वास्तु में जल तत्व
वास्तु में जल तत्व

वास्तु में जल तत्व  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 5530 | सितम्बर 2006

वास्तु शास्त्र में जिस पद पर जल के देव का या जल के सहयोगी अन्य देवों का स्थान होता है उसी स्थान पर जल का स्थान शुभ माना गया है।

जल के सहयोगी देव हैं - पर्जन्य, आपः, आपवत्स, वरुण, दिति, अ¬िदति, इंद्र, सोम, भल्लाट इत्यादि। इनके पदों पर निर्मित जलाशय शुभ फलदायक होता है। इन पदों का निर्धारण 81 या 64 पदानुसार करना चाहिए। टोडरमल ने अपने वास्तु सौख्यम नामक ग्रंथ में पूर्व में जल स्थान के निर्माण को पुत्रहानिकारक बताया है।

उनके अनुसार पूर्व में इंद्र के पद पर जल का स्थान श्रेयस्कर है। पूर्व आग्नेय के मध्य में शुभ नहीं है। अग्नि कोण में यदि जल की स्थापना की जाए तो वह अग्नि भय को देने वाला होगा। दक्षिण में यदि जलाशय हो तो शत्रु भय कारक होता है। र्नैत्य में स्त्री विवाद को उत्पन्न करता है। पश्चिम में स्त्रियों में क्रूरता बढ़ाता है। वायव्य में जलाशय गृहस्वामी को निर्धन बनाता है। उत्तर में जलाशय हो तो धन वृद्धिकारक तथा ईशान में हो तो संतानवृद्धि कारक होता है।

‘‘प्राच्यादिस्थे सलिले सुतहानिः शिरवीभयं रिपुभयं च। स्त्रीकलहः स्त्रीदैष्ट्यं नैस्वयं वित्तात्मजविवृद्धिः ।।’’ (वास्तुसौख्यम)

हमारे पूर्व मुनियों ने भी जलाशय के निर्माण के लिए पूर्व और उत्तर की दिशा को शुभ माना है। टोडरमल लिखते हैं-

‘‘गृहात्प्रवासः पयसः पूर्वोत्तर गतिः शुभः। कथितो मुनिभिः पूर्वेरशुभस्त्वन्य दिग्गतः।।‘’ -वास्तु सौख्य

राजा भोज के समरांगण सूत्रधार में जल की स्थापना का वर्णन इस प्रकार है। ‘ ‘ प र्ज न् य न ा म ा य श् च ा य ं वृष्टिमानम्बुदाधिपः’’ पर्जन्य के स्थान पर कूप का निर्माण उत्तम होता है क्योंकि पर्जन्य भी जल का ही स्वामी है। समरांगण सूत्रधार भल्लाट के पद पर भी जल का निर्माण शुभ होता है। भल्लाट से तात्पर्य यहां चंद्र से है। वेदों में चंद्र को रसाधिपति कहा गया है। रस का दूसरा नाम ही जल है। अदिति के पद पर भी स्थापना श्रेष्ठ है।

यह अदिति वस्तुतः समुद्र की कन्या एवं क्षीर सागर में शयन करने वाले विष्णु की पत्नी हंै जिन्हें लक्ष्मी कहते हैं। लक्ष्मी का वर्णन कमलासना के रूप में भी मिलता है। लक्ष्मी का संबंध पूर्णरूप से जल के साथ होने से इन्हें जलप्रिया भी कहा जाता है। दिति के स्थान पर भी कूप निर्माण स्वास्थ्य लाभदायक कहा गया है क्योंकि दिति जल स्वरूप शिव का निवास स्थान है।

यही कारण है कि शिव को जल अत्यधिक प्रिय है- ‘‘जलधारा प्रियः शिवः’’ दिति का वर्णन वास्तु शास्त्र में शिव के रूप में किया गया है। ‘‘दितिरत्रोच्यते शर्वः शूलभद्र वृषभध्वजः’’ आपः व आपवत्स के स्थान पर भी जलाशय की स्थापना शुभफलदायी है क्योंकि आपः हिमालय है और आपवत्स उसकी पुत्री उमा/पार्वती है।

इन दोनों का ही जल के साथ प्राकृतिक संबंध है। यही कारण है कि समरांगण सूत्रधार के रचनाकार इन स्थानों पर जलाशय के निर्माण का निर्देश देते हुए कहते हैं। ‘‘आपवत्स पदे हंसक्रौंच सारसनादिताः। स् य ु: फ ु ल् ल ा ब् ज व न ा: स् व च् छ सलिलासलिलाशयाः।।’’ वरुण तो स्वयं जल के अधिपति हैं एवं उनका निवास वास्तु शास्त्र में पश्चिम में माना गया है।

इसलिए इस स्थान पर भी जलाशय के निर्माण को सुखद कहा गया है। ‘‘वरुणस्य पदे कुर्याद् वापीपान गृहाणि च ।’’ -समरांगण सूत्रधार आचार्य वराहमिहिर ने अपनी वृहत्संहिता में वास्तुशास्त्र के वर्णन प्रसंग में अपने मत को रखते हुए दिशाओं के अनुसार फलों का उल्लेख किया है। अग्निकोण में जलाशय भयकारक और पुत्रनाशक होता है, र्नैत्य कोण में हो इंग रूम भवन का वह स्थान है जहां पारिवारिक, सामाजिक, व्यापारिक, आर्थिक क्षेत्र से जुड़े लोग आकर बैठते हैं, आपस में बातचीत करते हैं।

वास्तुशास्त्र में भवन का उत्तर का क्षेत्र ड्राॅइंग रूम बनाने के लिए प्रशस्त माना गया है। उत्तर दिशा का स्वामी ग्रह बुध तथा देवता कुबेर है। बुध बाणी से संबंधित ग्रह है तथा कुबेर धन का देवता है। वाणी को प्रिय को प्रिय, मधुर एवं संतुलित बनाने में बुध हमारी सहायता करता है। वाणी यदि मीठी और संतुलित हो तो वह व्यक्ति पर प्रभाव डालती है और दो व्यक्तियों में जुड़ाव पैदा करती है।

यह जुड़ाव व्यक्तियों से विचारों के आदान-प्रदान को बढ़ाता है। विचारों के आदान-प्रदान से ज्ञान का क्षेत्र बढ़ता है। ज्ञान का क्षेत्र बढ़ने से जानकारी ज्यादा होती है और कर्म क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। यदि व्यक्ति अपने कर्म क्षेत्र में सफल होता है तो उसे संतुष्टि मिलती है। वाणी का काम कम्यूनिकेशन का है।

इसी कम्यूनिकेशन से संपर्क सूत्र बनते हैं और इन संकर्प सूत्रों से व्यक्ति अपने काम आसानी से कर सकता है। अतः तो धन का नाश होता है तथा वायव्य कोण में हो तो स्त्री की हानि होती है। इन तीनों दिशाओं को छोड़कर शेष में जलाशय शुभ है।

इस प्रसंग में मुहूर्त चिंतामणिकार श्रीराम दैवज्ञ अपने ग्रंथ में नौ दिशाओं का वर्णन करते हुए लिखते हैं:

कूपे वास्तोर्मघ्ये देशे अर्थनाशः स्त्वैशान्यादौ पुष्टि रैश्वर्य वृद्धि।

सूनोर्नाशः स्त्री विनाशके मृतिश्च सम्पत्पीड़ा शत्रुतः स्याच्च सौख्यम्।। -मुहूर्त चिंतामणि

अर्थात वास्तु के बीचोबीच कूप बनाने से धन नाश, ईशान कोण में पुष्टि, पूर्व में ऐश्वर्य की वृद्धि, अग्निकोण में पुत्रनाश, दक्षिण दिशा में स्त्री का विनाश, र्नैत्य कोण में मृत्यु, पश्चिम दिशा में संपत्ति लाभ, वायव्य कोण में शत्रु से पीड़ा, और उत्तर दिशा में कूप बनाने से सौख्य होता है।

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