काल सर्प योग राहु और केतु के माध्यम से बनता है। राहु को सर्प का मुख एवं केतु सर्प की पूंछ माना गया है। सांपों का भारतीय संस्कृति से बहुत गहरा संबंध है। आयुर्वेद के जन्मदाता धनवन्तरि ऋषि जी का मानना है कि वासुकी और तक्षक सांप असंख्य हैं। ये सर्प आकाश एवं पाताल में भी गमन कर सकते हैं। गलती से या सोच समझकर किसी व्यक्ति के द्वारा वर्तमान एवं अतीत में सर्प हत्या कर दी जाती है तो उसे नाग वध का शाप लग जाता है। यह शाप पुत्र संतति में बाधक होता है। यही राहु केतु जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा को ग्रहण लगाते हैं उसी प्रकार मनुष्य को ग्रहण लगाकर उसका संतान सुख समाप्त कर देते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए भारतीय मनीषियों ने अपने धर्मग्रन्थों और ज्योतिष के ग्रन्थों में इसकी निवृत्ति के अनेक उपाय बताये हैं।
महर्षि पराशर जी ने अपने ग्रन्थ वृहत्पाराशर होराशास्त्र में (इसी प्रकार के मिलते जुलते योग जातक परिजात, मानसागरी, फलदीपिका सारावली आदि में भी मिलते हैं) विशेष रुप से सर्पशाप के कारण संतान उत्पति न होने के विशेष योगों का उल्लेख किया है यथा विशेष योग - पंचम में स्थित राहु को मंगल पूर्ण दृष्टि से देखे अथवा राहु मेष या वृश्चिक में हों। - पंचमेश राहु के साथ कहीं भी हो तथा पंचम में शनि हो और शनि या मंगल को चन्द्रमा देखे या योग करें। - संतानकारक अर्थात् पंचम कारक गुरु राहु के साथ हो और पंचमेश निर्बल हो, लग्नेश व मंगल साथ-साथ हों। - गुरु व मंगल एक साथ हो, लग्न में राहु स्थित हो, पंचमेश 6, 8, 12 में हो। ये सब सर्प शाप के योग हैं। - पंचम में 1, 8 राशि हो, पंचमेश मंगल राहु के साथ हो अथवा पंचमेश मंगल से बुध की दृष्टि या योग हो। - पंचम में 3, 6 राशि हों, मंगल अपने ही नवांश में हो, लग्न में राहु व गुलिक हो। - पंचम में सूर्य, मंगल, शनि या राहु, बुध, गुरु एकत्र हों और लग्नेश व पंचमेश निर्बल हांे। - लग्नेश व राहु एक साथ हों, पंचमेश व मंगल भी एक साथ हों और गुरु व राहु एक साथ हों। - मंगल के अंशों में मंगल से युक्त पंचमेश बुध हो और लग्न में राहु मांदि (गुलिक) हो। - इस प्रकार के ग्रहयोगों से संतान का अभाव या संतान होकर भी संतान सुख प्राप्त नहीं होना या संतान लंबी बीमारी से ग्रस्त हो।
इस प्रकार के ग्रह योग की शांति अपनी गृह-पद्धति के अनुसार विधानपूर्वक सोने /तांबे यथा श्रद्धा नागराज की मूर्ति बनाकर विधिपूर्वक उसकी पूजा करें। तत्पश्चात् भूमिदान, गोदान, तिलदान या सोना दान अपने सामथ्र्य से करें तो नाग देवता की प्रसन्नता से उस मनुष्य को पुत्र सुख की प्राप्ति होती है एवं कुल की वृद्धि होती है। पूजा का मंत्र इस प्रकार है। ऊॅं नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वी मनु ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः। इस मंत्र का कम से कम 10 हजार बार जाप करें। राहु/केतु को सबसे प्रिय मंत्र होते हैं और मंत्रों द्वारा ही ये प्रसन्न होते हैं। गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम स्थल प्रयागराज है। इस तीर्थस्थल पर संपूर्ण सर्प जाति के नाग देवता तक्षक विराजमान हैं। सर्वाघिष्ठान चक्र, नागवासुकी, मूलाधार चक्र, अक्षय वट, मणि पूरक चक्र श्री तक्षक तीर्थ कहे गये अर्थात् पृथ्वी की कुण्डलनी शक्ति श्री तक्षक तीर्थ में विराजती है।
पृथ्वी के मूलाधार निश्चित ही अक्षयवट हंै किन्तु सृष्टि के मूलाधार नाग ही हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि शरीर के अन्य अंग के अस्थि पंजर स्वस्थ हों किन्तु यदि रीढ़ की हड्डी में कोई कष्ट आ जाये तो जीवन दुष्कर हो जाता है। दृष्टव्य है कि रीढ़ की हड्डी का आकार सर्पीला है। तक्षक देवता ने वचन दिया था कि जो जातक हमारे इस तीर्थस्थल पर आकर तर्पण करेगा उसे कभी सांप, बिच्छू या जहरीले जानवर के काटने का भय नहीं होगा। इस तक्षक तीर्थ पर स्वामी जी श्री श्री रवि शंकर जी के पैर के नीचे बहुत बड़ा नाग आ गया और प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उस नागदेवता ने स्वामी जी को काटा नहीं और वहां से चुपचाप चला गया। यह तीर्थस्थल धर्म की राजधानी तीर्थ राज प्रयाग कहलाता है। जिस प्रकार फांसी की छूट हमारे देश की राजधानी दिल्ली में बैठे राष्ट्रपति द्वारा होती है क्योंकि यह देश की राजधानी है, उसी प्रकार धर्म की राजधानी प्रयागराज है यहां पर काल के प्रतीक तक्षक नाग के द्वारा उत्पन्न शापयोगों में, उसकी दशा में, उसके द्वारा उत्पन्न अन्य योगों में सनातन धर्म की राजधानी प्रयागराज में विधिवत पूजा करवाने से शांति प्राप्त होती है।
आदिकालीन श्री तक्षक तीर्थ यमुना नदी के तट पर स्थित प्राचीन नाम मौजा (हरबंस नगर) वर्तमान दरियाबाद के मध्य स्थित है। प्राचीन पौराणिक वर्णनों में प्रयाग मण्डल के दक्षिणी ध्रुव पर पृथ्वी की कुण्डलिनी (मणि पूरक चक्र) के रूप में तक्षक तीर्थ की महिमा है। पùपुराण पाताल खण्ड से अवतरित प्रयाग महात्मय के 82 वें अध्याय में तक्षक तीर्थ महात्म्य का वर्णन इस प्रकार है- सर्वेस्यां शुक्ल पंचम्यां मार्ग श्रावण्यो परं या स्नात्वा तक्षके कुण्डे विषबाधानः तत्कुले। तत्कुर्वीत स्नानदान् जपादिक तक्षकेश्वर पूजाह्म धनवान्स भवेत्सदा।। अर्थात् सभी मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी विशेष कर मार्गशीर्ष और श्रावण मास की पंचमी को श्री तक्षक कुण्ड में स्नान कर तक्षकेश्वर के पूजन, दान, जपादि करने से कुल विषबाधा से मुक्त तो होता ही है, साथ ही कुल धनवान और सांसारिक सुखों को प्राप्त करता है।
इसी प्रकार यदि जन्मपत्री में सार्पशीर्ष नामक महादोष हो तो इसकी शांति भी मार्गशीर्ष मास (अगहन) की अमावस्या (रविवार 5 दिसम्बर 2010) को तक्षक तीर्थ प्रयागराज पर करानी चाहिए। सार्पशीर्ष की परिभाषा- सूर्य और चन्द्रमा के योग के समय (अमावस्या) यदि अनुराधा नक्षत्र हो तो अनुराधा का तृतीय व चतुर्थ चरण सार्पशीर्ष कहलाता है। कुछ आचार्यों का मानना है कि जिन जातकों का जन्म रोहिणी और मृगशिरा नामक नक्षत्र में हो उनकी योनि सर्प कहलाती है। यदि इस योनि में पैदा होने पर उपरोक्त योग हो तो अनुभव में पाया गया है कि इन जातकों को अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है अतः इनकी शांति करा लेनी चाहिए। राहु धनदाता एवं केतु मोक्षदाता कहलाता है। इसलिए यदि राहु/केतु जन्म पत्री में पितृ दोष का जनक बन जाता है।
पितृदोष के कारण धन और मोक्ष की प्राप्ति में बाधायें आती हैं। अतः कालसर्प योग, सर्पदोष,सार्पशीर्ष और राहु केतु से पीड़ित व्यक्ति को समय रहते इनकी शांति करा लेनी चाहिए। - नाग पंचमी के दिन (श्रावण कृष्ण पक्ष पंचमी राजस्थान एवं बंगाल में विशेष ) - नाग पंचमी के दिन (श्रावण शुक्ल पक्ष पंचमी को भी ) - नाग पंचमी के दिन (मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी, शुक्रवार 10 दिसम्बर 2010) - भाद्रपद कृष्ण पक्ष भाद्र नवमी (गोगा नवमी) - जिस दिन गोचर में आकाश में “कालसर्पयोग” का निर्माण हो रहा हो। - राहु या केतु अपने नक्षत्र में हो। - बुधवार की अमावस्या, आश्लेषा, शतभिषा, आद्र्रा, स्वाति नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र से युक्त हो अथवा इस दिन नागपंचमी भी हो तो विशेष शुभ हो जाता है।
- चूंकि राहु केतु सूर्य और चन्द्रमा को ग्रहण लगाते हैं अतः सूर्य और चन्द्र ग्रहण योग में इनकी निवृति करा सकते हैं। - सात वारों में बुधवार राहु केतु की शांति के लिये श्रेष्ठ माना जाता है। - तिथियों में पंचमी, सप्तमी, नवमी, पूर्णिमा एवं अमावस्या को शुभ माना गया है।