किसी भी कुंडली का फलकथन राशि, लग्न एवं ग्रह दशा को ध्यान में रखकर किया जाता है। जन्म नक्षत्र ज्योतिषीय शास्त्र में वह केंद्र बिंदु है जिसके चारों तरफ जातक की जीवन गति चलती रहती है। सटीक फलकथन करने के लिए जन्म नक्षत्र विचार करना परम आवश्यक है। 27 नक्षत्रों में से 6 नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र होते हैं। इनमें जन्में जातकों को गंडमूल का दोष लगता है। हमारे दूरदर्शी ज्योतिष मुनियों ने सूर्य चंद्रमा एवं लग्न कुंडलीयों का समायोजन सुदर्शन कुंडली में किया है। आइए जानें गंडमूल एवं सुदर्शन कुंडली द्वारा जातक के आचार व्यवहार एवं अरिष्टों की जानकारी... सूर्य कुंडली, चंद्र कुंडली, लग्न कुंडली तीनों कुंडलियों का एक साथ समायोजन सुदर्शन चक्र कुंडली कहलाता है। लग्न जातक के सामान्य आकार, लक्षण, स्वभाव एवं स्वास्थ्य के बारे में सूचित करती है। लग्न के आधार पर कुंडली के अन्य भावों का क्रमबद्ध निर्धारण किया जाता है।
इन द्वादश भावों का निर्धारण करके जातक के जीवन में घटने वाली समस्त शुभाशुभ घटनाओं के बारे में विचार किया जाता है। ‘चंद्रमा मनसो जातः’ अर्थात चंद्रमा जातक का मन है। मन की शीघ्र गति होने के कारण एवं सभी ग्रहों में चंद्रमा की गति सबसे अधिक होने के कारण चंद्रमा का मन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। जातक के किसी भी शुभ कार्य जैसे विवाह, उपनयन अन्य आवश्यक मुहूर्तों में चंद्रमा को आधार मानकर कूट जातक के लिए शुभाशुभ मुहूर्त प्राप्त किया जाता है। सूर्य ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। सूर्य को जातक की आत्मा भी कहा जाता है। ‘आत्मा का अंश आत्मा’ इस आधार पर कहा जाता है कि प्रत्येक जातक अपने पिता का अंश है।
अतः सूर्य को पिता का कारक भी कहा गया है। ‘जीवन आत्मा मन तथा शरीर का मिश्रण है’ यह सुदर्शन चक्र का मूल आधार है। आत्मा मन तथा शरीर का सही समायोजन जीवन की पूर्णता के लिए परम आवश्यक है। आत्मा जातक की सबसे भीतरी स्थिति है। मन उससे बाहर की तथा शरीर सबसे बाह्य स्थिति है। इसी प्रकार का क्रम सुदर्शन चक्र कुंडली में भी है। सबसे भीतर सूर्य कुंडली उससे ऊपर चंद्र कुंडली, सबसे बाहर लग्न कुंडली। आत्मा का प्रभाव मन पर व मन के विचारों का प्रभाव जातक के शरीर पर पड़ता है। प्रत्येक जातक में आत्मा के रूप में सिर्फ पिता का ही अंश नहीं है बल्कि आत्मा पिता के माध्यम से प्राप्त जन्म जन्मांतर में विभिन्न योनियों में विचरण करने के उपरांत प्राप्त अनुभवों तथा सीखों का संकलन है। जो सर्वप्रथम मन उसके बाद जातक का विकास रहता है।
इसलिए एक ही पिता की संतान (चाहे जुड़वां ही क्यों न हो) गुण, स्वभाव, आचार, विचार, व्यवहार में एक जैसी नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि शरीर तो पिता से मिलता है लेकिन इस शरीर के साथ ऐसा भी कुछ प्राप्त होता है जो पिछले कई जन्मों के विकास का परिणाम है। यही आत्मा है। हम शरीर के माध्यम से आत्मा का निरंतर विकास करते रहते हैं। मन आत्मा तथा शरीर के मध्य सेतु का कार्य करता है। एक तरफ मन आत्मा का विकास करता है तो दूसरी तरफ आत्मा के अनुभवों को शरीर पर अनुभव कराता है। विचार, प्रयास, गंभीरता, सुख दुखः करूणा, दया, प्रेम इसी का परिणाम है। यही पुनर्जन्म का गूढ़ रहस्य है। हमारे दूरदर्शी ज्योतिष मर्मज्ञ ऋषियों मुनियों ने सूर्य एवं चंद्रमा द्वारा बनने वाले योगों पर विचार करना बताया है। उसका आशय मन एवं आत्मा पर अन्य ग्रहों द्वारा पड़ने वाले प्रभाव से है। मन और आत्मा का सही समायोजन जातक के व्यक्तित्व का विकास करता है।
सूर्य से बनने वाले वसियोग, वासियोग, उभयचारी योग में चंद्रमा को विशेष महत्व दिया है एवं सर्य से चंद्र की स्थिति के आधार पर इन योगों का निर्माण किया गया है। चंद्रमा से बनने वाले सुनफा योग, अनफा योग, दुरधरा योग, केन्द्रुम योग सूर्य एवं चंद्रमा की विशेष स्थिति के आधार पर ही निर्धारित किये जाते हैं। इन योगों पर गहनता से विचार करके जातक के व्यक्तित्व, भविष्य आदि के बारे में फल कथन किया जाता है। बुधादित्य योग, गजकेसरी योग आदि योगों के अध्ययन से जातक के मन, आत्मा की गहराई जानी जा सकती है। वास्तव में सुदर्शन चक्र ज्योतिष का पूर्ण आध्यात्मिक पक्ष है। उदाहरण: स्वामी जी का सूर्य मकर राशि में है। मकर राशि का स्वामी शनि कर्मवादी ग्रह है।
हमेशा कार्य में लगे रहना फल की आशा किये बिना औरों के लिए कार्य करना, कई बार अपनी खुशियों को न्योछावर कर देना मकर राशि के विशेष गुण है। यह राशि पूरी लगन के साथ अपनी मंजिल की ओर बढ़ने वाली, व्यवहारिक सोच, सहनशीलता प्रदान राशि है। बेहद सुलझी राशि, अपना काम अपने आप करने वाली राशि है। इस राशि में सूर्य विश्लेषणात्मक बुद्धि देता है। स्वामी जी के मकर राशि में सूर्य होने के कारण उक्त गुण प्रधान रूप से अनुभव किये जा सकते हैं। स्वामी जी का चंद्रमा बुध ग्रह से प्रभावित कन्या राशि में है। कन्या राशि की विशेषता भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्ति देता है। शब्द प्रदान करता है। अतः स्वामी जी की सबसे भीतरी अवस्था आत्मा से प्राप्त गुणों को कन्या रूपी चंद्र से संयोग से विचारों की अभिव्यक्ति के विशालता प्राप्त हुई। इस सूर्य राशि व चंद्र राशि के संयोग से ही स्वामी जी को आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ।
इस आत्म ज्ञान को सबसे बाहरी अवस्था शरीर रूपी संसार को प्रदान करने के लिए ईश्वर द्वारा स्वामी जी को गुरु से प्रभावित धनु लग्न प्राप्त हुई। धनु लग्न अग्नि रूपी ज्ञान की अग्नि तत्वीय राशि है। यह राशि ज्ञान, ईश्वर भक्ति, परम शक्ति, सत्यवादी, आध्यात्मवादी, धीरज, कुछ करने की लगन, आत्मविश्वास से परिपूर्ण, ईश्वर की चाह रखने वाली, अच्छा सलाहकार बनाने वाली राशि है। इस राशि द्वारा अच्छी शिक्षा, अच्छा ज्ञान, आध्यात्म अनुसंधान प्राप्त होता है। उक्त सभी गुण धनु लग्न होने से स्वामी जी से प्राप्त हुए। सिर्फ मकर राशि में सूर्य या कन्या राशि में चंद्र या धनु लग्न वाले सभी व्यक्ति विवेकानंद जैसे विचारक नहीं हो जाते हैं। ईश्वर द्वारा निर्धारित नियत सौर राशि, चंद्र राशि और लग्न विशेष धनु लग्न तीनों का समायोजन होने पर आध्यात्मिक पृष्ठभूमि वाले भारत वर्ष के विवेकानंद के रूप में विश्व को आध्यात्मिक मार्गदर्शक प्राप्त हुआ।