सिंहस्थ गुरु में विवाह वर्जित क्यों?

सिंहस्थ गुरु में विवाह वर्जित क्यों?  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 12290 | जून 2015

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार विवाह विषयों में वर का सूर्य बल एवं चंद्र बल तथा वधू का गुरु बल एवं चंद्र बल देखा जाता है। सूर्य आत्मकारक ग्रह है। गुरु हृदयकारक एवं जीवन को प्रशस्त करने वाला ग्रह है। चंद्रमा मन का कारक ग्रह भी माना जाता है। विवाहादि शुभ एवं मांगलिक कार्यों में, वर-वधू के गृहस्थ जीवन को प्रशस्त बनाने के लिए, तीनों ग्रहों के शुभत्व की महत्ता है।


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अतः सामान्य रूप से गुरु का सत्व गुण राशि धनु और मीन के सूर्य में तथा सूर्य की रजोगुण राशि सिंह में गुरु का गोचर गुरुर्वादित्य दोष कहा जाता है। भारतीय हिंदू पद्धति में चाहे कोई भी धर्म अथवा विचारधारा हो, सभी में लगभग प्रत्येक शुभ कार्यों में देवताओं की उपस्थिति अनिवार्य है, जैसे वास्तु पूजा हो, वैवाहिक कार्य हो, हवन हो, सभी में उस कार्य से संबंधित देवता का आह्वान कर अघ्र्यादि अर्पित किया जाता है।

अतः विवाह जैसे विशिष्ट कार्यों में, जा ‘दश महादानों’ में से एक है (इसी में कन्या दान भी सम्मिलित है) देवताओं की अनुपस्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती। इसी कारण ‘सिंहस्थ गुरु’ में शुभ कार्यों को वर्जित कहा गया है। इसी के साथ यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि शुभत्व कारक ग्रह गुरु, सौर मंडल के सम्राट सूर्य की राशि में होने से, सूर्य के ही प्रभाव में रह कर, संसार के सभी प्राणियों को अपना शुभ आशीर्वाद देने में असमर्थ रहता है।

बृहस्पति समस्त देवतागणों में पूज्य हैं। गुरु बुद्धि, ज्ञान, सद्गुण, सत्यता, श्रद्धा, समृद्धि, सम्मान, दया एवं न्याय का भी कारक ग्रह है। वैवाहिक विषयों, पुत्र प्राप्ति, धन प्राप्ति, भवन-भूमि आदि के लिए गुरु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रह (देव) माना जाता है। स्त्री की कुंडली में गुरु पति की भूमिका भी निभाता है। इसी प्रकार गुरु विवाहादि शुभ मांगलिक कार्यों के लिए उत्तम माना जाता है।

अधिसंख्य ज्योतिषीय सूत्र एवं योग गुरु की स्थिति के अनुसार सृजित किये गये हैं। ज्यादातर ज्योतिष के शुभ योग एवं सूत्र में गुरु की स्थिति महत्वपूर्ण स्थान रखती है। गुरु की स्वराशि धनु एवं मीन है। जातक के गर्भ का नौवां महीना पूर्ण कर जन्म लेने के कारण गुरु को काल पुरुष की नवी ं-धन ु राशि दी गयी है तथा जन्म के बाद अंत में शरीर त्याग (मृत्यु) होने के कारण काल पुरुष, अथवा जातक की अंतिम राशि मीन भी गुरु को ही दी गयी है।

अतः गुरु सब ग्रहों में सर्वोपरि बुद्धि बल का कारक है। गुरु के बारे में एक तथ्य और भी प्राप्त होता है, जो विचारणीय है। यह एक पौराणिक तथ्य है, जिसका संबंध गुरुर्वादित्य संचरण से है। इस पौराणिक कथा में उल्लेख है कि देवासुर में परस्पर संग्राम के मध्य में एक देवता अमृत कलश ले कर वहां से भाग चले।

दैत्यों ने उस देवता का पीछा किया। 12 वर्षों तक निरंतर पीछा किया जाता रहा। इस अवधि में उस देवता ने हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन आदि 4 स्थानों पर विश्राम किया। इन स्थलों पर अमृत की कुछ बूंदें छलक जाने से वहां आज भी कुंभ मेले का आयोजन होता है। पौराणिक मतांतर से यह कथा इस प्रकार भी है:

समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कलश को गरुड़ जी ले भागे। कहीं गरुड़ के स्थान पर इंद्रपुत्र जयंत का भी उल्लेख मिलता है कि अमृत कलश ले जाने के मार्ग में नासिक, प्रयाग, उज्जैन एवं हरिद्वार में अमृत की बूंदंे छलक जाने से इन स्थानों में कुंभ का आयोजन होने लगा। जब यह घटना घटी तो गुरु एवं सूर्य दोनों ही सिंह राशि में थे।

अतः तब से सिंहस्थ गुरु के समय में गंगा एवं गोदावरी के मध्य के क्षेत्र में शुभ कार्य वर्जनीय हो गये। कालांतर में कभी संपूर्ण भूभाग और कभी मात्र गंगा-गोदावरी के मध्यवर्ती क्षेत्रों में, गुरुर्वादित्य के समय, मांगलिक कार्य स्थगित किये जाने लगे। जीवे सिंहस्थे धन्वमीन स्थितेऽर्के विष्णौ निद्वाणे चाधिमासे च लग्नम्। नीचेऽस्तं वापते लग्न नाथेऽशपे वा जीवे शुक्रे वाऽस्तं गते वाऽपि नेष्टम।। मांगलिक कार्यों के लिए इस श्लोक में यह बताया गया है

कि गुरु जब संह राशि में हो, सूर्य गुरु की धनु अथवा मीन राशि में हो, विष्णु सहित सभी देव निद्रावस्था में हांे, (चातुर्मास), लग्नेश अथवा नवांशेश का स्वामी नीचस्थ या अस्त हो, गुरु अथवा शुक्र अस्त हों, तो विवाह एवं मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अतः इन सब स्थितियों में विवाह कार्यों का निषेध है।

यदि सिंहस्थ गुरु में, विशेष कर मघा नक्षत्र में, गुरु का प्रवेश होने पर विवाहादि कार्य हों, तो वह वर-कन्या दोनों के लिए घातक हैं। ऋषियों ने इन स्थितियों का पूर्व में भी अध्ययन किया है और उसी के अनुसार उन्होंने अंश भेद, देश भेद तथा सूर्य राशि भेद से 3 प्रकार के परिहार बताये हैं। उनका कहना है कि जब सूर्य राशि में, सूर्य के ही नवमांश में, अर्थात संचरण के समय 4ै 130 20श् से 4ै 160 40श् तक गुरु का भ्रमण हो, तब इस बीच के समय में किसी भी प्रदेश में, देश के किसी भी भाग में विवाहादि शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। इस बारे में राज मार्तंड का श्लोक इस प्रकार है, जिसमें भी उपर्युक्त बातों को स्वीकारा गया है:

सिंह राशौ तु सिहांशे यदा भवति वाक्पतिः सर्व देशेष्वयं त्याज्यो दम्पत्योः निधन प्रदः।। वशिष्ठ ऋषि के वचन इस प्रकार मान्य हैं: उनका कहना है कि सिंहस्थ गुरु का अशुभ प्रभाव गोदावरी के उत्तर से गंगा के दक्षिण में पड़ने वाले क्षेत्रों के लिए ही मान्य है, अन्य क्षेत्रों के लिए नहीं। परंतु यह मत पराशर ऋषि नहीं स्वीकारते थे; अर्थात सिंह के प्रथम 5 नवांशों का भोग करने के पश्चात् सिंहस्थ गुरु में गंगा एवं गोदावरी के मध्य क्षेत्रों में विवाहादि कार्य किये जा सकते हैं।

गंगा-गोदावरी के मध्य में आ रहे क्षेत्र सिंहस्थ गुरु में शुभ कार्यों के लिए वर्जित हैं। सप्त ऋषियों के मत से वशिष्ठ जी की अगली व्याख्या में इसकी व्यवस्था वर्तमान के लिए अधिक अनुकूल है, जो इस प्रकार हैः विचारों की भिन्नता को देखते हुए आचार्यों ने समस्त प्रकार से विचार कर कहा कि सिहंस्थ गुरु यदि मघा नक्षत्र तक का भोग कर चुका हो, तो शेष समय में सभी कार्य किये जा सकते हैं।

सिंहस्थ गुरु के समय गंगा-गोदावरी के मध्यवर्ती क्षेत्रों की सीमा, समय के अनुसार परिवर्तित होती रही है। इन क्षेत्रों के विषय में यह अवश्य ध्यान रखना होगा कि वर्तमान में राजनैतिक एवं भौगोलिक कारणों से इन क्षेत्रों की आज की स्थिति एवं पौराणिक स्थिति में पर्याप्त अंतर आ चुका है। मुंबई कभी महागुजरात का भाग था एवं आज का उड़ीसा पौराणिक समय का कलिंग है।


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इसमें वर्तमान का पुरी तथा गंजाम जिला भी समाहित है। पूर्वी बंगाल का समस्त क्षेत्र पहले गौड़ प्रांत था। आज वह भिन्न हो गया है। सिंहस्थ गुरु में विवाह हों या न हांे, इसके लिए आचार्य एकमत नहीं हैं। वास्तव में यह देखने में आता है कि मुख्य नियम का ही अधिकतर पालन होता है और मुख्य नियम के अपवाद को समाज व्यवहार में नहीं लाता है।

उदाहरणस्वरूप, नाड़ी दोष में विवाह वर्जित है। यद्यपि नाड़ी दोष का परिहार भी है, लेकिन यह व्यवहार में नहीं लाया जाता है। नाड़ी दोष के संबंध में यह भी कहा गया है कि नाड़ी दोष केवल ब्राह्मणों के लिए है। परंतु समाज, इसके अपवाद में न जा कर, मुख्य नियम ‘‘नाड़ी दोष में विवाह वर्जित है’’ का ही पालन करता है। सिंहस्थ गुरु के संबंध में भी यही नियम समाज लगाता है।

अतः सिंहस्थ गुरु में विवाह करना शास्त्रानुकूल नहीं कहा जा सकता है। जो जातक इस असमंजस जैसी परिस्थिति में लगभग 1 वर्ष तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं, उनके लिए शास्त्रों में परिहार भी दिया गया है, जो निम्न बातों �