षोऽश संस्कारों में विवाह सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। हिंदू शास्त्रों में इसको करने की विस्तृत पद्धति दी गई है। आज के युग में इसकी जानकारी बहुत कम रह गई है। अतः यह पद्धति विस्तृत रूप में यहां पर पेश कर रहे हैं जिससे पुत्र/पुत्री का विवाह विधिवत पूर्ण किया जा सके।
चयन: प्रथम जब वर/कन्या के चयन की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है तो कुंडली मिलान किसी योग्य पंडित/ज्योतिषाचार्य द्वारा करा लेना चाहिए। लेकिन यदि कुंडली मिलान ठीक है तो इसको प्रथम बिंदु नहीं बनाना चाहिए, अर्थात जन्मपत्री मिलान में अधिक गुण मिल रहे हैं तो उसको अधिक मान्यता दी जाए यह आवश्यक नहीं है। दोनों परिवारों मंे समभाव, वर कन्या के कद, शिक्षा, आय आदि में समभाव होना अधिक आवश्यक है। कन्या के घर से वर का घर अधिक समृद्ध होना विवाह सुख में शुभ होता है।
रोकना: जब वर/कन्या का चयन हो जाए तो कन्या के पिता को वर को रोकना चाहिए। इसके लिए वर का चांदी, स्वर्ण या द्रव्य से तिलक करें, मिष्टान्न खिलाएं व कन्या के बड़ों को यथाशक्ति द्रव्य (मिलनी) द्वारा सम्मान करें। वर के पिता को भी चाहिए कि कन्या को स्वर्णाभूषण या द्रव्य व फल, वस्त्र प्रदान कर उसको स्वीकार करें।
वाग्दान (सगाई): कोई शुभ मुहूर्त शोधकर कन्या का पिता वाग्दान (कन्या दान का वचन) करें। इसे इसके लिए प्रथम कन्या का पिता वर के पिता को आमंत्रित करें। सर्वप्रथम गणेश पूजन पश्चात षोडशोपचार सहित इन्द्राणि पूजन का महत्व है। तदुपरांत नारियल व फल मिष्टान्न सम्मुख रख तीन पीढ़ियों के नाम उच्चारण सहित वर को स्वीकार करें। ग्रहों के निमित्त दान करें। यज्ञोपवीत, फल, स्वर्ण अंगूठी, वस्त्र, द्रव्य वर के पिता को दें। वर के बुजुर्ग व बड़ों का द्रव्य (मिलनी) द्वारा मान करें। वर की ओर से सुहागिन स्त्रियां वस्त्र, स्वर्ण, अंगूठी, चूड़ी, शृंगार का सामान व खिलौने कन्या को दें और उसका शृंगार करें। ब्राह्मण को तिलक कर दक्षिणा प्रदान करें। अंत में भोज व संगीत के साथ कार्यक्रम को पूर्ण करें।
गणपति स्थापना: विवाह संस्कार विवाह के दिन से 2, 3 या 5 दिन पहले से ही विवाह संस्कार तथा विवाह के कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं। सर्वप्रथम गौरी गणेश का पूजन कर पर में उन्हें स्थापित किया जाता है और उनसे प्रार्थना की जाती है कि संस्कार में कोई विघ्न न आए। इनकी स्थापना के पश्चात वर या कन्या को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता है। गौरी गणेश को उड़द की दाल के पकौड़ांे का भोग प्रसाद चढ़ाना शुभ माना जाता है।
लग्न पत्रिका: गणपति स्थापना पश्चात कन्या के घर पर पंडित द्वारा विवाह का शुभ मुहूर्त लग्न पत्रिका में लिखा जाता है। साथ ही कन्या व वर की राश्यानुसार उनके तेलवान की संख्या का विवरण भी लिखा जाता है। लग्न पत्रिका के साथ में सुपारी, हल्दी, अक्षत, चांदी का सिक्का आदि बांधकर वर के घर पहुंचाया जाता है। इस प्रकार कन्या पक्ष द्व ारा वर पक्ष को बारात सहित आने का निमंत्रण दिया जाता है। वर के घर पंडित द्वारा निमंत्रण स्वीकार किया जाता है। रस्म हल्दी/तेलबान: लग्न पत्रिका में निर्दिष्ट तेल संख्यानुसार हल्दी, तेल, दही मिश्रित मंगल द्रव्य से वर व कन्या का अभिषेक कराया जाता है। यह क्रिया घर में उपस्थित सुहागिन स्त्रियों द्वारा संपन्न की जाती है।
मेहंदी: सभी स्त्रियां वर-वधू व कन्याएं मेहंदी लगाती हैं। माना जाता है कि वधू की मेहंदी जितनी अच्छी हो भविष्य में उतना ही अच्छा उनका वैवाहिक जीवन रहेगा।
संगीत व जगरता: वर व वधू दोनों के घरों में देर रात तक संगीत कार्यक्रम रखा जाता है।
भात/मायरा: वर व वधू के मामा के घर से लोगों को उपहार आदि भेंट दी जाती है। वर व कन्या को वस्त्र आदि भी मामा द्वारा दिए जाते हैं। सर्वप्रथम कृष्ण जी ने सुदामा की लड़की को भात दिया था। तभी से यह प्रथा प्रचलित है। तोरण पताका: घर के द्वार को तोरण द्वारा सजाया जाता है। वर इस तोरण को एक सींक/डंडी से छूकर आने वाली वधू के लिए बुरी नजरों से बचाने का टोटका करता है।
सेहराबंदी: बारात लेकर जाने से पहले लड़के को नवीन वस्त्रों से सजाकर उसकी आरती की जाती है। वर की बहन उसको सेहरा बांधती है। शुभ भाग्य के लिए वर को टीका कर द्रव्य प्रदान किया जाता है। वर की भाभी बुरी नजर से बचाव के लिए उसे सुरमा लगाती है। वर के सबसे छोटे भाई, भतीजे या भांजे को भी वर की तरह से सजाकर उसके साथ सरबला के रूप में बैठाया जाता है।
बारात प्रस्थान: वर एवं सहबाला को घर से बाहर निकाला जाता है। इस समय वर की बहनें रास्ते में नेग लेती हैं और भाई को अच्छी सी भाभी लाने की दुआएं देती हैं। घोड़ी पर बैठने के पश्चात घोड़ी को चने की दाल को खिलाया जाता है। वर पहले मंदिर में जाता है। वहां पर प्रभु के दर्शन कर निर्विघ्न यात्रा की कामना की जाती है। यहां से बारात विवाह स्थल के लिए प्रस्थान हो जाती है।
बारात स्वागत: विवाह स्थल पर बारात एकत्रित हो, वर पुनः घोड़ी पर सवार हो सभी बारातियों सहित ढोल-बाजे के साथ वधू के द्वार पहुंचते हैं। वधू की मां वर की आरती उतार कर स्वागत करती है। वधू के पिता व अन्य रिश्तेदार वर के पिता व अन्य का फूलों द्वारा स्वागत करते हैं।
ग्राम गणेश पूजन/खेत: कन्या का पिता व कुल पुरोहित वर व उसके बंधु बांधवों सहित गणेश पूजन करते हैं। वधू पक्ष वर पक्ष को मिलनी व उपहार प्रदान करते हैं।
जयमाला: वधू वर को माला पहनाकर अपनी स्वीकृति प्रदान करती है। बदले में वर भी वधू को माला पहनाकर अपनी स्वीकृति प्रदान करता है।
विवाह संस्कार: वधू का पिता विवाह संस्कार का संकल्प कर विवाह संस्कार प्रारंभ करते हैं। वर को विष्णु स्वरूप मानकर पूजन करते हैं। घी, दही, मधु को कांसे के पात्र में मिलाकर वर के सत्कार में मधुपर्क खिलाया जाता है। गणेश व नवग्रह पूजन किया जाता है। वधू का पिता वर के कुलगुरू को गोदान देता है। वधू को बुलाकर सुहागिन स्त्री द्वारा वधू का शृंगार किया जाता है, स्वर्ण आभूषण पहनाए जाते हैं।
कन्या का लक्ष्मी स्वरूप में माता-पिता पूजन करते हैं। तदुपरांत माता-पिता अपनी कन्या के हाथ पीले कर लक्ष्मी स्वरूप कन्या का हाथ विष्णु स्वरूप वर के हाथ में देकर कन्या दान का संकल्प लेते हैं और उनके शुभ वैवाहिक जीवन की कामना करते हैं। वर द्वारा अग्नि स्थापन किया जाता है। चंदन, घी, अक्षत, शक्कर व नवग्रह वनस्पतियों के साथ हवन किया जाता है।
कन्या का भाई बहन के हाथ में खील (लाजा) देता है जिसे वधू वर के हाथ में देती है और वर अग्नि में होम करता है। वर कन्या का गठबंधन कर अग्नि के चारों ओर फेरे लिए जाते हैं। पहले तीन फेरों में कन्या आगे रहती है। बाद के चार फेरों में वर आगे रहता है। यह मंगल कार्यों में पत्नी का आगे रहना दर्शाता है, तदुपरांत धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में पति का आगे रहना ही श्रेष्ठ है। फेरों के पश्चात सप्तपदी होती है अर्थात वर कन्या को सात वचन देता है एवं कन्या भी वर को सात वचन देती है।
इसके पश्चात वर कन्या को अपने वामांग लेता है और कन्या के स्वर्ण शलाका से मांग में सिंदूर भरते हैं। वर द्वारा विवाह संस्कार यज्ञ की पूर्णाहुति की जाती है। सभी बंधु बांधव वर व कन्या पर पुष्पांजलि द्वारा शुभ वैवाहिक जीवन की कामना करते हैं।
कंगना: वर-वधू एक-दूसरे के हाथ के कंगन खोलते हैं। कन्या अपने हाथ की अंगूठी रोली, फूल व दूब वाले जल से भरे पात्र में डाल देती है। दोनों जल में से पहले अंगूठी निकालने की कोशिश करते हैं। माना जाता है जो पहले निकालता है वह वैवाहिक जीवन में भी आगे रहता है।
जूता चुराई: जब वर यज्ञ स्थल पर आता है तो वह अपने जूते उतारकर आता है। इसी समय उसके जूते कन्या की छोटी बहनें छुपाकर रख देती हैं। यज्ञ पूर्ण होने पर बहनें अपने जीजा से नेग लेकर जूते वापस करती हैं। विदाई: कन्या के परिवारजन वर व कन्या का तिलक करते हैं व कन्या को द्रव्य, वस्त्राभूषण व खाद्य सामग्री प्रदान करते हैं और कन्या को डोली में विदा करते हैं।
वधू आगमन: वर की मां व अन्य वधू के सिर पर मंगल कलश रखकर गाते हुए उसका घर में प्रवेश कराते हैं। लाल रोली या मेहंदी को पानी में भिगोकर कन्या का हस्तछाप दरवाजे के दोनों ओर लगाते हैं। कन्या अपने दाएं पैर से अक्षत कलश को फैलाते हुए घर में प्रवेश करती है। यह इस बात का संकेतक है कि घर में कभी अन्न की कमी न हो।
बहू-भात: वधू प्रथम मीठे चावल या खीर आदि बनाकर सबको खिलाती है व सब बड़े वधू को उपहार प्रदान करते हैं। द्विरागमन: कुछ दिन पश्चात वधू अपने पिता के घर जाती है एवं पति उसे लेकर वापस घर आता है। वहां गणेश एवं द्वार मातृकाओं का पूजन होता है।