महालक्ष्मी का ही दूसरा नाम पद्मावती है। वैष्णव संप्रदाय में श्री सूक्त और लक्ष्मी सूक्त अत्यंत प्रसिद्ध सूक्त हैं। इनमें श्री विष्णु पत्नी लक्ष्मी के विविध रूपों तथा नामों का रहस्यपूर्ण वर्णन है। पद्मावती के अनेक नामों का उल्लेख लक्ष्मी सहस्रनाम में है जो भगवती पद्मावती के नाम रूपों की अनंतता का परिचायक है।
जिस प्रकार शिव और शक्ति की पूजा उपासना का तंत्रागमों में स्पष्ट उल्लेख है उसी प्रकार धरणेंद्र और पद्मावती की युगल उपासना जैन धर्म में प्रचलित है, किंतु इसमें एक विशेषता यह है कि इन दोनों, यक्ष धरणेंद्र और यक्षिण् ाी पद्मावती की उपासना 23वें तीर्थंकर श्री पाश्र्वनाथ के अधिष्ठापक के रूप में की जाती है।
श्री पाश्र्वनाथ के यक्ष-यक्षिणी स्वरूप सहित बीज मंत्र युक्त मंत्रों के अनेक रूप जैन तंत्र ग्रंथों में उल्लिखत हैं। पद्मावती देवी को शासन रक्षिका और नागराज धरणेंद्र की पत्नी के रूप में सर्वपूज्य बतलाया गया है। महाप्रभाविक पद्मावती स्तोत्र इस दिशा में हमारा सर्वश्रेष्ठ मार्ग दर्शन करता है।
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ का जन्म ईसा पूर्व 877 में वाराणसी में राजा अग्रसेन के यहां हुआ। तीस वर्ष की आयु में उन्होंने भ्रमण दीक्षा ली और 100 वर्ष की आयु में बिहार प्रांत के सम्मेद शिखर पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया। एक बार पाश्र्वकुमार अपने राजमहल में बैठे झरोखे से नगर की चहल-पहल देख रहे थे।
उन्होंने देखा नगर के बाहर पंचाग्नि तप में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कमठ नाम का एक तपस्वी धूनी जलाकर तप कर रहा था। जनता दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी थी। राजकुमार भी हाथी पर बैठकर वहां पहुंचे। उन्होंने अपने विशिष्ट अवधि ज्ञान से देखा कि जलने वाली एक लकड़ी में बैठा नाग-नागिन का जोड़ा भी स्वाहा हो जाएगा।
उन्होंने अपने महावत से जलती लकड़ी बाहर निकलवाकर नाग-नागिन को बचाया। पाश्र्वकुमार ने उन्हें महामंत्र णमोकार सुनाया, जिसके प्रभाव से मरने के बाद उन्होंने पति-पत्नी के रूप में धरणेंद्र पद्मावती नामक देव-देवी का जन्म लिया। तपस्वी कमठ भी मरकर मेघमाली नामक देव हुआ। एक बार पाश्र्वनाथ जंगल में ध्यानस्थ थे।
उस समय मेघमाली देव उधर आ निकला। उसे पूर्व जन्म का प्रसंग याद आया। उसने ऐसी मूसलाधार वर्षा की जिससे पाश्र्वनाथ के गले तक पानी पहुंच गया। तब पद्मावती और धरणेंद्र के आसन हिल उठे। दोनों तुरंत वहां पहुंचे। पद्मावती ने भगवान पाश्र्वनाथ को अपने सिर पर उठा लिया और धरणेंद्र ने सर्प का रूप धारण कर अपने फण के छत्र से प्रभु के सिर को ढक लिया।
इस पर मेघमाली देव ने लज्जित होकर अपने अपराध की क्षमा मांगी और चला गया। तब से धरणेंद्र और पद्मावती प्रभु की सेवा में तत्पर रहने लगे और प्रभु के यक्ष-यक्षिण् ाी के रूप में प्रसिद्ध हुए। इस रूप में वे भगवान पाश्र्वनाथ के उपासकों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं और उनके दुखों, कष्टों व उपसर्गों का निवारण करते हैं।
आबू के दिलवाड़ा मंदिर में पद्मावती की चमत्कारी प्रतिमा है। हुम्बच तो पद्मावती देवी का एक महाचमत्कारी पीठ है। हुम्बच शिमोगा (कर्नाटक) स 57 किमी. दूर शिमोगा तीर्थाली सड़क पर स्थित है। दिल्ली के लाल किले के सामने लाल मंदिर में भी पद्मावती की प्राचीन चमत्कारिक प्रतिमा है। भगवती पद्मावती महालक्ष्मी का दिव्यतम स्वरूप हैं जिनकी आराधना से निश्चित रूप से अटूट संपदा प्राप्त होती है।
भगवती पद्मावती अपने आराधकों को ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। उनकी उपासना से व्यापार में वृद्धि होती है और घर में सुख-शांति तथा सभी प्रकार से लाभ की स्थिति बनती है।
भगवती पद्मावती के सिद्ध मंत्र:
ॐ नमो भगवती पद्मावती सर्वजन मोहिनी
सर्वकार्यकरिणी मम विकट संकट संहारिणी
मम महा मनोरथ पूरण् ाी मम सर्व चिन्ता चूरणी
ॐ पद्मावती नमः स्वाहा।
ॐ पद्मावती पद्मनेत्रे पद्मासने लक्ष्मीदायिनी
वांछा भूत-प्रेत निग्रहण् ाी सर्व शत्रु संहारिणी
दुर्जन मोहिनी ऋद्धि वृद्धि कुरु कुरु स्वाहा,
ॐ ह्रीं श्रीं पद्मावत्यै नमः।
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