आयुर्वेद के अनुसार रोग की उत्पत्ति वात, पित्त व कफ की अधिकता या कमी से होती है। ज्योतिष इन तीनों तत्वों की अधिकता व कमी के लिए ग्रहों को ही कारक मानता है। जातक के जन्म के समय में जिस ग्रह की स्थिति किसी अशुभ भाव से या पाप प्रभाव में होती है उसकी प्रकृति के अनुसार जातक को संबंधित अंग में रोग होता है।
सूर्य पित्त, चंद्र कफ और वात, मंगल पित्त, बुध वात, पित्त व कफ, बृहस्पति पित्त व कफ, शुक्र वात और कफ और शनि वात प्रकृति का ग्रह है। इनमें सूर्य को हड्डी का, चंद्र को रक्त का, मंगल को मज्जा का, बुध को त्वचा का, बृहस्पति को वसा का, शुक्र को वीर्य का, शनि व राहु को स्नायु का और केतु को गैस का प्रतिनिधित्व है।
जन्म के समय बलवान ग्रहों के अनुसार जातक की शरीरांग रचना में मजबूती व निर्बलता ग्रहों के अनुसार होती है। सूर्य प्रकाश का स्रोत है। इस प्रकाश में विभिन्न रंगों की उपस्थिति के अनुसार वस्तुएं जिस प्रकार आकर्षक दिखाई देती हैं उसी प्रकार शरीर को आकर्षक बनाने में नेत्रों की सुंदरता अपेक्षित है।
सूर्य प्रकाश का स्रोत हैं। तो चंद्र जलीय तत्व के कारण आंखों को नमी व प्रकाश भी देता है। अपनी शीतल चांदनी के अनुसार चंद्र आंखों को पारदर्शक बनाकर शीतलता भी प्रदान करता है। शुक्र आकर्षण का कारक है। इसलिए दृश्य अदृश्य पदार्थों की मोहकता व आकर्षण विकर्षण का गुण नयन में इसी ग्रह के प्रभाव से होता है।
इसलिए नयन की सुंदरता व स्वास्थ्य के लिए सूर्य, चंद्र व शुक्र का बलवान एवं शुभ होना आवश्यक है। जन्मकुंडली का प्रथम भाव संपूर्ण शरीर का, द्वितीय दायीं आंख व द्व ादश भाव बायीं आंख का प्रतिनिधित्व करते हैं। अतः नयन सुख में इन भावों के स्वामी ग्रहों व इनमें स्थित ग्रहों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
इन सभी नेत्र कारकांे पर जब पाप प्रभाव पड़ता है। तब उस से संबंधित आंख में जातक को पीड़ा होती है। पाप प्रभाव की अधिकता होने पर नेत्र ज्योति का चला जाना भी स्वाभाविक है।
पराशर के अनुसार नेत्रेशे बलसंयुक्ते शोभनाक्षो भवेन्नरः।
षष्टाष्टमव्ययस्थे च नेत्रवैकल्यवान् भवेत।।
अर्थात नेत्र भावों के स्वामी द्वि तीयेश व द्वादशेश बलवान होकर स्थित हों तो जातक सुंदर नेत्रों वाला होता है। यदि नेत्रेश भाव 6, 8 या 12 में स्थित हो तो मनुष्य की आंखों में विकार होता है। प्राचीन आचार्यों के अनुसार नयन विकार के कुछ प्रमुख ज्योतिषीय योग इस प्रकार हैं।
1. यदि द्वितीयेश शुक्र के साथ हो अथवा लग्न या धन भाव में सूर्य व शुक्र हों तो जातक के नयनों में विकार होता है।
2. यदि द्वितीय भाव में सूर्य और चंद्र स्थित हों तो जातक को रतौंधी होती है। यदि लग्नेश, धनेश सूर्य के साथ धन भाव में हो तो जातक जन्मांध होता है। यदि दोष कारक ग्रह स्वराशि में सर्वोच्च हो तो क्षीण दृष्टि वाला होता है।
3. यदि षष्ठेश शुक्र लग्न, षष्ठ या अष्टम भाव में स्थित हो तो नयन में घाव होता है। सूर्य लग्न में शत्रु नवांश में हो तो आंखों के कोने कम नुकीले होते हैं।
4. यदि जन्म लग्न में चंद्र अपनी नीच राशि वृश्चिक में स्थित हो तो एक नेत्र में विकार होता है। नीच राशि नवांश में हो तो रतौंधी होती है। चंद्र पाप वर्ग में लग्नस्थ हो तो आंखों की ज्योति कम होती है और व्यक्ति अंधेरे में देख नहीं पाता।
5. लग्न में कर्क राशि में मंगल हो तो रतौंधी होती है, पाप ग्रहों के वर्ग में हो तो उसकी आंखें टेढ़ी होती हैं और मित्र राशि में हो तो आखों में विकार होता है। शुभ ग्रह के नवांश में हो तो उसकी दूर दृष्टि कमजोर होती है और अपनी मूल त्रिकोण राशि में लग्नस्थ हो तो आंखों से पानी बहता रहता है।
6. यदि लग्न में मंगल का नवांश हा,े लग्न पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो और मंगल आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो तो जातक के नयनों में विकार होता है।
7. यदि लग्न में सूर्य का नवांश हा,े लग्न पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो और सूर्य आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो तो जातक रात्रि में जन्म वाला होता है तथा उसे रतौंधी होती है।
8. यदि जन्म के समय सिंह लग्न में सूर्य स्थित हो तो आंखें विकार ग्रस्त होती हैं और चंद्र द्व ादश में हो तो व्यक्ति की दृष्टि आधी होती है।
9. सूर्य व चंद्र लग्न में शुभाशुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो जातक की आंखें चिपचिपी व छोटी लग्न व द्वादश में पापग्रह हो तो चपटी, क्रूर ग्रहों से युक्त सूर्य द्वादश, नवम, पंचम या लग्न में हो तो विकल, द्वितीय या द्व ादश में शुक्र पाप ग्रहों से युत हो तो कानी होती हंै।
10. सूर्य व चंद्र क्रूर ग्रहों से युत या दृष्ट हों, वक्री ग्रहों की राशि में त्रिक भावों में हों तो आंखें टेढ़ी होती हैं और यदि समान अंश पर हों तो आंखों में चिह्न होता है।
11. षष्ठेश यदि किसी वक्र ग्रह की राशि में हो, लग्नेश बुध या मंगल की राशि में हो और अष्टमेश व लग्नेश छठे भाव में हो तो बायीं आंख में विकार होता है।
12. शुक्र छठे या आठवें भाव में हो तो दायीं आंख में विकार होता है। शनि, मंगल व गुलिक से युक्त द्वि तीयेश व द्वादशेश हो, धनेश पर शुभ ग्रहों व लग्नेश पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, द्वितीय भाव में पाप ग्रह शनि से दृष्ट हो तो आंखंे दोषपूर्ण होती हैं।
13. द्वितीयेश व द्वादशेश की नवांश राशि का स्वामी किसी पाप ग्रह की राशि में हो, लग्न में मंगल शयनावस्था में हो और लग्न से अष्टम में शुक्र क्रूर ग्रह से दृष्ट हो तो नयनों से पानी गिरने से पीड़ा होती है।
14. लग्नेश यदि सूर्य व श्ुाक्र के साथ त्रिक स्थानों में हो, सूर्य राहु से ग्रस्त होकर लग्न में हो तथा शनि व मंगल त्रिकोण में हों तो जातक जन्मांध होता है।
15. चंद्र व मंगल त्रिक स्थान में हों तो गिरने से, वृहस्पति व चंद्र त्रिक में हांे तो गर्मी से, चंद्र व शुक्र त्रिक में हों तो कामातुरता से आंखें खराब होती हैं।
16. लग्नेश व नेत्रेश सूर्य व शुक्र से युति कर त्रिक भावों में हों तो व्यक्ति जन्मांध होता है और बुध व चंद्र त्रिक में हांे तो अधिक स्वाध्याय से जातक अंधा हो जाता है।
17. शुभ ग्रह त्रिक भावों में क्रूर ग्रहों से दृष्ट हो, कुंभ लग्न में मंगल हो, चतुर्थ व पंचम में दो पाप ग्रह हों, चंद्र व शुक्र की युति पाप ग्रहों से द्वितीय स्थान में हो या सूर्य व चंद्र व्यय भाव में शुभ दृष्टि रहित हों तो जातक अंधा होता है।
18. शनि, चंद्र व सूर्य क्रमशः द्व ादश, द्वितीय व अष्टम में हों, त्रिक व धन स्थान में चंद्र, मंगल, सूर्य व शनि हों तो इनमें से बलवान ग्रह के कारण आखें खराब हो जाती हैं।
19. चंद्र व शुक्र त्रिक भावों में हों या चंद्र, शुक्र व लग्नेश लग्न में हों या लग्नेश व द्वितीयेश त्रिक में हों तो जातक निशान्ध होता है।
उपर्युक्त सभी ज्योतिषीय योगों में ग्रहों की शुभता-अशुभता, नीचता-उच्चता, स्वराशि, षडवर्ग शुद्धि व नवांशस्थ स्थिति, शुभ अशुभ ग्रहों की युति व दृष्टि को ध्यान में रखते हुए विश्लेषण करने पर ही सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है। केवल योग स्थिति से जन्मांध योग में भी सामान्य नेत्र दोष शुभता के कारण पाया जाता है। आइए उदाहरण कुं. डली के आधार पर विश्लेषण करें।
उदाहरण कुंडली 1 में सूर्य व चंद्र वक्री ग्रहों के प्रभाव में हैं। षष्ठेश बुध वक्री होकर द्वादशेश गुरु पर दृष्टि डाल रहा है। द्वितीयेश शुक्र स्वयं वक्री होकर राहु केतु के प्रभाव में है। नवांश कुंडली में लग्न पर बुध, वृहस्पति व शुक्र तीनों वक्री ग्रहों का पूर्ण प्रभाव है। शनि की भी नवांश लग्न एवं द्वितीयेश बुध पर दृष्टि है। इस प्रकार कारक ग्रहों पर पाप प्रभाव अधिक है। लेकिन चंद्र के वर्गोत्तमी होने, बुध व वृहस्पति में परस्पर व्यत्यय योग होने, लग्नेश मंगल के स्वराशि व मित्र नवांश में होने, द्वादशेश बृहस्पति के स्वनवांश में होने और द्वितीयेश शुक्र के मित्र राशि एवं मित्र राशि के ही नवांश में होने से कुछ शुभ प्रभाव भी हुआ।
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