श्री गणेश जी का वाहन चूहा क्यों? भगवान गणेश की शारीरिक बनावट के मुकाबले उनका वाहन छोटा सा चूहा है। गणेश जी ने आखिर निकृष्ट माने जाने वाले इस जीव को ही अपना वाहन क्यों चुना? उनकी ध्वजा पर भी मूषक विराजमान है। चूहे का काम किसी भी चीज को कुतर डालना है, जो भी वस्तु चूहे को नजर आती है वह उसकी चीरफाड़ कर उसके अंग प्रत्यंग का विश्लेषण सा कर देता है। गणेश जी बुद्धि और विद्या के अधिष्ठाता देवता हैं। तर्क-वितर्क में उनका कोई सानी नहीं है। एक-एक बात या समस्या की तह में जाना, उसकी मीमांसा करना और उसके निष्कर्ष तक पहुंचना उनका शौक है। मूषक भी तर्क-वितर्क में पीछे नहीं है। हर वस्तु को काट-छांट कर रख देता है और उतना ही फुर्तीला भी है जो जागरूक रहने का संदेश देता है। गणेश जी ने कदाचित चूहे के इन्हीं गुणों को देखते हुए उसे अपना वाहन चुना होगा। मूषक की तुलना परब्रह्म से भी की गई है। जिस प्रकार मूषक बिल के भीतर रहता है और किसी को दिखाई नहीं देता उसी प्रकार ब्रह्म भी सबके भीतर रहता है और किसी को नजर नहीं आता। मूषक बहुत उत्पात भी मचाता है, वह अन्न को कम खाता है लेकिन कुतर-कुतर कर बिखेर अधिक देता है। इस तरह मूषक खेती का शत्रु बन जाता है। ऐसे कृषि विनाशक शत्रुओं पर विजय पाना भी आवश्यक है। लोककल्याण की भावना से प्रेरित होकर भी गणेश जी ने मूषक को अपने वाहन के रूप में चुना होगा। उनके वाहन को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं।
कहा जाता है एक बार गजमुखासुर दैत्य से गणेश जी का भयंकर युद्ध हो गया। इस युद्ध में गणेश जी का एक दांत दूट गया। उन्होंने उस टूटे दांत से गजमुखासुर पर ऐसा प्रहार किया कि वह घबराकर चूहा बन कर भागने लगा, परंतु गणेश जी ने उसे पकड़ लिया और वह दैत्य डरकर उनका वाहन बन गया। इसी प्रकार एक अन्य कथा के अनुसार एक महा बलवान मूषक ने पराशर ऋषि के आश्रम में भयंकर उत्पात मचा दिया, आश्रम के सारे मिट्टी के पात्र तोड़कर सारा अन्न समाप्त कर दिया, आश्रम की वाटिका उजाड़ डाली, ऋषियों के समस्त वल्कल वस्त्र और गं्रथ कुतर दिए। आश्रम की सभी उपयोगी वस्तुएं नष्ट हो जाने के कारण पराशर ऋषि बहुत दुखी हुए और अपने पूर्व जन्म के कर्मों को कोसने लगे कि किस अपकर्म के फलस्वरूप मेरे आश्रम की शांति भंग हो गई है। अब इस चूहे के आतंक से कैसे निजात मिले? तब गणेश जी ने पराशर जी को कहा कि मैं अभी इस मूषक को अपना वाहन बना लेता हूं। गणेश जी ने अपना तेजस्वी पाश फेंका, पाश उस मूषक का पीछा करता पाताल तक गया और उसका कंठ बांध लिया और उसे घसीट कर बाहर निकाल गजानन के सम्मुख उपस्थित कर दिया। पाश की पकड़ से मूषक मूच्र्छित हो गया।
मूच्र्छा खुलते ही मूषक ने गणेश जी की आराधना शुरू कर दी और अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। गणेश जी मूषक की स्तुति से प्रसन्न तो हुए लेकिन उससे कहा कि तूने ब्राह्मणों को बहुत कष्ट दिया है। मैंने दुष्टों के नाश एवं साधु पुरुषों के कल्याण के लिए ही अवतार लिया है, लेकिन शरणागत की रक्षा भी मेरा परम धर्म है, इसलिए जो वरदान चाहो मांग लो। ऐसा सुनकर उस उत्पाती मूषक का अहंकार जाग उठा, बोला, ‘मुझे आपसे कुछ नहीं मांगना है, आप चाहें तो मुझसे वर की याचना कर सकते हैं।’ मूषक की गर्व भरी वाणी सुनकर गणेश जी मन ही मन मुस्कराए और कहा, ‘यदि तेरा वचन सत्य है तो तू मेरा वाहन बन जा। मूषक के तथास्तु कहते ही गणेश जी तुरंत उस पर आरूढ़ हो गए। अब भारी भरकम गजानन के भार से दबकर मूषक को प्राणों का संकट बन आया। तब उसने गजानन से प्रार्थना की कि वे अपना भार उसके वहन करने योग्य बना लें। इस तरह मूषक का गर्व चूर कर गणेश जी ने उसे अपना वाहन बना लिया। इस प्रकार गणेश जी का यह वाहन भौतिक जीवन की व्याख्या से लेकर आध्यात्मिक जीवन की ओर भी संकेत देता है। गणेश जी की सूंड़ गणेश जी की सूंड़ हमेशा हिलती-डुलती रहती है और एक प्रकार से उनके हमेशा सचेत होने का संकेत देती है।
सूंड़ के संचालन से दुख दारिद्र्य विनष्ट हो जाते हैं, दुष्ट शक्तियां डरकर मार्ग से अलग हो जाती हैं। यह सूंड़ एक ओर बड़े-बड़े दिक्पालों के मन में भारी भय पैदा कर देती है, तो दूसरी ओर ब्रह्मा जी और अन्य देवताओं का मनोविनोद भी करती है। इससे गणेश जी ब्रह्मा जी पर कभी जल फेंकते हैं तो कभी फूल बरसाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समन्वित रूप अ, उ, म् अर्थात ¬ बना-बनाकर अपने माता-पिता का मनोरंजन करते हैं और अपने भक्तों द्वारा चढ़ाए प्रसाद का भोग ग्रहण कर आशीर्वाद भी इसी सूंड़ से देते हैं। गणेश जी की सूंड़ के दायीं ओर या बायीं ओर होने का भी अपना महत्व है। ऐसी मान्यता है कि सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए उनकी दायीं ओर मुड़ी सूंड़ की पूजा करनी चाहिए और यदि किसी शत्रु पर विजय प्राप्त करने जाना हो तो बायीं ओर मुड़ी सूंड़ की पूजा करनी चाहिए। गणेश जी के बड़े उदर का राज गणेश जी का पेट बहुत बड़ा है, इसकी वजह उन्हें मिष्टान्न पसंद होना मानी जाती है, लेकिन ब्रह्म पुराण में वर्णन मिलता है कि गणेश जी माता पार्वती का दूध दिन भर पीते रहते थे। उन्हें डर था कि कहीं भैया कार्तिकेय आकर दूध न पी लें। उनकी इस प्रवृŸिा को देखकर पिता शंकर ने एक दिन विनोद में कह दिया कि तुम दूध बहुत पीते हो इसलिए लंबोदर हो जाओ।
बस इसी दिन से गणेश जी का नाम लंबोदर पड़ गया। उनके लंबोदर होने के पीछे एक कारण यह भी माना जाता है कि वे हर अच्छी-बुरी बात को पचा जाते हैं और किसी भी बात का निर्णय बड़ी ही सूझबूझ से लेते हैं। गणेश जी संपूर्ण वेदों के ज्ञाता हैं, संगीत, नृत्य आदि विविध कलाओं के ज्ञाता हैं। इसलिए ऐसा भी माना जाता है कि उनका पेट विभिन्न विद्याओं का कोष है। लंबे कान श्री गणेश लंबे कानों वाले हैं। उनका एक नाम ‘गजकर्ण’ भी है। लंबे कान वालों को भाग्यशाली भी कहा जाता है। श्री गणेश तो भाग्य विधाता और शुभ फल दाता हैं। गणेश जी के कानों से यह संदेश मिलता है कि मनुष्य को सुननी सबकी चाहिए, लेकिन अपने बुद्धि विवेक और अनुभवी लोगों से विचार करने के बाद ही किसी कार्य का क्रियान्वयन करना चाहिए। गणेश जी के लंबे कानों का एक रहस्य यह भी है कि क्षुद्र कानों वाला व्यक्ति सदैव व्यर्थ की बातों को सुनकर अपना ही अहित करने लगता है। इसलिए व्यक्ति को अपने कान इतने बड़े कर लेने चाहिए कि हजारों निन्दकों की भली-बुरी बातें उनमें इस तरह समा जाएं कि वे बातें कभी मंुह से बाहर न निकल सकें। पुराणों में श्री गणेश के गजकर्णत्व अथवा शूपकर्णत्व का उल्लेख इस प्रकार मिलता है।
श्री गणेश अपने योगीन्द्र मुख से उच्चारण योग्य विषय तथा श्रेष्ठ जिज्ञासुओं से श्रवण योग्य विषय हृदयंगम कर अपने सूप जैसे कानों से उसके निकृष्ट पक्ष रूपी धूल को फटक कर उसी प्रकार संपादित कर देते हैं जिस प्रकार अनाज से भूसी को दूर किया जाता है। इनके बड़े-बड़े कान हमेशा चैकन्ना रहने का भी संकेत देते हैं। गणेशजी को मोदक क्यों पसंद हैं? गणेश जी को मोदक बहुत प्रिय हैं। दिखने में गोल-गोल और खाने में मीठे। अनेकानेक पकवानों को छोड़कर उन्हें केवल लड्डुओं का भोग लगता है। कहीं ऐसा उनका पेट बड़ा होने के कारण तो नहीं है। लड्डुओं को देखते ही प्रायः हर किसी के मंुह में पानी आने लगता है और बड़े पेट वालों को तो वैसे ही मिष्टान्न पसंद होते हैं। फिर उनका एक ही दांत होने के कारण वे चबाने वाली चीजें नहीं खा पाते होंगे और लड्डू खाने में आसानी रहती होगी। गणेश जी विघ्नहर्ता हैं। गुड़, तिल, बेसन, आटा, मोतीचूर, मूंग, नारियल, शकरकंद चाहे किसी के भी लड्डुओं का भोग लगा दें, गणेश जी शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। हर सामान्य व्यक्ति गणेश जी को मोदक चढ़ा कर प्रसन्न कर सकता है। किसी भी शुभ अवसर पर मुंह मीठा कराने के लिए लड्डुओं की मांग भी सभी की ओर से होती है क्योंकि लड्डू तो अमीर-गरीब सभी की पहंुच के भीतर हैं, सर्वसुलभ हैं।
मोदक आनंद का प्रतीक भी है। गणेश जी अपने एक हाथ में मोदक से भरा पात्र रखते हैं। कहीं-कहीं उनकी सूंड़ के अग्रभाग पर मोदक दिखाई देता है। मोदक को महाबुद्धि का प्रतीक बताया गया है। पù पुराण के सृष्टि खंड में उल्लेख मिलता है कि मोदक का निर्माण अमृत से हुआ है। देवताआंे द्वारा पुत्र जन्म के अवसर पर यह दिव्य मोदक पार्वती को प्रदान किया गया। मोदक ब्रह्मशक्ति का भी द्योतक है। मोदक बन जाने के बाद वह अंदर से दिखाई नहीं देता है कि उसमें क्या-क्या समाहित है। इसी तरह पूर्ण ब्रह्म भी माया से आच्छादित होने के कारण वह हमें दिखाई नहीं देता। इसे आस्वाद से ही जाना जा सकता है। उसी तरह ब्रह्मानंद भी अनुभवगम्य हैं। मोदक की गोल आकृति महाशून्य का प्रतीक है। यह समस्त वस्तुजगत, जो दृष्टि की सीमा में है अथवा उससे परे है, शून्य से उत्पन्न होता है और शून्य में ही लीन हो जाता है। शून्य की यह विशालता पूर्णत्व है। गणेश जी का दांत गणेश जी की कई प्रतिमाओं में एक हाथ में उनका टूटा हुआ दांत भी दिखाई देता है। कहा जाता है कि इसी टूटे दांत की लेखनी बनाकर उन्होंने महाभारत लिखा था। गणेश जी के हाथ एवं हाथों में विराजित चिह्नों का महत्व गणेश जी चतुर्भुज हैं। वे जल तत्व के अधिपति हैं।
जल के चार गुण होते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस। सृष्टि भी स्वेदज, अण्डज, उद्भिज तथा जरायुज चार प्रकार की होती है। पुरुषार्थ भी चार प्रकार के होते हैं- धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। गीता के अनुसार भगवान के भक्त चार प्रकार के होते हैं। इस प्रकार गणेश जी के चार हाथ चतुर्विध सृष्टि, चतुर्विध पुरुषार्थ, चतुर्विध भक्त तथा चतुर्विध परम उपासना का संकेत करते हैं।
पाश: गणेश जी के एक हाथ में पाश (ग्रंथि, बंधन) विद्यमान है। यह पाश राग, मोह और तमोगुण का प्रतीक माना जाता है। इसी पाश के द्वारा श्री गणेश भक्तों के पाप-समूहों और संपूर्ण प्रारब्ध का आकर्षण करके अंकुश से उनका नाश कर देते हैं।
अंकुश: गणेश जी के हाथ में न्यायशास्त्र का अंकुश है तथा यह प्रवृŸिा तथा रजोगुण का चिह्न है। यह क्रोध का भी संकेतक है। इसी के द्वारा गणपति दुष्टों को दंडित करते हैं।
परशु: गणेश जी के हाथ में परशु (फरसा) प्रमुखता से दिखाई देता है। यह तेज धार वाला है। इसे तर्कशास्त्र का प्रतीक माना जाता है।
वरमुद्रा: गणपति प्रायः वरमुद्रा में दिखाई देते हैं। वरमुद्रा सत्वगुण की प्रतीक है। इसी से वे भक्तों की मनोकामना पूरी कर, अपने अभय हस्त से संपूर्ण भयों से भक्तों की रक्षा करते हैं। इस प्रकार गणेश जी का उपासक रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण इन तीनों गुणों से ऊपर उठकर एक विशेष आनंद का अनुभव करने लगता है। इस प्रकार गणेश जी का बाह्य व्यक्तित्व जितना निराला है, आंतरिक गुण भी उतने ही अनूठे हैं। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व के बारे में कितना भी अध्ययन कर लिया जाए मगर मन में जिज्ञासा एवं रहस्य बना ही रहता है।
गणेश जी के बारह नाम
1. सुमुख - संुदर मुख वाले
2. एकदन्त - एक दांत वाले
3. कपिल - जिनके श्री विग्रह से नीले और पीले वर्ण की आभा प्रकट होती है।
4. गजकर्णक - हाथी के कान वाले।
5. लम्बोदर - लंबे उदर वाले।
6. विकट - सर्व श्रेष्ठ।
7. विघ्ननाशक - विघ्नों का नाश करने वाले।
8. विनायक - उन्नत मार्ग पर ले जाने वाले विशिष्ट नायक।
9. धूम्रकेतु - धुएं के से वर्ण वाली ध्वजा वाले।
10. गणाध्यक्ष - गणों के स्वामी।
11. भालचंद्र - मस्तक पर चंद्रमा धारण करने वाले।
12. गजानन - हाथी के मुख वाले।