समस्याएं अनेक उपाय एक: श्रीयंत्र साधना सनातन धर्म संस्कृति में विभिन्न कामनाओं की पूर्ति हेतु विभिन्न यंत्रों की साधना का विधान है। इन यंत्रों का उपयोग ध्यान केंद्रित करने के लिए किया जाता है। ये यंत्र एक दूसरे से भिन्न होते हैं। इनमें श्रीयंत्र सर्वाधिक शक्तिशाली है और इसे यंत्रराज की संज्ञा दी गई है। श्रीयंत्र में सभी देवी देवताओं का वास होता है। इसे विचारशक्ति, एकाग्रता तथा ध्यान को बढ़ाने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। प्रत्येक यंत्र किसी न किसी गणितसूत्र पर आधारित है। उल्लेखनीय है कि इस दिव्य और रहस्यमय श्रीयंत्र के आधारभूत गणितसूत्र पर आधुनिक गणितज्ञ शोध कर रहे हैं। श्रीयंत्र का प्रयोग ध्यान में एकाग्रता के लिए किया जाता रहा है। आधुनिक वास्तुशास्त्रियों ने माना है कि इस यंत्र के गणितसूत्र के आधार पर बनाए गए मंदिर, आवास या नगर में अत्यधिक सकारात्मक ऊर्जा होती है तथा ऐसे स्थान में रहने वाले लोगों में विचारशक्ति, ध्यान, शांति, सहानुभूति, सौहार्द व प्रेम के गुणों का उद्भव होता है। वास्तुशास्त्रियों का यह भी मानना है कि संपूर्ण वास्तुशास्त्र इसी यंत्र पर आधारित है। श्रीयंत्र आद्याभगवती श्रीललितमहात्रिपुर सुंदरी का आवास है। इसकी रचना तथा आकार के बारे में आदिगुरु शंकराचार्य की दुर्लभकृति सौंदर्यलहरी में बड़े रहस्यमय ढंग से चर्चा की गई है। महालक्ष्मी को सभी देवियों में श्रेष्ठ माना जाता है और श्रीललितामहात्रिपुर सुंदरी भगवती महालक्ष्मी का श्रेष्ठतम रूप है। श्रीयंत्र ¬ शब्द ब्रह्म की ध्वनितरंगों का साकार चित्र है। ऐसा कहा जाता है कि जब ¬ का उच्चारण किया जाता है तो आकाश में श्रीयंत्र की आकृति उत्पन्न होती है। भारत का सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक पूजनीय यंत्र श्रीयंत्र ही है। यह समूचे ब्रह्मांड का प्रतीक है जिसे श्री चक्र भी कहा जाता है। जन्म कुंडली में सूर्य ग्रह के पीड़ित होने पर श्रीयंत्र की पूजा का विधान शास्त्रों में वर्णित है। श्रीयंत्र शब्द की उत्पŸिा श्री और यंत्र के मेल से हुई है। श्री शब्द का अर्थ है लक्ष्मी अर्थात संपŸिा। इसलिए इसे संपŸिा प्राप्त करने का यंत्र भी कह सकते हैं। श्रीयंत्र में निश्चित रूप से हमारे जीवन की सभी समस्याओं का निराकरण उपलब्ध है। इसकी साधना से साधक के जीवन से समस्त नकारात्मक ऊर्जाएं निश्चित रूप से दूर हो जाती हैं। श्रीयंत्र हमारे जीवन में आध्यात्मिक व सांसारिक दोनों प्रकार का विकास कराने में सक्षम है। श्रीयंत्र ¬ की ध्वनि तरंगों का साकार रूप है। डाॅ. हैंस जेनी के अनुसार सन् 1967 ईमें जब टोनोस्कोप नामक यंत्र पर ¬ का उच्चारण किया गया तो श्रीयंत्र की आकृ ति उभरकर सामने आने लगी। इस यंत्र का उपयोग ध्वनि तरंगों की तस्वीर देखने के लिए किया जाता है। यह एक रहस्य का विषय है कि प्राचीन काल में जब टोनोस्कोप जैसा कोई उपकरण नहीं था, लोग ¬ की ध्वनि तरंगों की तस्वीर को अच्छी तरह से प्रस्तुत करने की क्षमता से युक्त थे। श्रीयंत्र की सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह में पिरामिड से 70 गुणा अधिक शक्ति होती है। यह यंत्र ग्रहों व अन्य ब्रह्मांडीय पिंडों द्वारा छोड़ी गई किरणों को खींचता है तथा उन्हें सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है। इसके बाद ये सकारात्मक ऊर्जाएं आसपास के वातावरण में प्रसारित हो जाती हैं और इस प्रकार उस क्षेत्र की समस्त नकारात्मक ऊर्जाएं नष्ट हो जाती हैं। श्रीयंत्र की अधिष्ठात्री देवी भगवती श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी हैं। संसार की सर्वाधिक सुंदर व श्रेष्ठतम वस्तु को ललिता कहा जाता है। ललिता शब्द का शाब्दिक अर्थ है- वह जो क्रीड़ा करती है। सृष्टि, स्थिति व विनाश को भगवती की क्रीड़ा कहा गया है। त्रिपुर शब्द का अर्थ है- तीन लोक, त्रिशक्ति, त्रिदेव, सत् चित् आनंदरूप, आत्मा-मन-शरीर इत्यादि। इसका शाब्दिक अर्थ है त्रिशक्तियों-महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती से पुरातन। वास्तव में श्रीयंत्र व इसकी अधिष्ठात्री देवी का शास्त्रों मे बड़ा ही गौरवपूर्ण वर्णन मिलता है। वैसे तो सभी देवताओं की महिमा का बखान करते हुए शास्त्र व महर्षि वेदव्यास नहीं थकते लेकिन अन्य सभी देवी देवताओं की अपेक्षा श्री ललिता महात्रिपुरसुंदरी की महिमा भक्तिकल्पित नहीं अपितु वास्तविक है। श्रेष्ठता के सूचक श्री शब्द का प्रयोग विद्वानों के नाम के आगे श्री या 108 श्री या 1008 श्री या अनंत श्री लगाकर किया जाता है। कहा जाता है कि श्रीविद्या अर्थात् भगवती श्रीललितामहात्रिपुरसुंदी ने ही लक्ष्मी को श्री नाम से विख्यात होने का वर दिया था। भगवती श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी को दशमहाविद्याओं में श्री विद्या नाम से जाना जाता है। इनके 16 अक्षरों के मंत्र को भी श्री विद्या नाम से ही पुकारा जाता है। इनके यंत्र को श्रीयंत्र कहा जाता है। तात्पर्य यह कि श्री व श्रेष्ठता की उच्चतम अभिव्यक्ति श्रीविद्या पराम्ना षोडशी भगवती राजराजेश्वरी श्रीललितामहात्रिपुरसंदरी ही श्रीयंत्र की अधिष्ठात्री शक्ति हंै। इनके बारे में कहा गया है कि कोटि-कोटि जिह्नाएं भी इनके माहात्म्य का वर्णन नहीं कर सकती हैं। सभी देवता अपने भक्तों को अभयदान देने के लिए अभय मुद्रा धारण करते हैं, लेकिन वांछा से अधिक फल प्रदान करने के लिए तथा अपने भक्तों को अभयदान देने के लिए इनके चरण ही पर्याप्त हैं। इसी कारण यह देवी अभयमुद्रा धारण नहीं करतीं। ब्रह्मपुराण में इनकी साधना के बारे में कहा गया है कि जिसने अनेक जन्मों में कठोर साधना की हो, उसी को श्री विद्या की उपासना का सौभाग्य मिलता है। इनके महत्व के बारे में कहा गया है- यत्रास्ति भोगो नहि तत्र मोक्षो। यत्रास्तिमोक्षो नहि तत्रभोगः, श्री संदुरी सेवन तत्पराणाम् भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।। अर्थात् जहां भोग है वहां मोक्ष नहीं है। जहां मोक्ष है वहां भोग नहीं है। परंतु भगवती त्रिपुरसुंदरी की आराधना करने वाले भक्तों के लिए भोग और मोक्ष दोनों एक साथ सुलभ होते हैं जब कि ये दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। तंत्र शास्त्र में भगवती त्रिपुरसुंदरी का महत्व सर्वोपरि है। कहा गया है- न गुरोः सदृशो दाता न देवः शंकरोपमः न कोलात् परमो योगी न विद्या त्रिपुरांदरा। श्रीयंत्र के मंत्र श्रीविद्या के बारे में शास्त्रों में कहा गया है कि जिसका अगला जन्म न हो तथा जो इसी जन्म में मुक्त हो या जो स्वयं शंकर हो उसी को श्रीविद्या का मंत्र दिया जा सकता है। यह भी कहा गया है कि शिरम् देयम् राज्यम् देयम् न देयम् षोडशाक्षरीम् अर्थात् सिर दिया जा सकता है, राजपाट दिया जा सकता है लेकिन श्रीयंत्र का 16 अक्षरों का मंत्र किसी को नहीं दिया जा सकता। श्रीदेव्यऽथर्वशीषम् में कहा गया है- कामोयानिः कमला बज्रपाणिर्गुहा हसा मातीरश्वा भ्रमिंद्रः पुनर्गुहा सकला मायया च पुरुच्यैषाविश्वमातादिविद्योम्। एषा आत्म शक्तिः, एषा विश्वमोहिनी, पाशांकुशधरा एषा श्रीमहाविद्या। य एवम् वेद स शोकम् तरति। ऊपर वर्णित श्लोक में श्री विद्या निहित है। श्रीयंत्र की उपासना में प्रयोग होने वाले मंत्र के छः प्रकार के भावार्थ, लोकार्थ, संप्रदायार्थ इत्यादि लगाए गए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ये मंत्र कितने महत्वपूर्ण व गोपनीय हैं। ज्ञान के अहंकार में मदमस्त होकर बिना गुरु दीक्षा के मंत्र का जप करना विनाशकारी है। इस मंत्र की दीक्षा सुयोग्य संत या आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा चार शांकर पीठों में स्थापित गुरुशिष्य परंपरा के अंतर्गत जगद् गुरुशंकराचार्य के आसन पर बैठे संत से ली जा सकती है। इस प्रकार से दीक्षित भक्त श्रीयंत्र की उपासना का पूर्ण फल प्राप्त कर सकता है। जब भगवान शिव ने 64 तंत्रों से समस्त भुवन को भर दिया और उनका मन फिर भी शांत नहीं हुआ, तो उन्होंने सभी पुरुषार्थों की सिद्धि देने वाले श्रीयंत्र व इसकी उपासना की पद्धति को स्वतंत्र रूप से इस पृथ्वी पर उतारा। मंत्रयोग के अनुसार श्रीयंत्र व इसके मंत्र के उच्चारण व निरंतर अभ्यास से कुंडली शक्ति को जाग्रत किया जा सकता है। इसलिए शास्त्रों में मंत्रों का बड़ा ही गौरवपूर्ण वर्णन किया गया है। श्रीयंत्र की दीक्षा न मिलने की स्थिति में इसके समक्ष श्रीसूक्त का पाठ करने से सुंदर सुरम्य देह, सरस्वती का विशाल कोष, धन का अक्षय भंडार आदि प्राप्त किए जा सकते हैं। जो लोग दीक्षा नहीं ले सके हों, वे इनके नाम का भजन करके भी इनका अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं। सौंदर्यलहरी में एक द्रविड़ शिशु की कथा है। एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण नियमित रूप से भगवती की आराधना किया करते थे। एक दिन किसी कार्यवश उन्हें घर से बाहर जाना पड़ा तो उन्होंने अपने छोटे से बालक को भगवती के मंदिर में दूध चढ़ाने के लिए कहा। बालक दूध का कटोरा लेकर श्रीयंत्र पर आधृत भगवती की प्रतिमा के सामने बैठ गया। बहुत देर तक जब भगवती ने दुग्ध पान नहीं किया, तो बालक जोर-जोर से रोने लगा। उसके रोने से भगवती तुरंत ही उसके समक्ष प्रकट हो गईं और रोने का कारण पूछा। बालक ने कहा- ‘‘जब पिताश्री दूध लेकर आते थे तब तो आप पीती थीं। आज जब मैं दूध लेकर आया हूं तब आप क्यों नहीं पी रहीं।’’ ऐसा सुनते ही भगवती ने दूध पी लिया। अब बालक और जोर-जोर से रोने लगा। इस पर मां करुणामयी ने पूछा अब क्यों रो रहे हो? बालक ने कहा- ‘‘सारा दूध क्यों पी लिया? मेरे लिए क्यों नहीं छोड़ा।’’ ऐसा सुनते ही मां ने बालक को अपना स्तनपान कराया। शिशु स्तनपान करते ही समस्त विद्याओं में निष्णात् हो गया। इस श्रीयंत्र व इसकी शक्ति की कितनी भी महिमा गाई जाए, कम है। श्रेष्ठ लाभ के लिए इसे शुद्ध स्थल पर स्थापित करें। सात्विक आहार करें व नियम से पूजा करें, श्रेष्ठ लाभ होगा। धन-संपŸिा, ज्ञान, यश व सौंदर्य प्राप्ति की इच्छा से या ब्रह्म ज्ञान व आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा की पूर्ति के लिए श्रीयंत्र की उपासना अत्यंत श्रेयस्कर है। इसके नित्य दर्शन मात्र का अत्यंत शुभ फल लिखा है- महाषोडशदानानानि कृ त्वा यल्लभते फलम्। तत्फलं शीघ्रमाप्रोति कृ त्वा ‘श्रीचक्रदर्शनम्।। सार्धात्रि कोटितीर्थेषु स्रात्वा यत्फलमश्नुते। लभते तत्फलं सकृत कृ त्वा ‘श्रीयंत्र’ दर्शनम्।।