व्यावसायिक एवं गृह वास्तु
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व्यावसायिक एवं गृह वास्तु  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 6145 | सितम्बर 2009

प्रश्नः व्यावसायिक एवं गृह वास्तु में विशेष रूप से क्या अंतर होता है। इनके वास्तु दोषों का सुधार किस प्रकार संभव है?

भारतीय ज्योतिष विज्ञान बहुत समृद्ध एवं विशाल है, वास्तुशास्त्र उसकी एक शाखा है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र व्यक्ति के हर कार्य व व्यापार पर ग्रहों का प्रभाव देखता है। उसका शरीर, रंग, रूचि, स्वभाव आदि सभी कुछ ग्रहों से प्रभावित होता है। जीवन-यापन के लिए या जीविकोपार्जन के लिए व्यापार, व्यवसाय एवं विद्या का चुनाव भी ग्रहों के अनुकूल होना चाहिए।

इसके अतिरिक्त जब वह अपने व्यापार स्थल या कार्यस्थल से घर पहुंचे तब भी सुख, शांति, समृद्धि तथा भाग्य, उसके साथ हमेशा बना रहे, इसी तथ्य को ध्यान में रखकर वास्तुशास्त्र का निर्माण किया गया है, जिससे व्यक्ति इस शास्त्रानुसार अपने कार्यस्थल, फैक्ट्री तथा निवास स्थान का चयन एवं निर्माण कराए।

भूमंडल में दिशाओं का महत्व: गृह वास्तु अथवा व्यावसायिक वास्तु दोनों मे सर्वप्रमुख बात भूखंड चयन और दिशाओं के चयन की है या यों भी कह सकते हैं कि दिशाओं के अनुसार ही भू-खंड चयन किया जाना चाहिए। पूर्व एवं उत्तरमुखी भूखंडों को सर्वाधिक शुभ इसलिए माना गया है कि चाहे वह रहने का घर हो या व्यावसायिक स्थल, भरपूर प्र्रकाश ऊर्जा रहने से उसमें रहने या कार्य करने वाले नैसर्गिक रूप से स्वस्थ रहेंगे।

इसी प्रकार प्राकृतिक वायु प्रवाह सर्वाधिक उत्तर से दक्षिण हुआ करता है। अगर व्यावसायिक परिसर या घर में उत्तर दिशा से वायु प्रवेश का अच्छा अवसर है तो वह घर हमेशा सकारात्मक प्राण वायु से भरा हुआ रहेगा तथा उसमें रहने या कार्य करने वाले व्यक्ति हमेशा सकारात्मक उर्जा से भरपूर रहेंगे।

वास्तु शास्त्र भारत की ऐसी गूढ़ विद्या है जिसके नियमों का पालन करके हम प्रकृति को संतुलन में रखते हुऐ अपने सामान्य जीवन में प्राकृतिक स्रोतों से लाभ उठाकर अधिक सुखमय हो सकते हैं तथा समस्याओं का निवारण कर सकते हैं। दिशाओं के तत्वों का ज्ञान भी वास्तुशास्त्र की अद्भुत खोज है। परमात्मा ने प्रकृति में जिस दिशा का जो तत्व बनाया है यदि उस दिशा में उसी तत्व से संबंधित कार्य किया जाये तो प्रकृति हमारे लिये जीवन यापन में सहायक होती है।

वास्तु के अनुसार दिशाएं दिशा तत्व स्वामीग्रह पूर्व अग्नि सूर्य पश्चिम वायु शनि उत्तर जल बुध दक्षिण भूमि मंगल ईशान जल बृहस्पति आग्नेय अग्नि शुक्र वायव्य वायु चंद्रमा नैर्ऋत्य भूमि राहु भूखंड चाहे गृह निर्माण के लिये हो या व्यावसायिक, सही दिशा व तत्वों के अनुरूप तथा वास्तु के नियमों का पालन करते हुये यदि निर्माण करें तो सदैव समृद्धि कारक होता है।

वास्तु के मुख्य नियम: प्रत्येक भूखंड पर वास्तु पुरूष नीचे की ओर मुख करके विशेष आकृति में निवास करता है जिसका सिर ईशान में, दोनों भुजाएं वायव्य व अग्निकोण में तथा पंजे नैर्ऋत्य कोण की ओर होते हैं, जिससे वर्गाकार आकृति बनती है। अतः वर्गाकार भूखंड श्रेष्ठ होता है। आयताकार भूखंड भी शुभ माना जाता है।

गौमुखी गृहनिर्माण में तथा सिंहमुखी व्यावसायिक निर्माण में शुभ होता है। अन्य आकृति के या किसी कोण के घटे व ईशान के अतिरिक्त किसी कोण के बढ़े भूखंड पर निर्माण हानिकारक हो सकता है।

1. भूखंड में ईशान, पूर्व व उत्तर सदैव नीचे, हल्के व खाली होने चाहियें। ईशान कोण सदैव स्वच्छ रहना चाहिये।

2. भूखंड में नैर्ऋत्य, दक्षिण व पश्चिम सदैव ऊंचे, भारी व भरे हुए होने चाहिए। नैर्ऋत्य कोण सदैव भरा हुआ होना चाहिये।

3. भूखंड में पानी का बहाव सदैव नैर्ऋत्य से ईशान कोण की ओर हो ईशान, पूर्व, उत्तर या वायव्य कोण से घर का जल बाहर निकलना चाहिये। ईशान से दूषित जल नहीं निकलना चाहिये।

4. भूखंड पर निर्माण आरंभ ईशान कोण से करना चाहिये।

प्रारंभ में ही ईशान नीचा हो जायेगा तो सभी कार्य शुभता से संपन्न होंगे अतः नीवपूजन ईशान में ही करें। गृह एवं व्यावसायिक वास्तु में अंतर उपरोक्त नियमों के अनुसार ही गृह या व्यावसायिक भूखंड का निर्माण किया जाता है। वर्तमान में निवास स्थान या व्यावसायिक स्थान पर जिस-जिस चीज या कक्ष की आवश्यकता होती है, सभी के लिये अलग-अलग दिशा व तत्व निश्चित हैं।

गृह वास्तु में जहां शयन कक्ष, स्वागत कक्ष, रसोई, मंदिर, जीना, स्वाध्याय कक्ष आदि पर अधिक ध्यान देना होता है। वहीं व्यावसायिक स्थल पर मुख्य कार्यालय, मशीनों की जगह, बिक्री हेतु वस्तुओं का स्थान, प्रशासनिक कार्य आदि पर अधिक ध्यान देना होता है।

गृह निर्माण में वास्तु प्रयोग:

1. गृह निर्माण में सर्वप्रथम ईशान कोण में नींव पूजन अवश्य कराना चाहिए।

2. बोरिंग: बोरिंग कराने, नलकूप आदि के लिये ईशान कोण या उत्तरी ईशान या उत्तर दिशा श्रेष्ठ है।

3. शयन कक्ष: शयन कक्ष या बैडरूम नैर्ऋत्य कोण, दक्षिण या पश्चिम दिशा में बनाएं। गृह स्वामी को नैर्ऋत्य कोण वाले कक्ष में ही रहना चाहिए।

4. स्वागत कक्ष: स्वागत कक्ष या ड्राइंग रूम वायव्य कोण में बनाएं। इसके अतिरिक्त पूर्व व ईशान के मध्य बना सकते हैं। वायव्य कोण (मूवमेंट) की दिशा होने से अधिक उत्तम है।

5. अध्ययन कक्ष: पढ़ने के लिये ईशान कोण व पूर्व के मध्य या ईशान व उत्तर के मध्य उत्तम स्थान होता है।

6. पूजा स्थल: पूजा स्थल के लिये ईशान, ईशान व पूर्व के मध्य, ईशान व उत्तर के मध्य शुभ स्थान होता है।

7. रसोई: रसोई या भोजनालय अग्नि व ऊर्जा संबंधी हैं। अतः यह आग्नेय कोण में श्रेष्ठ हैं। इसके अतिरिक्त वायव्य कोण में भी बना सकते हैं।

8. शौचालय व स्नानगृह: शौचालय व स्नानगृह दक्षिण व नैर्ऋत्य के मध्य या नैर्ऋत्य व पश्चिम के मध्य बनाना चाहिये तथा वायव्य कोण भी दोनों के लिये उत्तम है। सैप्टिक टैंक वायव्य कोण के अतिरिक्त आग्नेय कोण में भी बना सकते हैं।

9. जीना, लिफ्ट: जीना या लिफ्ट नैर्ऋत्य कोण या दक्षिण में उत्तम होते हैं तथा वायव्य में भी बना सकते हैं। क्योंकि यह (मूवमेंट) गति की दिशा है।

व्यावसायिक भूखंड में वास्तु प्रयोग :

1. पूर्व व उत्तर मुखी भूखंड श्रेष्ठ होता है।

2. मुख्य कार्यालय: व्यवसाय का मालिक या सरकारी संस्थान में उच्च पदाधिकारी का कार्यालय सदैव नैर्ऋत्य कोण में या दक्षिण में होना चाहिये।

3. बैठने की स्थिति: प्रयास यही करें की बैठते समय मुख पूर्व या उत्तर में हो परंतु आॅफिस के गेट की ओर पीठ करके कभी नहीं बैठना चाहिये।

4. मशीनों की स्थिति: व्यावसायिक भूखंड पर भारी मशीनंे दक्षिण या नैर्ऋत्य कोण में ही लगायें, सहायक मशीनंे पश्चिम में लगा सकते हैं। कच्चा माल भी इसी दिशा में रखें।

5. बिक्री हेतु तैयार सामग्री: बिक्री के लिये तैयार सामग्री या बेचने हेतु कोई वस्तु सदैव वायव्य कोण में रखें।

6. नौकरों या कारीगरों का कक्ष: नौकर, कारीगर, मजदूर आदि के लिये कक्ष भी वायव्य कोण में ही बनायें।

7. धन या बहीखाता आदि: व्यवसायिक स्थान पर धन रखने या बैंक आदि में भी धन या बहीखाता आदि रखने के लिये कक्ष उत्तर दिशा में ही बनाना चाहिये।

8. मंदिर आदि पूजास्थल: व्यावसायिक स्थल पर ईशान कोण व पूर्व दिशा के मध्य मंदिर बनाना श्रेष्ठ है तथा ईशान कोण को खाली रखना चाहिये। वहां छोटे-छोटे पौधे रख सकते हैं तथा ऊंचे व घने पौधे दक्षिण में लगा सकते हैं।

9. पानी की टंकी: बोरिंग ईशान कोण में कराकर पानी की टंकी सदैव छत पर नैर्ऋत्य कोण में ही रखनी चाहिए।

10. जनरेटर : जनरेटर, विद्युत कक्ष, भट्टी, कैंटीन आदि आग्नेय कोण में ही रखें।

किसी भी गृह या व्यावसायिक स्थल पर उत्पन्न वास्तु दोष व उनके निवारण 

1. ईशान व पूर्व दिशा ऊंची व नैर्ऋत्य, दक्षिण नीचे हों: ऐसी स्थिति में संभव हो तो नैर्ऋत्य कोण में एक कमरा बनवाकर भारी सामान उस कमरे में भर दें। इसके अलावा छत पर नैर्ऋत्य कोण में एक ऊंची लोहे की पाइप खड़ी कर दें। नीचे दक्षिण व नैर्ऋत्य में भारी समान रखें व दक्षिण की दीवार पर ऊंचे स्थल पहाड़ आदि के चित्र लगायें।

2. मुख्य द्वार के सामने अस्पताल, कब्रिस्तान, फैक्ट्री, कीचड़ आदि हो तो: ऐसी स्थिति में मुख्य द्वार पर अष्टकोणीय उत्तल दर्पण लगायें, स्वास्तिक लगाना भी शुभ है।

3. भूखंड पर यदि शौचालय पूर्व, उत्तर, नैर्ऋत्य आदि में गलत स्थिति में हो तो: यदि शौचालय गलत दिशा में हो तो उसके अंदर चारो दिवारों को स्पर्श करता हुआ मोटा तांबे का तार बांधे, कांच की कटोरी में डली वाला नमक पानी में भिगोकर रखें प्रति सप्ताह उसे बदलें तथा शौचालय में दिशा के रंग का बल्ब लगायें। यदि ईशान कोण में शौचालय हो तो उपाय करने पर भी लाभ नहीं होता अतः ईशान में बने शौचालय को तो परिवर्तित ही कर देना चाहिये।

4. यदि भूखंड में बने कक्षों का द्वार आग्नेय, वायव्य या नैर्ऋत्य में हो तो आग्नेय, वायव्य या नैर्ऋत्य कोण में गेट शुभ नहीं है। ऐसी स्थिति में उस गेट के पीछे दिशा के रंग का बल्ब अथवा फूल अवश्य लगायें।

5. भूखंड पर जीना यदि ईशान या पूर्व में बना हो तो ऐसी स्थिति में अपने नैर्ऋत्य कोण को भारी करना चाहिये तथा जीने की पैडियों पर छोटे-छोटे हरे पौधे रखें, साइड वाली दीवार पर एक गोलाकृति का शीशा (दर्पण) लगायें तथा दिशा के रंग का बल्ब लगायें तो लाभ होगा।

6. घर में या व्यावसायिक स्थल पर बीम हो तो बीम होने से दोष हो तो बीम के मध्यभाग (सैंटर) में एक क्रिस्टल बाॅल लगायें।

7. रसोई सही दिशा में न हो तो रसोई यदि उचित स्थान पर न बनी हो तो रसोई के अंदर गैस का चूल्हा रसोई के आग्नेय कोण में रखें। पीने का पानी ईशान कोण में रखें।

8. ईशान कोण में यदि कमरा बना हुआ हो ऐसी स्थिति में उस कमरे को खाली ही रखना चाहिये वहां कोई भारी या अस्वच्छता वाली वस्तु न रखें कमरे का उपयोग केवल पूजा, ध्यान, पढ़ाई आदि के लिये करें व घर के नैर्ऋत्य कोण को भारी करें।

9. भूखंड का नैर्ऋत्य कोण बढ़ा हुआ हो तो ऐसी स्थिति में बढ़े हुऐ हिस्से को काटकर भूखंड को सही आकृति में लायें व बढ़े हुए हिस्से का उपयोग न करें वहां ऊंचे पेड़ या भारी सामान रख सकते हैं।

10. नैर्ऋत्य या दक्षिण में बोरिंग हो तो ऐसी स्थिति में नल आदि को वहां से हटा ही देना चाहिये। इस स्थिति में उपाय अधिक कारगर नहीं होते। तुरंत न हटा सके तो उसका उपयोग बंद करके ईशान कोण में एक बोरिंग अवश्य करा लें।

चित्रों द्वारा वास्तु दोषों का सुधारः चित्रों का इतिहास अति प्राचीन है। पुराणों में वास्तु दोषों को दूर करने के लिए चित्र, नक्काशी, बेल, बूटे, मनोहारी आकृतियां आदि के उपयोग का वर्णन है। चित्रों के लिए गाय के गोबर का उपयोग किया जाता था। प्राचीन वास्तु शास्त्र के ग्रंथों में चित्रों का उपयोग वास्तु दोषों को दूर करने के लिए वर्णन किया गया है। कुछ दोषों की मुक्ति के उपाय निम्नलिखित हैं।

1. यदि ईशान कोण में शौचालय हो तो उसके बाहर शिकार करते हुए शेर का चित्र लगाएं।

2. आग्नेय कोण में रसोई घर न हो, तो उस कोण में यज्ञ करते हुए ऋषि प्रिय जन की चित्राकृति लगवानी चाहिये।

3. यदि रसोई में केवल शाकाहारी भोजन ही पकता हो तो उसमें अन्नपूर्णा का चित्र शुभ होता है।

4. यदि रसोई में मत्स्य या मांसादि भी पकता हो तो महाविद्या छिन्नमस्ता का चित्र लगवाना चाहिए।

5. यदि मुख्य द्वार वास्तु सिद्धांत के प्रतिकूल तथा छोटा हो उसके इर्द-गिर्द बेल-बूटे लगाने चाहिये।

6. यदि शयन कक्ष आग्नेय कोण में हो तो पूर्व मध्य दीवार पर शांत समुद्र का चित्र लगवाना चाहियें।

7. दक्षिण मुखी मकान में स्वर्ण पालिश युक्त नवग्रह यंत्र मुख्य द्वार के पास लगाना चाहिये। द्वार पर हल्दी का स्वास्तिक चिन्ह भी लाभदायक सिद्ध होता है।

8. सफेद आकड़े की जड़ की गणेश जी की आकृति बना कर उसकी नियमित रूप से विधिवत पूजा करते रहें, घर वास्तु दोषों से सुरक्षित रहेगा।

यंत्रों द्वारा दोष निवारण:

1. सिद्ध बीसा यंत्र: यह एक शक्तिशाली यंत्र है। इसमें माता जगदंबा के निवार्ण मंत्र की शक्ति समाविष्ट है। इसे दुकान की चैखट या दहलीज के उपर लगाने से नजर नहीं लगती। यह दुकान या व्यवसाय स्थान के रक्षा कवच का कार्य करता है।

2. इंद्राणी यंत्र: वास्तु के व्यावसायिक दृष्टिकोण के अनुकूल होने तथा नानाविध यत्न के बावजूद भी यदि हानि हो रही हो तो इंद्राणी यंत्र की स्थापना करनी चाहिए।

3. मंगल यंत्र: यदि दुकान व कार्यालय में चोरी हो तो इस यंत्र को पूर्वोत्तर कोण अथवा पूर्व दिशा में फर्श के नीचे दो फुट गड्ढ़ा खोदकर स्थापित करना चाहिये। यह यंत्र अग्नि से भी रक्षा करता है।

4. सर्वविघ्न निवारण सूर्य यंत्र: यदि सरकारी तंत्र द्वारा बार-बार परेशान किया जा रहा हो अथवा किसी अन्य प्रकार से बाधा पहुंचाई जा रही हो, तो सर्व विघ्न निवारण सूर्य यंत्र की स्थापना करनी चाहिये। इससे व्यवसाय में विघ्न कम हो जाएंगे तथा उत्तरोत्तर लाभ की स्थिति सुदृढ़ होगी।

5. मारूति यंत्र: यदि इच्छा के अनुरूप कोई जमीन बिक नहीं रही हो या उस पर कोई विवाद हो तो मंगलवार की दोपहर बारह बजे इस यंत्र को उस जमीन में सवा हाथ गड्ढा खोदकर पूर्वाभिमुखी होकर गाड़ दें। फिर इस पर दूध और गंगाजल चढ़ाएं। यह क्रिया गृहस्वामी को स्वयं करनी चाहिये। तो जमीन शीघ्र बिक जाएगी या विवाद मुक्त हो जाएगी।

6. काली यंत्र: यह यंत्र फैक्ट्री, उद्योग की भट्ठी, बाॅयलर, ट्रांसफाॅर्मर या जेनरेटर पर स्थापित किया जाता है ताकि उद्योग में अग्नि का संचार संतुलित रहे।

7. वरुण यंत्र: यह यंत्र जल संबंधी समस्त दोषों को दूर करता है। यदि जल स्थान, नलकूप या पानी की टंकी आग्नेय या गलत दिशा में हो तो वरूण यंत्र को उस स्थान पर स्थापित करना चाहिये। इससे सभी प्रकार के जल संबंधी दोष दूर हो जाएंगे।

विभिन्न दिशाओं से जुड़े दोष व निवारण:

ईशान कोण: यदि ईशान कोण कटा हुआ हो तो इस कटे हुए भाग में एक बड़ा शीशा लगाएं, इससे ईशान कोण प्रतीकात्मक रूप से बढ़ जाता है। किसी साधु पुरुष अथवा अपने गुरु की या ब्रह्मा जी का चित्र लगाएं। अथवा गुरु की सेवा करने से कटे ईशान कोण के दुष्प्रभाव कम हो जाएंगे।

पूर्व दिशा: यदि पूर्व दिशा कटी हुई हो तो इस दिशा में एक शीशा लगाएं, इससे पूर्व दिशा प्रतीकात्मक रूप में बढ़ जाती है। यदि पूर्व दिशा कटी हो तो सूर्य देवता की तस्वीर या मूर्ति जो सात घोड़ों के रथ पर सवार हों लगाने से दोष के दुष्प्रभाव में कमी आ जाती है।

आग्नेय दिशा: 

1. यदि आग्नेय दिशा में बढ़ी या कटी हुई हो तो इसे काट कर वर्गाकार या आयताकार बनाएं।

2. यदि इस दिशा में कोई दोष हो तो लाल रंग का एक दीपक अथवा बल्ब कम से कम 1 प्रहर (तीन घंटे) तक जलाए रखें।

3. आग्नेय कोण के दोष दूर करने के लिए आग्नेय कोण में शुक्र यंत्र की स्थापना विधिवत करें।

4. दक्षिण दिशा: यदि दक्षिण दिशा कटी हो या बढ़ी हो तो उस क्षेत्र को काट कर वर्गाकार या आयताकार बनाएं।

5. दक्षिण दिशा के दोष दूर करने के लिए दक्षिण दिशा में हनुमान जी का लाल रंग का चित्र लगाएं।

6. दक्षिण दिशा में विधिपूर्वक मंगल यंत्र की स्थापना करें।

नैर्ऋत्य दिशा:

1. यदि यह दिशा कटी हो या बढ़ी हो तो उस क्षेत्र को काट कर वर्गाकार या आयताकार बनाएं।

2. राहु के मंत्रों का जप करें।

3. तांबे, चांदी, सोने या स्टील से निर्मित सिक्के या नाग-नागिन के जोड़े की प्रार्थना कर नैर्ऋत्य दिशा में दबा दें।

4. नैर्ऋत्य दिशा के दोषों के शमन हेतु इस दिशा में राहु यंत्र की विधिपूर्वक स्थापना करें।

पश्चिम दिशा:

1. यदि पश्चिम दिशा बढ़ी हुई हो तो उसे काट कर वर्गाकार या आयताकार बनाएं।

2. पश्चिम दिशा के दोषों को दूर करने के लिए इस दिशा में शनि यंत्र की स्थापना करें।

3. शनि का जप करें अन्यथा पश्चिम दिशा के अधिपति वरूण की प्रार्थना करें। 

4. सूर्यास्त के पश्चात कोई शुभ कार्य न करें।

वायव्य दिशा:

1. यदि वायव्य दिशा बढ़ी हो तो इसे काटकर वर्गाकार या आयताकार बनाएं।

2. वायव्य दिशा के दोषों की मुक्ति के लिए गंगाजल में कच्चा दूध मिलाकर शिवलिंग पर चढ़ाएं और शिव चालीसा का पाठ करें।

3. वायव्य दिशा के दोषों को कम करने के लिए इस दिशा में मारुति यंत्र एवं चंद्र यंत्र की स्थापना करें। उत्तर दिशा: यदि उत्तर दिशा का भाग कटा हो तो इस दिशा में उत्तरी दीवार पर एक बड़ा शीशा लगाएं।

4. यदि उत्तरी दिशा कटी हो तो इस दिशा में लक्ष्मी देवी का चित्र व मूर्ति स्थापित करें।

5. इस दिशा में हल्के हरे रंग का पेंट करवाएं।

6. उत्तर दिशा के दोषों से मुक्ति पाने के लिए बुध यंत्र, कुबेर यंत्र अथवा लक्ष्मी यंत्र की विधि पूर्वक स्थापना करें।

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