महाभारत के समय कुरूक्षेत्र में जब भगवान् श्रीकृष्ण ने कौरव-सेना को युद्ध के लिये उपस्थित देखा तो उन्होंने अर्जुन से उनके हितके लिये कहा - हे महाबाहु अर्जुन ! तुम शत्रुओं को पराजित करने के निमित्त रणभिमुख खड़े होकर पवित्र भाव से दुर्गा (शक्ति) का स्तवन करो। संग्राम में बुद्धिमान वसुदेवनंदन के ऐसा कहने पर अर्जुन रथ से उतर पड़े और हाथ जोड़कर दुर्गा का ध्यान करते हुए इस प्रकार स्तवन करने लगे- हे सिद्ध-समुदाय की नेत्री आयें ! तुम मन्दराचल के विपिन में निवास करती हो, तुम्हारा कौमार (ब्रह्मचर्य) व्रत अक्षुण्ण है, तुम काल-शक्ति एवं कपाल-धारिणी हो, तुम्हारा वर्ण कपिल और कृष्णपिंगल है, उन्हें मेरा नमस्कार। भद्रकाली तथा महाकाली के रूप में तुम्हें नमस्कार।
अत्यंत कुपित चंडिकारूप में तुम्हें प्रणाम। हे सुन्दरी ! तुम्हीं संकटों से पार करने वाली हो; तुम्हं सादर नमस्कार! तुम मोर-पंख की ध्वजा धारण करती हो और नाना भांति के आभूषणों से भूषित रहती हो। हे महाभागे ! तुम्हीं कात्यायनी, कराली, विजया तथा जया हो। अत्यंत उत्कट शूल तुम्हारा शस्त्र है, तुम खग तथा चर्म धारण करती हो। हे ज्येष्ठे ! तुम गोपेन्द्र श्रीकृष्णजी की छोटी बहिन और नंदगोप के कुल की कन्या हो। हे पितांबर धारिणी कौशिकी तुम्हें नमस्कार है। उमा, शाकम्भरी, महेश्वरी, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्षी, विरूपाक्षी और घूमाक्षी आदि रूपों में मेरा प्रणाम है। हे देव ! तुम्हीं वेद-श्रवण से होने वाला महान् पुण्य हो, तुम वेद एवं ब्राह्मणों की प्रिय तथा भूतकाल को जानने वाली हो।
जम्बूद्वीप की राजधानियों और मंदिरों में तुम्हारा निवास-स्थान है। हे भगवती ! कार्तिकेय जननी ! हे कान्तारवासिनी ! दुर्गे ! तुम विद्याओं में महाविद्या और प्राणियों में महानिद्रा हो। हे देवी ! तुम्हीं स्वाहा, स्वधा, कला, काष्ठा, सरस्वती, सावित्री, वेदमाता और वेदान्त आदि नामों से कही जाती हो। हे महदेवी ! मैंने विशुद्ध चित्त से तुम्हारी स्तुति की है, तुम्हारे प्रसाद से रणक्षेत्र में मेरी सदा ही विजय हो। बीहड़ पथ, भयजनक स्थान, दुर्गम भूमि, भक्तों के गृह तथा पाताल-लोक में तुम निवास करती हो और संग्राम में दानवों पर विजय पाती हो। तुम्हीं जम्भनी (तन्द्रा), मोहिनी (निद्रा), माया, लज्जा, लक्ष्मी, संध्या, प्रभावती, सावित्री तथा जननी हो।
तुष्टि, पुष्टि, धृति तथा सूर्य और चंद्रमा को अधिक कान्तिमान् बनानेवाली ज्योति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं भूति-मानों की भूति (ऐश्वर्य) हो और समाधि में सिद्ध तथा चारणजन तुम्हारा ही दर्शन करते हैं। इस प्रकार स्तुति करने के अनन्तर मनुष्यों पर कृपा रखने वाली भगवती दुर्गा अर्जुन की भक्ति को समझकर भगवान् श्रीकृष्ण के सामने ही आकाश में स्थित होकर बोलीं- हे पाण्डुनन्दन ! तुम स्वयं नर हो और दुद्र्वर्ष नारायण तुम्हारे सहायक हैं; अतः तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लोगे। रण में शत्रुओं की कौन कहे साक्षात् इंद्र के भी तुम अजेय हो। ऐसा कहकर यह वरदायिनी देवी उसी क्षण अन्तध्र्यान हो गयी।