कष्ट, विपत्ति, बाधा के ज्योतिषीय कारण व निवारण
कष्ट, विपत्ति, बाधा के ज्योतिषीय कारण व निवारण

कष्ट, विपत्ति, बाधा के ज्योतिषीय कारण व निवारण  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 4703 | सितम्बर 2006

भारतीय विचारधारा के अनुसार मनुष्य के वर्तमान को उसका पूर्व कर्मफल प्रभावित करता है। उसके कष्टों के निम्नलिखित कारण बताए गए हैं: देव कोप, धर्मदेव, रोष, सर्पक्रोध, प्रेत कोप, गुरु- माता-पिता-ब्राह्मण श्राप, शब्द, भंगिमा, विष और अभिचार। यहां कष्टों और बाधाओं के कुछ प्रमुख ज्योतिषीय कारणों और उनके निवारण के उपायों का वर्णन प्रस्तुत है। बाधा एवं कर्मदोष निर्णय: जन्मकुंडली के नौवें भाव से पूर्वजन्म का तथा पांचवें भाव से पुनर्जन्म व जन्मकुंडली के सर्वाधिक दुष्प्रभावित भावों व ग्रहों से पूर्वकर्मों का पता चलने पर उपयुक्त प्रायश्चित्त, पूजा, उपासना, व्रतोपवास आदि बताए जाते हैं।

अनुष्ठान पद्धति के अनुसार अति दुष्ट ग्रह या भावेष के देवता के कोप से रोग होता है। अति दुष्ट ग्रहाधिष्ठित राषि में चन्द्र, सूर्य या गुरु के संचरण से रोग या कष्ट का आरंभ होता है और अति सुस्थ ग्रहाधिष्ठित राषि में प्रवेष से व सुस्थ ग्रह के देवता की उपासना से रोग या कष्ट से मुक्ति मिलती है। रोग, कष्ट, विक्षिप्तता, अभिचार का मूल कारण: षारीरिक रोग, कष्ट, मानसिक विक्षिप्तता, अभिचार आदि का मूल कारण ग्रह है या मानव, इस प्रष्न का उत्तर जन्म या प्रश्नकालीन लग्नेश व षष्ठेश के राशि-अंश के योगफल पर निर्भर करता है।

परमपुरुष के प्रतिनिधि देवगुरु बृहस्पति हैं। कंुडली में गुरु के षुभ होने से देवता अनुकूल अन्यथा प्रतिकूल फल देंगे। देवता के स्वभाव का निर्णय उनके ग्रहों से संबंधानुसार इस प्रकार करें। दुःस्थान, बाधाराशि व बाधक: कुंडली के छठे, आठवें व 12वें भावों को दुःस्थान कहते हैं। इनमें बैठे ग्रह व भावेश के देवता के कोप से रोग या शोक होता है। मुक्ति हेतु ग्रह से संबंधित देवता की पूजा-अर्चना करें। नौ ग्रहों के देवता इस प्रकार हैंः सूर्य-षिव, चन्द्र-दुर्गा, कुज- कार्तिक, बुध-विष्णु, गुरु-महाविष्णु, शुक्र-लक्ष्मी, षनि-आंजनेय या हनुमान, राहु-चंडी, केतु-गणेष। विविध भावों में ग्रहस्थिति से देवकोप के कारण व षमन विधि की जानकारी मिलती है।


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बाधक ग्रह दुःस्थान छठे, आठवें, 12वें या तीसरे भाव में हों, तो इष्टदेव के कोप का संकेत देते हैं। व्ययभाव में सूर्य हो या सूर्य से 12वें भाव में पापग्रह हो, तो खंडित देवप्रतिमा के कोप से कष्ट होता है। कुजयुत हो तो प्रबंधकों में मतविरोध के कारण प्रतिमा या मंदिर की देखभाल में कमी के फलस्वरूप दैवकोप होता है। षनियुत हो, तो प्रतिमा, मंदिर या दोनों के दूषित होने से दैवकोप होता है। राहु या गुलिकयुत हो, तो मेढकादि द्वारा प्रतिमा दूषित होने से दैवकोप होता है। लग्न में पापयुत हो तो उचित स्थिति में प्रतिमा नहीं होने से दैवकोप होता है। षनि राहु या केतु युत या छठे, आठवें अथवा 12वें भाव में हो तो गंदगी से मंदिर दूषित होता है। गुलिकयुत हो तो मूर्ति खण्डित होती है। चैथे भाव में पापयुत हो, तो मंदिर के जीर्णाेद्धार की आवष्यकता होती है।

बाधक ग्रह की राषि तथा भाव स्थिति व प्रायष्चित्त विधान: यदि बाधक सातवें भाव में हो तो देवता के सम्मुख नृत्य से प्रायष्चित्त होगा। यदि मेष, सिंह या वृष्चिक राषि में हो, तो देवमंदिर को आलोकित करने से प्रायष्चित्त होगा। कर्क, वृष या तुला राषि में हो, तो देवता को दूध, घी, चावल की खीर का भोग लगाने से प्रायष्चित्त होगा। मिथुन या कन्या राषि में हो, तो देवप्रतिमा पर चंदनलेप से षांति होगी। धनु या मीन राषि में हो, तो देवता के फूलों के हार से शंृगार व पवित्र फूलों से पूजा द्वारा प्रायष्चित्त होगा।

मकर या कुंभ राषि में हो, तो देवप्रतिमा को वस्त्राभूषण अर्पित करने से प्रायष्चित्त होगा। यदि आठवें या 10वें भाव में हो, तो पूजा या बलिकर्म विधेय है। 12वें भाव में हो तो ढोल, तबला वादन व संगीत के आयोजन से षांति होगी। बाधक के देवता की प्रातः व सायं विधिवत् पूजा-अर्चन करें। यदि बाधक लग्न में हो, तो छाया पात्र दान करें। दूसरे भाव में हो, तो देवता का मंत्रजप करे। तीसरे भाव में हो, तो विधिवत् देवता की पूजा-अर्चना करें। चैथे भाव में हो, तो देवमंदिर का निर्माण कराएं। पांचवें में हो, तो देवता के निमित्त तर्पण और ब्राह्मणों या दीनों को अन्नदान करें। छठे में हो, तो प्रतिकार बलि करें। सातवें में हो, तो प्रतिमा के निकट नृत्य का आयोजन करें।

आठवें में हो, तो बलि या विधिपूर्वक व्रतोपवास करें। नौवें में हो, तो देवता के उपासना या आवाहन मंत्र का जप करें। 10वें में हो, तो देवता के निमित्त तर्पण-मार्जन करें। 11वें में हो, तो तर्पण करें। 12व में हो, तो बाधक के देवता से जातक को किसी भी प्रकार की क्षति नहीं होगी। यदि बाधक ग्रह से 12वें स्थान में सूर्य या सिंह राषि हो, तो देवता की आराधना से कष्टों की तीव्रता कम होगी। चंद्र या कर्क राषि हो, तो षंखाभिषेक और चावल-पानी का निःषुल्क वितरण करें। कुज या कुज की राषि हो तो मंदिर में दीपमाला प्रज्वलित करें तथा हवन कराएं। बुध या बुध की राषि हो, तो नृत्य का आयोजन करें।


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गुरु या गुरु की राषि हो तो, ब्राह्मण भोजन कराएं तथा आभूषण दान करें। षुक्र या षुक्र की राषि हो, तो मुक्त हस्त से अन्नदान करें। षनि या षनि की राषि हो, तो जनसाधारण व पिछड़ी जाति के लोगों में अन्नदान व भूमिदान करें। लग्न में षुभयुत बाधक या अन्य ग्रह हो तो बाधक या षुभयुत ग्रह के देवता की कृपादृष्टि रहेगी। सर्पदेव का कोप लग्न से छठे, आठवें या 12वें में बाधक या गुरु और केंद्र में राहु हो, तो उच्च श्रेणी के सर्पकोप से कष्ट होता है। गुलिक से केंद्र में गुरु हो, तो निम्न श्रेणी के सर्पकोप से कष्ट होता है। बाधा राषि में राहु हो, तो सर्पकोप से कष्ट होता है। प्रतिकार: यदि लग्न से छठे, आठवें या 12वें भाव या बाधा राषि में राहु हो, तो सर्पबलि विधेय है।

लग्न से चैथे भाव में राहु हो, तो चित्रकूट में षिला अर्पित करें। 12वें भाव में राहु हो, तो सर्पदेव के निमित्त संगीत का आयोजन करंे। सर्प को दूध-जल मिश्रण अर्पित करें। सातवें भाव में राहु हो, तो भक्तिगीत का आयोजन करें। किसी भी भाव के राहु हेतु सर्पबलि विधेय है। सर्पदेव असंतुष्ट हों, तो रोग व अन्य बाधाओं से कष्ट मिलेगा। सर्पदेव संतुष्ट हांे, तो स्वास्थ्य, संतति और समृद्धि देंगे। राहु चर राषि में हो, तो सांप के अंडों के नाष के कारण सर्पदोष से कष्ट होता है। स्थिर राषि में हो, तो यह सर्पनिवास के पास के पेड़ काटने से सर्पडिंबों के क्षतिग्रस्त होने का संकेत है। द्विस्वभाव राषि में हो, तो सर्पहत्याजन्य सर्पश्राप से कष्ट होता है।

मांदियुत या उससे पांचवीं, सातवीं या नौवीं राषि में हो तो सर्पश्राप से कष्ट होता है। प्रतिकारः पूजास्थल में सोने या तांबे के सांप या अंडे स्थापित करें, नए वृक्ष लगवाएं। लग्न में चरराषि हो, तो 11 अंडों या छोटे-छोटे सांपों को वंषपरंपरा के अनुसार स्थापित करें। स्थिर राषि हो, तो नौ अंडों या छोटे-छोटे सांपों को वंषपरंपरा के अनुसार स्थापित करें। द्विस्वभाव राषि हो, तो 7 अंडों या छोटे-छोटे सांपों को वंषपरंपरा के अनुसार स्थापित करें। राहु से केंद्र में कुज हो, तो वृक्षों के काटने या मिट्टी हटाते समय अन्य कारण से सांप को मारने, सांपों की बांबी को समतल करने, पेड़ों को आग लगाने या नए पेड़ नहीं लगाने के कारण सर्पकोप द्वारा कष्ट मिलेगा।

राहु से केन्द्र में षनि-गुलिक हों, तो सांप की बांबी या पास में मलमूत्रादि की गंदगी इकट्ठी होने, नीचवृत्ति के लोगों को सांप की बांबी के पास भेजने, हाथियों द्वारा सांप की बांबी तहस-नहस करवाने अथवा बांबी पर अबाध रूप से बैलों द्वारा हल चलाकर उसे नष्ट करने के कारण सर्पकोप से कष्ट होता है। राहु से केन्द्र में केवल गुलिक हो, तो थूकने, उनके निवास पर या उसके निकट संभोग या मलत्याग करने के कारण सर्पनिवास अपवित्र होता है। प्रतिकार: राहु से केंद्र में षनि या गुलिक अकेले या एक साथ हों तो सर्पनिवास की सुरक्षा की व्यवस्था करें, साफ रखें, वहां पेड़-पौधे लगाएं, विधिवत् षुद्धिकरण करें।


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पितृश्राप: बाधाराषि व कुज नवांष में सूर्य या चंद्र हो या छठे, आठवें या 12वें में कर्क-सिंह राषि में पाप हो, तो पूर्वजन्म के मातृ या पितृ श्राप से कष्ट होता है। गुरुयुत या गुरु की बाधा राषि में पाप हो, तो ब्राह्मण व देवता के श्राप से कष्ट मिलेगा। बाधक सूर्य या सिंह राषि हो, तो पिता, पितामह, प्रपितामह या अन्य पूर्वज के श्राप से कष्ट होगा। बाधक मंगल हो, तो अति तीव्र कष्ट होगा। प्रतिकार: माता-पिता की सेवा करें। यदि जीवित नहीं हों, तो श्रद्धापूर्वक उनके वार्षिक कर्म कराएं। निवृत्ति हेतु उपयुक्त उपायों का अवलंबन करें। कुछ लग्नों के हेतु नैसर्गिक पापी सूर्य, मंगल व षनि योगकारक होते हैं। किंतु राहु-केतु सभी लग्नों के लिए पापी होते हैं और अधिष्ठित भाव को प्रभावित करते हैं।

नवम, नवमेष या चंद्र राषि से बाधकराषि को राहु-केतु दूषित करें, तो पितृश्राप से जातक की षिक्षा, जीविका, विवाह, दाम्पत्य जीवन, संतान आदि प्रभावित होते हैं। अधिकांषतः षारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति प्रभावित होते हैं। नौवें भाव में षष्ठेष या 12वें भाव में नवमेष हो, तो पिता, गुरु या घर का मुखिया असंतुष्ट होता है। यदि छठे भाव में सूर्य या चंद्र हो, या सूर्य या चंद्र की षष्ठेष से युति हो तो पिता या माता के रुष्ट होने से कष्ट होता है। प्रतिकार: षनिवार को कौओं या मछलियों को गर्म चावल, घी या तिल के लड्डू खिलाने से दोष दूर होता है।



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