ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान, अध्यात्म और भक्ति का मुख्य कारक तथा केतु को मोक्ष का कारक माना गया है। परंतु ईश्वर की ओर प्रेरित करने में शनि की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शनि ग्रह अपने भचक्र के 30 वर्ष के गोचर में 22) वर्ष सांसारिक दृष्टि से कष्ट, तथा बीच बीच में 2) वर्ष के तीन भागों में (कुल 7) वर्ष) सुख देकर सांसारिक सुख की क्षणभंगुरता के प्रति सचेत कराता रहता है। सूर्य आत्मा का कारक है, शनि सूर्य का पुत्र है। यद्यपि दोनों आपस में वैर भाव रखते हैं, ‘साढ़ेसाती’ के अशुभ गोचर के समय शनि अपने पिता का सहायक बनकर जातक को अध्यात्म (आत्मा की खोज) की ओर प्रेरित करता है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि ‘साढ़ेसाती’ या शनि की महादशा का स्वागत करते थे क्योंकि यह समय ईश्वर आराधना और साधना के लिए उŸाम होता है। एक कठोर अनुशासक परंतु हितैषी शिक्षक की भाँति शनि मनुष्यों को इस संसार के सही रूप का ज्ञान देकर अध्यात्म की ओर प्रेरित करने तथा मानव जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सभी उच्च कोटि के संतों की कुण्डलियों में चंद्र (मनः कारक), बृहस्पति (ज्ञान कारक) और केतु (मोक्षकारक) का लग्न (व्यक्तित्व), पंचम (संचित पुण्य तथा मंत्रसिद्धि), नवम् (धर्म, गुरु व ईश्वर कृपा), दशम् (कर्म) तथा द्वादश भाव (मोक्ष) पर प्रभाव के साथ साथ बलवान शनि का भी संबंध होता है। इसकी पुष्टि हेतु यहां दो कुंडलियों का विश्लेषण प्रस्तुत है। रामकृष्ण परमहंस जी की कुंडली में बृहस्पति पंचम भाव में है, पंचमेश और प्रज्ञाकारक बुध लग्न में वर्गोŸाम है, तथा लग्नेश शनि नवम् भाव में उच्च का है। लग्न व लग्नेश बृहस्पति से दृष्ट है। केतु भी दशम भाव में उच्च का है। चंद्र से शनि नवम् भाव में स्थित है।
लग्नेश शनि, नवमेश शुक्र, कर्मेश मंगल तथा केतु के उच्च के होने से जगत प्रसिद्ध हुए। उन्हें महाकाली का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ था। मां आनंदमयी की कुंडली में चार ग्रह उच्च के हैं। उच्च शुक्र लग्न में ‘मालव्य महापुरुष योग’ बना रहा है। लग्नेश बृहस्पति पंचम (संचित पुण्य) भाव में उच्च है, तथा पंचमेश चंद्र बृहस्पति की राशि में दशम भाव में है। उस पर केतु और उच्च शनि की दृष्टि है। केतु की द्वादश (मोक्ष) भाव पर दृष्टि है। शनि अष्टम (गुप्त विद्या) भाव में उच्चस्थ होकर पंचम भाव स्थित उच्च बृहस्पति पर दृष्टि डाल रहा है। नवमांश में चंद्र व शनि की युति गहरी साधना, तप तथा ध्यान दर्शाती है। पंचम भाव व भावेश उŸाम स्थिति में हों तो, व्यक्ति अपने इष्टदेव का दर्शन पाता है। श्री श्री मां आनंदमयी को देवी माता का सान्निध्य प्राप्त था। देश विदेश में उनके शिष्य थे।