षोडश संस्कारों में की जाने वाली क्रियाएं
षोडश संस्कारों में की जाने वाली क्रियाएं

षोडश संस्कारों में की जाने वाली क्रियाएं  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 6198 | नवेम्बर 2016

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का आविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है। प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था।

उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढ़ती गई तो कुछ संस्कार स्वतः विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई।

गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है।

1. गर्भाधान संस्कार गर्भाधान संस्कार हमें सचेत करता है कि किसी भी जातक का मां के गर्भ में आना एक आकस्मिक घटना नहीं अपितु पूर्व नियोजित प्रक्रिया है जिससे सुयोग्य संतान प्राप्त की जा सके। गर्भाधान का समय ऋतुस्राव होने से 4 से 16 रात्रियां होती हैं। शुभ रात्रियां 8वीं, 9वीं, 10वीं, 12वीं, 15वीं तथा 16वीं रात्रि है। इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु गर्भाधान से पूर्व पति-पत्नी को अपने मन-तन को पवित्र बनाना चाहिए। शुद्ध रज-वीर्य के संयोग से ही संस्कारवान संतान का जन्म होता है। पतिव्रत धर्म और ब्रह्मचर्य पालन से ही रज-वीर्य की शुद्धि होती है। जिस शुभ रात्रि में जिस समय गर्भाधान करना हो तो उस समय पति-पत्नी स्वयं को आचमन आदि से शुद्ध कर लेना चाहिए। फिर पति हाथ में जल लेकर यह कहे कि मैं इस पत्नी के प्रथम गर्भाधान संस्कार के बीज तथा गर्भ संबंधी दोषों के निवारणार्थ इस गर्भाधान संस्कार क्रिया को करता हूं। पत्नी पश्चिम की ओर पैर करके सीधे चित्त लेटे तथा पति पूर्वाभिमुख बैठकर पत्नी के नाभि स्थल को अपने दायें हाथ से स्पर्श करता हुआ निम्न मंत्र का उच्चारण करे: ‘‘ऊँ पूषा भग सविता में ददातु रूद्रः कल्पतु ललामगुम। ऊँ विष्णुभौनिकल्पमतु त्वष्य रूपाणि यिथशतु साचिंसत्त प्रजापतिर्भानां गर्भ दधालुते।।’’

2. पुंसवन संस्कार गर्भ का विकास सम्यक प्रकार से हो, इसके लिये पुंसवन संस्कार, गर्भाधान संस्कार के तीसरे महीने में किया जाता है। इस संस्कार की मुख्य क्रिया में खीर की पांच आहुतियां दी जाती हैं। हवन से बची हुई खीर को एक पात्र में भरकर पति, पत्नी की गोद में रखता है और एक नारियल भी प्रदान करता है। पूजा समाप्ति और ब्राह्मण भोजन के पश्चात् पत्नी इस खीर का प्रेम पूर्वक सेवन करती है।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार यह संस्कार भी गर्भस्थ शिशु के उन्नयन के लिये किया जाता है। यह संस्कार शिशु को सौभाग्य संपन्न बनाता है। यह संस्कार गर्भ के सातवें महीने में करना चाहिए। इस संस्कार का उद्देश्य जन्म लेने वाले शिशु के स्वास्थ्य तथा शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना है। मुहूर्त के चयन में निम्नांकित विचार आवश्यक हैं: इस संस्कार में हवन किया जाता है और गर्भवती स्त्री के जूडे़ (सिर के बालों) में तीन कुशाएं और गूलर के फूल लगाये जाते हैं। इस संस्कार के अवसर पर वीणा वादन के साथ सोमराग का गान आदि भी होता है, जो गर्भवती स्त्री को प्रफुल्लित करने का, भक्ति का संस्कार करने का उत्तम साधन है।

4. जातकर्म संस्कार शिशु के जन्म लेने पर जो संस्कार किया जाता है उसे जातकर्म संस्कार कहते हैं। इसका मुख्य अंग ‘मेघाजनन’ संस्कार है। इसके द्वारा माता-पिता के शारीरिक दोषों का शमन किया जाता है। पिता या घर के अन्य बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा नाल काटने के बाद सोने की सलाई से शिशु को विषम मात्रा में शहद और घी चटाना चाहिए। इसी के साथ संतानोत्पत्ति से पूर्व की सांस्कारिक क्रियाएं पूर्ण हो जाती हैं।

5. नामकरण संस्कार यह संस्कार चारो वर्णों का होता है। नाम केवल ‘शब्द’ ही नहीं बल्कि एक कल्याणमय विचार भी है। इससे जातक का कल्याण भी होता है।

शिशु का नामकरण दो प्रकार से किया जाता है:

1. जन्म नक्षत्र चरण व राशि अनुसार नाम जो गुह्य होता है, इससे किया गया नामकरण शिशु के भाग्य में चार चांद लगा देता है।

2. पुकार का नाम, जिसे लोक भाषा में बोलता नाम भी कहते हैं, पिता, अपने शिशु के कान में कहता (बोलता) है। पुकार का नाम केवल व्यवहार के लिये होता है। जैसा कि ऊपर बताया है। नामकरण संस्कार चारो वर्णों का होता है। स्त्री एवं शूद्र का अमंत्रक एवं विजातियों का समंत्रक नामकरण होता है। ब्राह्मण का नाम मंगलकारी तथा शर्मायुक्त, क्षत्रिय का बल तथा रक्षा समन्वित, वैश्य का धन पुष्टि युक्त तथा शूद्र का दैत्य और सेवा भाव युक्त होता है।

स्त्रियों के नाम सुकोमल, मनोहारी, मंगलकारी तथा दीर्घवर्णित होने चाहिए। जैसे- यशोदा। कुछ ऋषियों ने नक्षत्र नाम को माता-पिता की जानकारी में रहना उपर्युक्त बताया है अर्थात् जिसे केवल माता-पिता ही जाने अन्य कोई नहीं। व्यवहार (बोलना) नाम ही प्रचलन में रहना चाहिए ताकि शत्रु के अविचार आदि कर्मों से शिशु की रक्षा की जा सके। अतः माता-पिता भी उसे व्यवहार नाम से ही संबोधित करें। जब उसकी शिक्षा स्कूल से जुड़े तो उसका वास्तविक नाम डालना चाहिए ताकि भाग्य बराबर चलता रहे। 6 नक्षत्र- अश्विन, मघा, मूल तथा अश्लेषा, ज्येष्ठा व रेवती गंडमूल नक्षत्र हैं। इनमें से किसी मंे भी जन्मा शिशु माता-पिता, अपने कुल या अपने शरीर हेतु कष्टदायक होता है। इसके विपरीत यदि संकट समाप्त हो जाए तो अपार धन, वैभव ऐश्वर्य, वाहन आदि का स्वामी होता है। इसके पिता को 27 दिन तक ऐसे शिशु का मुख नहीं देखना चाहिए। मूल शांति कराने के बाद संबंधित नक्षत्र का दान, हवन, पूजा आदि करवाकर 27 दिनों बाद ही मुख देखें तथा नामकरण संस्कार करायंे। इससे सूतका स्नान, गणपति जी, वरूण आदि पूजा, नवीन वस्त्र शिशु हेतु आवश्यक हैं। फिर शिशु के कान में ‘‘अमुक शर्माशि, अमुक वर्माशि’’ इत्यादि नाम तीन बार सुनाएं आदि क्रियायंे इसमें की जाती हैं।

6. निष्क्रमण संस्कार यह संस्कार नवजात शिशु को प्रथम बार घर से बाहर खुले स्थान (बाग, बगीचा, नदी) आदि पर ले जाने से संबंधित है। यह संस्कार शिशु के जन्म के 12वें दिन से लेकर 4 महीने तक कभी भी किया जा सकता है। सर्वप्रथम घर से बाहर पास के किसी मंदिर में शिशु को ले जाना चाहिए तथा उसी रात्रि में शुक्ल पक्ष के चंद्र दर्शन व गणेशजी बाल कृष्ण भगवान के दर्शन करवाने चाहिए।

7. अन्नप्राशन संस्कार यह संस्कार मां के दूध के अतिरिक्त पहली बार ठोस आहार देते समय किया जाता है। इस संस्कार के द्वारा, माता के गर्भ में मलिन, भक्षण-जन्म दोष जो बालक में आ जाते हैं, उसका नाश करने के लिए किया जाता है। जब बालक 6-7 मास का होता हैं तब यह संस्कार किया जाता है क्योंकि उस समय शिशु के दांत निकलने लगते हैं तथा पालन क्रिया (शक्ति) प्रबल होने लगती है। शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता आदि सोने या चांदी की सलाखा या चम्मच से पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं।

8. चूड़ाकर्म संस्कार चूड़ाकरण संस्कार जन्म के विषम वर्षों में 1, 3, 5, 7 आदि वर्षों में होना चाहिए। कुछ परिवारों में यह यज्ञोपवीत संस्कार के साथ भी किया जाता है। यह संस्कार चैल के नाम से भी जाना जाता है। ज्येष्ठ जातक का चूड़ाकरण सौर ज्येष्ठ मास में नहीं किया जाता। यदि माता 5 मास से अधिक की गर्भवती हो तो भी यह संस्कार नहीं होता। बाल काटने हेतु शिशु/बालक को पूर्व की ओर मुख करके बिठाया जाता है। बीच में मांग बनाकर दायें, बायें, और पीछे की ओर सिर में बालों को बैल के गोबर लपेटकर रखना चाहिए। कटे हुए बालों को गोबर सहित एक नये वस्त्र में रखकर जमीन में गाड़ना चाहिए या परिवार की परंपरानुसार गंगाजी में प्रवाहित करना चाहिए।

9. विद्यारंभ संस्कार इसे अक्षरारंभ संस्कार भी कहते हैं। जब बालक का मस्तिष्क विद्या/शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है। तब उसे अक्षरों का बोध कराया जाता है। यह संस्कार 5वें वर्ष या उपनयन संस्कार (11वां संस्कार) से पूर्व कराया जाता है। इसके लिए शुभ मुहूर्त में बालक को स्नान कराकर सुगंधित द्रव्यों व नवीन वस्त्रों से अलंकृत कर श्री गणेश जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी व कुलदेवी-देवताओं की पूजा की जाती है। इसके बाद शिक्षक (गुरु) पूर्व दिशा की ओर बैठकर पट्टी पर बालक से ‘‘ओम स्वस्ति नमः’’ सिद्धस्य आदि लिखकर विद्यारंभ करवाया जाता है। बालक की जीभ पर शहद से ‘ऐं’ भी लिखा जाता है।

10. कर्ण वेधन संस्कार यह संस्कार पूर्ण पुरूषत्व या स्त्रीत्व की प्राप्ति हेतु किया जाता है। शास्त्रों में कर्ण वेधन रहित पुरूष को शास्त्र का अधिकारी नहीं माना गया है। यह संस्कार शिशु के जन्म से छह मास से 16 मास के बीच किया जाता है। अथवा 3, 5, आदि विषम वर्षीय आयु में या परिवार की परंपरानुसार करना चाहिए। यह संस्कार धूप में करना चाहिए जिससे सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रविष्ट होकर बालक - बालिका को शुद्ध बनाती है तथा तेज संपन्न भी करती है। ब्राह्मण और वैश्य वर्ण का उपरोक्त संस्कार, क्रिया आदि की श्लाका से व क्षत्रिय की सोने की श्लाका से तथा शूद्र वर्ण की लौह श्लाका से करने का विधान है। आयुर्वेद (चिकित्सकीय) के अनुसार कर्ण वेधन से एक ऐसी नस, बिंदु बन जाती है, जिससे आंत्र वृद्धि (हर्निया रोग) नहीं होती है। इससे पुरूषत्व व स्त्रीत्व नष्ट करने वाले रोगों से रक्षा भी होती है।

11. यज्ञोपवीत संस्कार इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। इससे मानव जीवन के विकास का आरंभ माना जाता है। इस संस्कार की क्रिया करने से करोड़ांे जन्मों के संचित पाप कर्म से मुक्ति मिल जाती है। लेकिन शूद्र वर्ण को इसकी मनाही है। अन्य वर्णों में ब्राह्मणों को यह संस्कार 8वें वर्ष में, क्षत्रिय को 11वें वर्ष में और वैश्य वर्ण को 12वें वर्ष में कराना चाहिए। वर्ष की गणना गर्भ के समय से ही करना चाहिए। इस संस्कार के समय विभिन्न वैदिक मंत्रों के साथ गायत्री मंत्र का भी पूर्ण उच्चारण किया जाता है। आचार्य (गुरु) बालक को गायत्री मंत्र की दीक्षा भी देते हंै। इस संस्कार क्रिया में बालक को भिक्षा भरण भी होना पड़ता है। इस संस्कार के पश्चात बालक वैदिक कर्म करने का अधिकारी हो जाता है। परंतु उसे विवाह होने तक ब्रह्मचर्य के नियमों का पूर्णतया पालन करना पड़ता है। यह एक कठोर व्रत क्रिया है। साथ ही आचार्य द्वारा दिये गये उपदेशों का भी दृढ़ता से पालन करना चाहिए तभी उसे दिव्यत्व की प्राप्ति होती है।

12. वेदारंभ संस्कार यह संस्कार वेद सीखना प्रारंभ करने के साथ किया जाता है। उपनयन संस्कार के साथ भी यह संस्कार किया जा सकता है। इस संस्कार के बाद उसी दिन या इससे तीन दिन बाद यह संस्कार क्रिया आरंभ की जाती है। महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जिन-जिन कुलों में बड़े शाखाओं का अध्ययन परंपरा से होता चला आ रहा हो, उन कुलों के बालकों को उसी शाखा का अभ्यास करना चाहिए। अपने कुल की परंपरागत शाखा (उपनिषद् आदि) का अध्ययन करने के पश्चात् अन्य शाखाओं का अध्ययन करना चाहिए। वेदाध्ययन गुरु के सान्निध्य में करना चाहिये। वेद का अर्थ सहित अध्ययन करना चाहिए। इस संस्कार में वेद मंत्र की आहुतियों से यज्ञ करने का विधान है।

13. केशांत संस्कार यह संस्कार गोदान संस्कार भी कहलाता है। यह चूड़ाकर्म के समान ही है। यह संस्कार लगभग 16 वर्ष की उम्र के आसपास किया जाता है। इसमें क्रिया के रूप में दाढ़ी-मूंछ बनवायी जाती है। यह संस्कार/ क्रिया चूड़ाकरण जैसी ही है। कटे बालों को जल में प्रवाहित किया जाता है।

14. समावर्तन समावर्तन का अर्थ है जातक का विद्या अध्ययन पूर्ण करके गुरु के घर से अपने घर लौटना। यह संस्कार भी केशान्त संस्कार विधि के अनुरूप किया जाता है। यह संस्कार विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। विद्याध्ययन समाप्त हो जाने के बाद अनंतर स्नातक ब्रह्मचारी अपने गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है, अतः इसे समापन संस्कार कहते हैं। गृहस्थ जीवन में प्रवेश का अधिकारी हो जाना इस संस्कार का परिणाम है।

15. विवाह संस्कार बिना विवाह जातक कर्म के योग्य नहीं होता है। इस संस्कार के बाद ही जातक गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। इसे पवित्र बंधन माना जाता है। वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर 7 फेरे लगाते हैं जो 7 वचनों व 7 जन्मों से जुड़े होते हैं। ऋग्वेद में ‘जायेदस्तम’ शब्द का प्रयोग मिलता है जिसका अर्थ है ‘पत्नी ही गृह’ है। गोभिल गृहस्थसूत्र में पत्नी को ही घर बाताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अद्र्धांगिनी कहा गया है। विवाह पूर्व गुण-मिलान व कुंडली मिलान किया जाता है तथा विवाह शुभ मुहूर्त में करवाया जाता है ताकि वैवाहिक जीवन मधुर व सुखी रहे।

16. अंत्येष्टि या अंतिम संस्कार यह संस्कार जातक की मृत्यु के पश्चात् किया जाता है। हिंदू धर्म में दाह संस्कार किया जाता है ताकि शरीर, पंच तत्वों में विलीन हो तथा आत्मा को सद्गति मिले। उपरोक्त 1 से 16 संस्कारों के अलावा कुछ अन्य सांस्कारिक क्रियाएं भी की जाती हैं, जो संस्कारों के अंतर्गत ही आती हैं। ये क्रियाएं भी संस्कार के ही भाग हैं, जो महत्वपूर्ण हैं। अन्य संस्कार दोलारोहण संस्कार जन्म दिवस से 10, 12, 16, 22 एवं 32 वंे दिन शिशु को आरामदेह झूले में सुलाना चाहिए। इसमें शुभ मुहूर्त का विचार जरूर करना चाहिए।

शिशु की माता, दादी-दादा को भगवान श्रीहरि का ध्यान करते हुए शिशु को खुले में सिर पूर्व की ओर रखकर सुलाना चाहिए। ऐसी क्रिया इस संस्कार में करने से शिशु की आयु व ऐश्वर्य में वृद्धि होती है। भूम्योपवेशन संस्कार यह संस्कार पांचवंे मास में होता है। शुभ मुहूर्त में पृथ्वी और वाराह का पूजन कर शिशु की कमर में सूत्र बांधकर पृथ्वी पर बिठाते हैं और पृथ्वी से इस प्रकार प्रार्थना करते हैं: ‘‘रजैनं वसुधे देवी अदा सर्वगतं शुभे। आयु प्रमाणं सफलं निक्षिपसव हरिप्रिये।। इस अवसर पर विभिन्न वस्तुएं, पुस्तक, कलम, मशीन आदि शिशु के सामने रखी जाती हैं। वह जिस वस्तु को सर्वप्रथम उठाता है उसे ही उसकी आजीविका का साधन मानकर उसके अनुसार ही उसे शिक्षा दी जानी चाहिए।

वर्धापन संस्कार वर्धापन संस्कार प्रत्येक वर्ष जन्म दिवस पर किया जाता है ताकि शिशु दीर्घायु हो तथा सुखमय जीवन बिताये। यह संस्कार सूर्यादिपूर्ण स्वास्थ्य वर्धक, आयुविषयक एवं समृद्धिदायक होता है। जन्मदिवस पर अखंडदीप प्रज्ज्वलित कर जन्मोत्सव मनाना चाहिए। इसमें तिल का उबटन व जल से स्नान करना चाहिए। नवीन वस्त्र, आसन पर बैठकर तिलक करना चाहिए। गुरु पूज्य पश्चात् अक्षत पुष्पों पर सर्वप्रथम कुल देवताभ्यौ नमः मंत्र से कुल देवता का आह्वान व पूजन करें। फिर जन्मनक्षत्र, माता-पिता, प्रजापति, सूर्य, गणेशजी, मार्कंडेय, व्यास, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, बलि, प्रींाद, हनुमान, विभीषण एवं षष्ठी देवी का अक्षत पूजन कर नाम मंत्र से आह्वान करके उनकी पूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात् मार्कंडेयजी को श्वेत तिल और गुड मिश्रित दूध तथा षष्ठी देवी जी दही भात का नैवेद्य अर्पित करें। इसके पश्चात् मार्केडेय जी से दीर्घायु तथा आरोग्य होने की प्रार्थना करनी चाहिए। इस दिन नख, केश न काटें, गर्म पानी में स्नान न करें। अपने से बड़ांे का चरण स्पर्श, अभिवादन करें। ये सारी क्रियाएं इस संस्कार में करनी चाहिए। भूमि पूजन: इसकी क्रिया के अंतर्गत वास्तु दोष दूर करने हेतु वास्तु पुरूष की पूजा करनी चाहिए।

नींव खोदते समय नाग नागिन जोड़ा दबाना चाहिये क्योंकि चारांे कोणों, चारों दिशाओं में नवनाग रहते हैं ताकि वास्तु दोष दूर हो सके। पानी का कलश रखना चाहिए ताकि शुभ रहे क्योंकि कलश में सभी देवी-देवताओं का वास बताया गया है। वास्तु पुरूष में 81 देवों की पूजा हो जाती है जो कि शुभ रहता है। गृह प्रवेश: गृह प्रवेश करते समय सर्वप्रथम नया झाडू, नया मटका रखकर जल भरा जाता है। शौचालय में नमक को स्टील के कटोरे में भरकर रखते हैं ताकि नकारात्मक ऊर्जा दूर रहे। मुख्य प्रवेश द्वार पर शुभ चिह्न, गणेश जी अंदर-बाहर दोनों तरफ आदि शुभ संकेत लगाये जाते हैं। नये घर में रसोई में शुद्ध शाकाहारी भोजन बनाना शुभ रहता है, आदि क्रियाएं की जाती है।



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