वराह व्रत व वराह जयंती
वराह व्रत व वराह जयंती

वराह व्रत व वराह जयंती  

व्यूस : 8778 | आगस्त 2011
वराह व्रत व वराह जयंती (31-8-2011 ) पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी जगत के कल्याण हेतु जो लीलाधारी भगवान अनेकानेक अवतार लेते हैं उन्हीं भगवान विष्णु के तृतीय अवतार वराह की पूजा भाद्र शुक्ल तृतीया के दिन की जाती है जो वराह अवतार जयंती के नाम से जानी जाती है। वराह भगवान का यह व्रत सुख-सम्पत्तिदायक एवं कल्याणकारी है। जो श्रद्धालु भक्त इस दिन वराह भगवान के नाम से व्रत रखते हैं उनके सोये हुए भाग्य को स्वयं भगवान जागृत कर देते हैं। वराह व्रत व जयंती का विधान धर्मशास्त्रों में विभिन्न मास व तिथियों में वर्णित है। निर्णयसिंधु प्रोक्त वराहपुराणानुसार - ''नभस्य शुक्ल पंचम्यां वराहस्य जयन्तिका'' यही वराह जयंती है। धर्म सिंधु और निर्णय सिंधु के अनुसार क्रमशः भाद्रपद शुक्ल तृतीया (अपराह्न) एवं श्रावण शुक्ल षष्ठी तथा चैत्र कृष्ण नवमी भी वराहजयंती के रूप में मान्य है। परंतु सभी पंचांगों के अनुसार भाद्रपद शुक्ल तृतीया ही वराह जयंती के रूप में सर्वमान्य है। तथापि भक्त जन परात्पर परब्रह्म की प्रसन्नार्थ अपनी भावनाओं के अनुसार किसी भी तिथि में या सभी तिथियों में व्रत व जयंती का पालन कर इहलौकिक व आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त कर सकते हैं। वराह अवतार कथा : सुखसागर कथा के अनुसार जब ब्रह्मा सृष्टि की रचना कर रहे थे उस समय मनु ने ब्रह्मा जी से कहा, 'मनुष्य के निवास के लिए स्थान प्रदान कीजिए।' ब्रह्मा जी के नाक से उस समय वराह रूप में भगवान विष्णु प्रकट हुए। विशालकाय और पराक्रमी वराह भगवान छलांग लगाकर अथाह समुद्र में कूद पड़े, जहां दैत्यों द्वारा पृथ्वी को छुपाकर रखा गया था। वहां से अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठाकर भगवान तीव्र गति से सागर-तल से ऊपर आ रहे थे। उसी समय हिरण्यकशिपु का भाई हिरण्याक्ष रास्ते में खड़ा हो गया और उन्हें युद्ध के लिए ललकारने लगा। उस समय हिरण्याक्ष के अपशब्द पर वराह रूपी विष्णु को क्रोध आया, परंतु क्रोध पर काबू रखते हुए भगवान वराह अत्यंत तीव्र गति से उस ओर आगे बढ़ते रहे जहां पृथ्वी को स्थित करना था। पृथ्वी को स्थापित करने के पश्चात भगवान हिरण्याक्ष से युद्ध करने लगे और देखते देखते हिरण्याक्ष के प्राण-पखेरू उड़ गये। वराह व्रत विधान : जो भक्त वराह व्रत रखते हैं उन्हें व्रत तिथि को संकल्प करके एक कलश में भगवान वराह की सोने की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। भगवान की स्थापना करने के पश्चात विधि-विधान सहित षोडशोपचार से भगवान वराह की पूजा करनी चाहिए। पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में जागरण करके भगवान विष्णु के अवतारों की कथा- कहानी सुननी चाहिए। अगले दिन कलश में स्थित वराह भगवान की पूजा करने के बाद विसर्जन करना चाहिए। विसर्जन के पश्चात उस स्वर्ण प्रतिमा को ब्राह्मण आचार्य को दान देना चाहिए। वराह व्रत का पालन करने वाले व्रती को चाहिए कि वह प्रातः कालीन सूर्योदय की बेला में जागकर स्नानादि कृत्यों को पूर्णकर संकल्प ले कि 'आज मैं वराह भगवान के व्रत का नियमानुसार पालन करूंगा' और प्रभु वराह से प्रार्थना करें कि 'भगवान, आप मुझे शक्ति, बल, तेज प्रदान करना, जिससे कि मैं आपके व्रत व पूजा विधान में समर्थ हो सकूं।' अपराह्न काल में निराहार रहकर भगवान् वराह का षोडशोपचार पूजन करें, वराह भगवान् के प्राकट्य की दिव्य लीला-चरित्र का पठन-पाठन श्रवण करें, मंत्रों का मानसिक जप करें। तत्पश्चात् ब्राह्मण व अभ्यागत अतिथियों को दान देकर भगवत् प्रसाद ग्रहण करें। रात्रिकाल में नाम संकीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करें, तो निश्चय ही वराह भगवान की कृपा से जो आनंद देवताओं व मनु व शतरूपा को हुआ था, वही आनंद व्रती को भी प्राप्त होता है। लगातार द्वादश वर्षों तक व्रत का पालन करने वाला व्रती धर्म, अर्थ काम, मोक्ष नामक चारों पुरुषार्थों का लाभ प्राप्त करता है। भक्त प्रहलाद, ध्रुव व देवर्षि नारद की भांति भगवान् की प्रियता को प्राप्त करता है। इहलौकिक व पारलौकिक सुखों को भोगता हुआ जनम-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। जिस परात्पर कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड नायक, अखिलेश्वर, पूर्णेश्वर, जगदीश्वर अजन्मा, अविनाशी परमात्मा की चरण धूलि को बड़े-बड़े ज्ञानी संत-महात्मा,महापुरुष अपने सिर पर धारण करने की इच्छा करते हैं, व्रत के प्रभाव से व्रती उस चरण धूलि को सहजता में ही सिर पर धारण करने की बात तो दूर, नित्य-निरंतर उसमें लीन रहने व स्नान करने की पात्रता को प्राप्त होता हुआ परमधाम को प्राप्त हो जाता है। यह व्रत व्रती की प्रकट व अप्रकट दोनों ही कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। विशेष मंत्र : ¬नमो नारायणाय । ¬वराहाय नमः। ¬सूकराय नमः । ¬धृतसूकररूपकेशवाय नमः। ¬पुराण पुरूषोत्तमाय नमः ।



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