जन्मकुंडली में छठे भाव से रोगांे का विचार किया जाता है। जन्मजात रोगों का विचार अष्टम भाव से किया जाता है। भविष्य में होने वाले रोगों का विचार षष्ठ भाव से किया जाता है। जन्मजात रोग दो तरह के होते हैं-शारीरिक व मानसिक। भविष्य में होने वाले रोग भी दो तरह के होते हैं- दृष्टि निमित्त और अदृष्टि निमित्त। अदृष्टि निमित्त रोग अज्ञात होते हैं। ये रोग पूर्वजन्म के दोषों या बाधक ग्रहों की वजह से होते हैं।
इसके अलावा द्रेष्काण कुंडली के आधार पर अंगों का विभाजन करके शरीर का कौन सा अंग रोग से पीड़ित है यह बतलाया जाता है। रोग विचार के लिए नक्षत्रों की गणना भी आवश्यक है। प्राचीन ऋषियों ने कुछ सूत्र लिखे जिनसे व्यक्ति आसानी से रोग की अवधि का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
गंडमूल नक्षत्र में बीमारी ज्यादा कष्टकारी होती है। इन योगों का ज्ञान करके ग्रहों की शांति करवानी चाहिए। आॅपरेशन कराते समय भी इस बात का विशेष खयाल रखें। भाव अथवा पीड़ित राशि पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो रोग अधिक कष्टकारक नहीं होता है।
भावेश या राशि स्वामी जन्मकुंडली में केंद्र या त्रिकोण में या अपनी ही राशि में हो तो पापी ग्रह अधिक कष्टदायी नहीं होते। रोग की शुरुआत जिस दिन हो उससे 14 दिन तक उसके अधिक उग्र हाने े की सभ्ं ाावना रहती है। अतः शल्य क्रिया के बाद घाव 14 दिन के अंदर भर जाना चाहिए। मंगलवार, शनिवार तथा 4, 7, 14, 15 को टालना चाहिए।
आद्र्रा, ज्येष्ठा, अश्लेषा और मूल नक्षत्र शल्य क्रिया के लिए उपयुक्त होते हैं। शल्य क्रिया हो जाने के बाद अस्पताल का त्याग और घर में प्रवेश भी विशेष नक्षत्रों मं े करना चाहिए ताकि स्वास्थ्य की प्राप्ति सुलभ हो। रोग से निवृत्ति हो जाने के उपरांत रोग मुक्त स्नान करना चाहिए।
ग्रह संबंधित पदार्थ पानी में डालें व उस पानी से स्नान करें। गर्भाधान लग्न भी रोग की सूचना देता है। विशेष रात्रि में समागम करने से श्रेष्ठ पुत्र व पुत्री की प्राप्ति होती है। रजस्वला होने के जितने दिन विलंब से गर्भ धारण होता है, बच्चा उतना ही भाग्यशाली होता है।
रजस्वला होने से 5/6 दिन बाद गर्भाधान होने पर 15 साल से, 9/10 दिन बाद होने पर 16 साल, 11/12 दिन बाद होने पर 33 साल, 13/14 दिन बाद होने पर 40 साल, 15/16 दिन बाद रात्रि में होने पर 50 साल बाद कोई बीमारी होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गर्भ पूर्ण बलवान होता है। कहा भी गया है- पहला सुख निरोगी काया।
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