यायु योग चैंतीस वर्ष की आयु के योग: वृष राशि या अष्टम स्थान में मंगल हो, पष्ठ में बुध हो, सहज स्थान में गुरु और सातवें स्थान में शुक्र हो।
छत्तीस वर्ष की आयु के योग: एक नक्षत्र व एक ही राशि में चार या पांच ग्रह अस्तगत और नीच राशिगत हों।
चालीस वर्ष की आयु के योग: अति बलवान् बुध यदि केन्द्र में स्थित हो और शुभ ग्रहों से दृष्ट, आठवें स्थान में कोई भी ग्रह न हो।
बयालीस वर्ष की आयु के योग: क्षीण चन्द्रमा यदि लग्न में हो और केन्द्र और अष्टम स्थान में पाप ग्रह हों।
सैंतालीस वर्ष की आयु के योग: सारे केन्द्र स्थानों में यदि सभी पाप ग्रह हों तथा चन्द्रमा भी पाप ग्रहों से युक्त हो तो मनुष्य सैंतालीस वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त होता है।
उनचास वर्ष की आयु के योग: तीसरे या पांचवें स्थान में वृष राशि का शनि या मंगल हो, चतुर्थ स्थान में शुक्र व बृहस्पति हो और दसवें या ग्यारहवें स्थान में चन्द्रमा हो तो मनुष्य उनचासवें वर्ष में पंचतत्व को प्राप्त होता है।
बावन वर्ष की आयु के योग: लग्न या दशम स्थान में राहु से युक्त सूर्य हो, शनि बारहवें स्थान में हो और मंगल छठे स्थान में हो।
पचपन वर्ष की आयु के योग: कर्क लग्न में जन्म हो और पाप ग्रह से युक्त सूर्य लग्न में हो, दसवें स्थान में चन्द्रमा हो और केन्द्र स्थानों में गुरू हो।
साठ वर्ष की आयु के योग: चन्द्रमा अपनी उच्चराशि या स्वराशि में स्थित हो, या केन्द्र में शुभ ग्रह हों और लग्न में बलवान् लग्नेश हो। चैसठ वर्ष की आयु के योग: केन्द्र में बृहस्पति, लग्न स्थान में शुक्र और नवम स्थान में शनि हो।
छियासठ वर्ष की आयु के योग: शनि मीन राशि में हो, चन्द्रमा व्यय स्थान में हो, बृहस्पति लग्न में हो और बुध सूर्य से युक्त हो।
अड़सठ वर्ष की आयु के योग: सभी ग्रह त्रिक स्थानों में स्थित हों। यदि स्वराशिगत मंगल दशम स्थान पर दृष्टि रखता हो और बुध शुक्र का योग हो।
सत्तर वर्ष की आयु के योग: अष्टम स्थान में कोई ग्रह स्थित न हो, लग्न में बृहस्पति हो, केन्द्र में शुभग्रह हो, अष्टम, लग्न व चन्द्रमा पर पापग्रहों की दृष्टि न हो।
दीर्घायु योग इकहत्तर वर्ष की आयु का योग: यदि मंगल जन्म लग्न में सातवें स्थान में स्थित हो और लग्न पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो इकहत्तरवें वर्ष में प्राणी प्राणों से विमुक्त हो जाता है।
बहत्तर वर्ष की आयु का योग: जन्म समय में लग्न में यदि शनि का नवांश हो और केतु लग्न में स्थित हो तो मनुष्य बहत्तरवें वर्ष में मृत्यु की प्राप्त होती है।
तिहत्तर वर्ष की आयु का योग: लग्नेश पर यदि पाप ग्रहों की दृष्टि हो, शुभ ग्रह बलवान हों और चन्द्रमा शुभ वर्ग में स्थित हो। पचहत्तर वर्ष की आयु का योग: लग्न में परिपूर्ण मण्डल वाला चन्द्रमा हो तथा उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो पचहत्तर वर्ष तक व्यक्ति जीवित रहता है।
उनासी वर्ष की आयु का योग: केन्द्र स्थानों में स्वोच्च राशिगत चार ग्रह हों तो बुद्धिमान लोगों को प्राणियों की मृत्यु उनासीवें वर्ष में कहनी चाहिए।
अस्सी वर्ष की आयु का योग: चन्द्रमा और बृहस्पति यदि मित्र ग्रहों की राशि में हों, लग्नेश बलवान होकर यदि एकादश स्थान में हो और बुध दशम स्थान में हो।
पचासी वर्ष की आयु के योग: केन्द्र में गुरु के नवांश में सूर्य, शनि व मंगल हों, लग्न में बृहस्पति हो और अन्य ग्रह अष्टम के अतिरिक्त स्थानों में हों तो मनुष्यों की आयु पचासी वर्ष होती है।
नब्बे वर्ष पर्यन्त आयु योग: यदि सभी ग्रह मिथुन के द्वादशांश में हों, सभी शुभ ग्रह केन्द्र स्थानों में हों, पाप ग्रह अष्टमेतर स्थानों में हों और चन्द्रमा षष्ठ स्थान में हो।
सौ वर्ष की आयु के योग: शुक्र और बृहस्पति यदि केन्द्र स्थानों में स्थित हों तो सौ वर्ष की आयु होती है। शोध प्रस्तुत शोध ग्रह-गणित (दशा, अन्तर्दशा, गोचर) पर आधारित है जो नियतायु का निर्धारण करने में सहयोगी है।
महादशा: सबसे अधिक मृत्यु बुध की महादशा में होती है जो पुरुषों में 16 प्रतिशत प्रति वर्ष होती है तथा महिलाओं में सर्वाधिक मृत्यु सूर्य की महादशा में 18 प्रतिशत प्रति वर्ष होती है तथा केतु की महादशा में सबसे कम प्रति वर्ष मृत्यु दर है। पुरुषों में सबसे कम चन्द्रमा की महादशा में 6.7 प्रतिशत होती है।
बुध की महादशा में क्रमशः अन्तर्दशा केतु, शुक्र, सूर्य और शनि सर्वाधिक होते हैं। चन्द्रमा की महादशा में चन्द्रमा की अन्तर्दशा में प्रतिवर्ष मृत्यु दर शून्य है।
अन्तर्दशा: शोध में यह स्पष्टतः पाया गया कि चन्द्रमा की महादशा में चन्द्रमा की अन्तर्दशा में मृत्यु दर शून्य के बराबर होती है। सारणीबद्ध ग्रहों की महादशा-अन्तर्दशा में शोध के निष्कर्ष का विवरण प्रस्तुत है: सबसे अधिक मृत्यु दर महादशा अन्तर्दशा मृत्यु दर सूर्य गुरु/शनि अधिक चन्द्रमा मंगल/राहु अधिक मंगल गुरु/शनि अधिक बुध केतु अधिक गुरु सूर्य अधिक शुक्र चन्द्रमा अधिक शनि केतु/मंगल/गुरु अधिक राहु शुक्र/बुध अधिक केतु सूर्य/राहु/केतु अधिक सबसे कम मृत्यु दर महादशा अन्तर्दशा मृत्यु दर सूर्य सूर्य/मंगल शून्य मंगल केतु शून्य चन्द्रमा केतु शून्य केतु मंगल शून्य शोध में यह भी पता लगाने की कोशिश की गई कि किन भावों से सम्बन्ध रखने वाले ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा एवं प्रत्यन्तर्दशा में मृत्यु दर सर्वाधिक अथवा न्यूनतम है। इसमें उन भावों में अवस्थित ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा एवं प्रत्यन्तर्दशा तथा उन भावाधिपतियों के महादशा, अन्तर्दशा एवं प्रत्यन्तर्दशा की बात की गई है। निम्नांकित सारणी इस तथ्य को प्रदर्शित करने में सक्षम हैं:
भावस्वामी की महादशा मृत्यु दर प्रथम एवं चतुर्थ सर्वाधिक द्वितीय न्यूनतम भावस्वामी की अन्तर्दशा मृत्यु दर चतुर्थ सर्वाधिक अष्टम न्यूनतम भाव में स्थित ग्रह/भावस्वामी मृत्यु दर की प्रत्यन्तर्दशा द्वितीय एवं दशम सर्वाधिक चतुर्थ कम महादशा स्वामी की भाव में स्थिति मृत्यु दर द्वितीय अधिक अष्टम कम अन्तर्दशा स्वामी की भाव में स्थिति मृत्यु दर चतुर्थ एवं नवम सर्वाधिक षष्टम् कम प्रत्यन्तर्दशा स्वामी की भाव में स्थिति मृत्यु दर द्वितीय अधिक चतुर्थ एवं षष्ठ कम शोध के दौरान यह भी ज्ञात करने की कोशिश की गई कि लग्न से गोचरस्थ विभिन्न ग्रहों के किस भाव में रहने के दौरान मृत्यु दर सर्वाधिक अथवा न्यूनतम होती है।
इस आशय से सम्बन्धित सारणी नीचे प्रस्तुत की गई है: लग्न से भाव मृत्यु दर गोचर सूर्य पंचम एवं नवम अधिक सूर्य तृतीय एवं अष्टम कम चन्द्रमा पंचम एवं एकादश अधिक चन्द्रमा चतुर्थ कम मंगल पंचम अधिक मंगल सप्तम कम बुध षष्ठम एवं नवम अधिक बुध द्वितीय एवं अष्टम कम गुरु तृतीय एवं पंचम अधिक गुरु द्वितीय कम शुक्र दशम अधिक शुक्र तृतीय कम शनि एकादश अधिक शनि चतुर्थ एवं सप्तम कम राहु चतुर्थ एवं अष्टम अधिक राहु एकादश कम जन्मकालीन ग्रह से गोचरस्थ ग्रह की स्थिति के आधार पर भी शोध में मृत्यु दर निर्धारित करने की कोशिश की गयी। इसके परिणाम निम्नांकित रूप में सामने आए जो सारणी में स्पष्ट किये गये हैं:
गोचरस्थ जन्मकालीन ग्रह मृत्यु दर ग्रह सूर्य सूर्य से तृतीय अधिक सूर्य गुरु से पंचम अधिक चन्द्रमा सूर्य से एकादश अधिक मंगल मंगल के साथ लग्न में अधिक मंगल शनि से द्वादश अधिक बुध केतु/सूर्य/गुरु से पंचम अधिक गुरु सूर्य/चन्द्रमा/बुध से पंचम अधिक गुरु गुरु/राहु/केतु से छठे अधिक शुक्र राहु से बारहवें अधिक शुक्र सूर्य से चैथे अधिक शनि शनि से दूसरे अधिक शनि गुरु से सप्तम अधिक शनि राहु के साथ अधिक राहु मंगल/गुरु से अष्टम अधिक राहु केतु से द्वितीय अधिक लग्नेश पर सूर्य का गोचर या द्वादश भाव में अवस्थित राहु पर सूर्य का गोचर होने से भी मृत्यु दर अधिक पायी गई। शनि का गोचर द्वादशेश से द्वादश भाव में होने पर मृत्यु दर सर्वाधिक पायी गई।