एक गरीब आदमी को हीरा मिल गया। बड़ा हीरा राह के किनारे पड़ा हुआ था। उसको अपने गधे से प्रेम था। और तो उसके पास कुछ था भी नहीं। उसने कहा: बड़ा बढ़िया पत्थर है। उसे गधे के गले में बांध दिया कि चलो गधे का आभूषण हो जाएगा और गधा भी जितना प्रसन्न हो सकता था, उतना प्रसन्न हुआ। न गधे का मालिक समझा कि हीरा है और गधा तो कैसे समझेगा, जब गधे का मालिक ही नहीं समझा? गधे ने भी खुशी में लातें फटकारी होंगी; जोर से ची-पों ची-पों की होगी। दोनों चल पड़े। राह पर एक जोहरी ने देखा। जोहरी तो भरोसा न कर सका। हीरे बहुत देखे थे, मगर जिंदगी में इतना बड़ा हीरा नहीं देखा था वह गधे के गले में बंधा है और यह सज्जन, बगल में लट्ठ लिए, इसके साथ चले जा रहे हैं। उसने रोका।
उसने पूछा कि भाई, यह पत्थर? वह समझ गया कि इस आदमी को पता नहीं कि यह क्या है। उसने हीरा तो कहा ही नहीं। उसने कहा कि इस पत्थर के क्या दाम लोगे? अब जो उसे पत्थर समझ रहा हो, वह दाम भी क्या मांगे ? उसने बड़ी हिम्मत कर के कहा कि एक रुपया। वह भी बड़े सोच-समझकर कहा, क्योंकि एक रुपया देगा कौन? कोई पागल है? सोचा कि चार आने भी मिल जाएं, तो बहुत। मगर उसने होशियारी की, जैसा कि अधिक होशियार लोग करते रहते हैं। उसने सोचा कि रुपया मांगो, तब कहीं चार आने मिलेंगे। मगर उसे हैरानी भी हुई कि यह आदमी मूझे मालूम होता है कि शहर का है, मगर बुद्धू, जैसे कि शहर के लोग अक्सर होते हैं।
गांव के लोग ही सोचते हैं कि इसके दाम का सवाल ही क्या है; ऐसे ही मांग लेता तो मैं दे देता। मगर अब जब मांगे ही हैं, उसने पूछा ही है, तो उसने कहा : अच्छा एक रुपया लेंगे। लेकिन जोहरी ने भी सोचा कि यह तो बुद्धू है। इसको कुछ पता तो है नहीं; एक रुपया मांगता है। लाखों की कीमत का हीरा है, तो एक रुपया मांगता है। इसको पता तो है ही नहीं कि हीरा है। पत्थर है, इसको यही पता है। पत्थर का क्या एक रुपया देना? उसने कहाः चार आने लेगा? उस आदमी ने सोचा कि चार आने? नहीं। चार आने से तो ठीक है कि गधे के गले में ही बंधा रह,े या फिर बच्चे घर में खेलेंगे। चार आने में नहीं दूंगा,: उसने कहा । उसने सोचा, कम से कम आठ आने तो करे यह। मगर जोहरी भी कंजूस था। उसने सोचा कि देगा चार आने में ही।
चार आने में भी पुराने जमाने की कहानी होगी। चार आने बहुत थे। महीने भर का खर्च चल जाए, तो उसने कहा कि जरा दो कदम चलो। समझ में आएगी इसको बात कि चार आने भी कौन देगा इसको पत्थर के। वह ऐसा सोच दो कदम आगे चला, तभी एक दूसरा जोहरी आ गया। पूछाः कितने दाम? उस आदमी ने एक रुपया कहा। उसने कहा: आठ आने में देते हो? उसने कहा कि ठीक है। अब ठीक आदमी मिल गया। आठ आने में बेच दिया। तब तक पहला जोहरी वापिस आया, फिर मोल-तोल करने को। हीरा तो बिक चुका था। उसने पूछा इस गधे के मालिक को कि कितने में बेचा नासमझ? उसने कहा: आठ आने में। तो वह कहने लगा: तेरे जैसा मूढ़ हमने नहीं देखा।
यही हीरा लाखों का है और तूने आठ आने में बेचा। गधे का मालिक खूब हंसने लगा। उसने कहा: सुन भाई गधे ! यह हमको मूरख कहता है। हम तो उसको पत्थर समझते थे, तो हमने आठ आने में बेचा, तो कुछ गलती न की। लेकिन तू तो जोहरी है। तू चार आने में मांग रहा था, आठ आने भी देने को राजी न हुआ। तू महागधा है। हम तो ठीक हैं। हमें तो पता ही नहीं था कि हीरा है। इसलिए हमने तो समझा कि काफी समझदारी की कि आठ आने में बेच दिया। हमने चार आने में नहीं बेचा, यही क्या कम है। मगर तेरी सोच । तुझे तो पता था कि लाखों का है, तूने एक रुपया जल्दी से निकाल कर न दे दिया। जो मैंने तुम्हे दिया है, वह हीरा है।
अगर तुमने उसको मनोरंजन ही समझा, तो तुमने अपने गधे के गले में लटका दिया। फिर कहीं न कहीं तुम आठ आने में बेच दोगे। उसका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। ‘मजे’ से थोड़ा आगे चलो। ‘मजे’ से थोड़ा ऊपर उठो। ‘मजे’ का सहारा लो। ‘मजे’ की तरंग को पकड़ो। उसी तरंग पर यात्रा करनी है। उसी तरंग पर सवारी करनी है। मगर वहीं रुक नहीं जाना है। शुभ हुआ। झूमो ! लेकिन झूमना गंतव्य नहीं है। झूमना पहला आघात है। खूब झूमो। कंजूसी मत करना। नहीं तो हीरे से चूक जाओगे। झूमने में कृपणता मत करना। सोच-समझ कर मत झूमना। झूमने में भी क्या सोच-सोच कर झूमना! लेकिन लोग ऐसे ही हैं। लोग प्रसन्न भी होते हैं, तो सोच-सोच कर होते हैं कि कितना होना, कितना नहीं होना। लोग आनंदित भी होते हैं, तो बड़ी कंजूसी करते हैं; इतने तक जाएं कि इससे आगे जाएं? मैं देख कर चकित होता रहता हूं कि लोगों की कंजूसी की आदत ऐसी जड़ हो गयी है कि अपने को प्रसन्न होने की आज्ञा भी बड़ी मुश्किल से देते हैं। खुशी की लहर भी आये, तो बड़ी मुश्किल से उसे स्वीकार करते हैं।
दुःख के ऐसे आदी हो गये हैं कि सोचते हैं: दुःख ही सत्य है। सुख तो हो कैसे सकता है? झूमो। परिपूर्णता से झूमो । ऐसे झूमो कि तुम्हें ऐसा ख्याल भी न रह जाए कि झूमने वाला कोई पीछे खड़ा देख रहा है। इतना विभाजन भी न बचे कि झूमना ही रह जाए, झूमने वाला न बचे। नृत्य रह जाए, नर्तक न बचे। गायक रह जाए, तो अड़चन हो गयी। नर्तक बच गया, तो अड़चन हो गयी। तो दो हो गये- गायक और गीत। गीत ही बचे। गायक बिलकुल गीत में डूब जाए, समाहित हो जाए। ऐसे झूमो कि झूमने वाला न बचे। ऐसी मस्तानी, ऐसी दीवानी दशा को अपने भीतर आने का अवसर दो। आ रही है। द्वार खड़ी दस्तक दे रही है। मगर तुम हो कि भीतर विचार कर रहे हो कि आने देना कि नहीं आने देना। महाअतिथि भी द्वार पर आएगा, तो भी तुम सोचते हो कि आने देना कि नहीं आने देना। और तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं।
जब भी आया, दुःख आया। जब भी किसी ने दस्तक दी, दुःख ही ने दी। आज अगर सुख भी दस्तक देता है, तो तुम चिंतित होते हो कि आया फिर कोई दुःख ! आयी फिर कोई अड़चन। फिर कोई झंझट आयी ! आने दो इस मस्ती को। आज्ञा दो आने की। मेरे पास लोग आ आ कर पूछते हैं कि बड़ा आनंद आ रहा है। मगर कहीं यह कल्पना तो नहीं है? दुःख में कभी नहीं पूछते। मुझसे आज तक नहीं पूछा किसी आदमी ने। हजारों लोगों के दुःख-सुख मैने सुने मगर एक आदमी ने मुझसे आज तक यह नहीं कहा कि बड़ा दुःख हो रहा है। कहीं यह कल्पना तो नहीं है? नहीं, दुःख तो बिलकुल यथार्थ है। उसको तो लोग मानते हैं।
उसपर तो बड़ी श्रद्धा है। लेकिन जब सुख होता है, तो मुझसे आ कर पूछते हैं कि बड़ा सुख आ रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम किसी कल्पना जाल में पड़ गये हों? कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने हमें सम्मोहित कर लिया? सुख पर इतनी अश्रद्धा है ! इसलिए तो नहीं मिलता । जिस पर श्रद्धा है, वही पाओगे। दुःख पर श्रद्धा है, तो दुःख पाओगे। लोग कारण जानना चाहते हैं कि क्यों सुख मिल रहा है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दुःख मिले, तो कारण खोजना, क्योंकि दुःख का कारण होता है। सुख का कारण नहीं होता। सुख स्वभाव है। सुख तुम्हारे भीतर की अंतर्दशा है; तुम्हारी अंतरात्मा है। इसलिए तो हमने परमात्मा की परिभाषा ‘सच्चिदानंद’ की है। अंततः वह आनंद है; सत्य है, फिर चित्त है, फिर आनंद है; लेकिन अंततः आनंद है। अंततोगत्वा परमात्मा आनंदरूप है। तुम्हारे भीतर बैठा है आनंद।
इसका कोई कारण नहीं होता और जब तुम्हे कारण समझ में आते हैं, तबभी ख्याल रखना कि वह समझ की ही भ्रांति है। जैसे तुम ध्यान कर रहे और आनंद आया, तुम सोचते हो: ध्यान के कारण आंनद आया। गलत। ध्यान के कारण सिर्फ तुमने दुःख की तुम्हारी जो पकड़ थी, वह छोड़ी। ध्यान के कारण आनंद नहीं आता। ध्यान के कारण दुःख की पकड़ छूटती है। दुःख की पकड़ छूटी कि भीतर जो आनंद का झरना था, बहने लगा। दुःख की चट्टान हट गयी, झरना बह पड़ा। चट्टान हटाने से झरना पैदा नहीं होता, स्मरण रखना। झरना हो तो ही बहेगा। चट्टान के हटाने से क्या होता है ? तुम हटाते रहो चट्टानें। अगर पीछे झरना नहीं, तो कुछ नहीं बहेगा। चट्टान का हटना झरने का जन्म नहीं है। वह झरने के जन्म का स्रोत नहीं है। चट्टान का हटना केवल बाधा का हटना है। झरना था, चट्टान रोके थी। हटी चट्टान, झरना बह पड़ा। ऐसा ही ध्यान में होता है। (क्रमशः)