सर्वविदित है कि कालसर्प योग का निर्माण ग्रहों की एक विषेष स्थिति के फलस्वरूप होता है। यह स्थिति है राहु और केतु के बीच एक ओर अन्य सभी सात ग्रहों का आ जाना। जनसाधारण में एक धारणा या कहें कि भ्रम व्याप्त है कि यह एक परम अनिष्टकारी योग है। किंतु यह मात्र एक भ्रम ही है। यह योग अनिष्टकारी तो है, किंतु वहीं यह भी सच है कि इससे प्रभावित अनेकानेक जातक सफलता के शीर्ष पर भी पहुंचे हैं।
बुरे प्रभावों को देखें तो पाते हैं कि राहु जिस भाव में बैठा होता है उस भाव के शुभ प्रभाव कम और नेष्ट प्रभाव अधिक मिलते हैं। मुख्यतः कालसर्प दोष के कारण जातक को शुभ कर्म का फल प्राप्त नहीं होता है। यदि बीमार हो, तो दवा असर नहीं करती। यदि कर्ज हो, तो चुकता नहीं है। यदि कलह हो, तो शांति नहीं प्राप्त होती है। इसलिए राहु की स्थिति के अनुसार 12 प्रकार के कालसर्प दोष कहे गए हैं। इसके बुरे प्रभावों से पीड़ित जातकों के मन में प्रश्न उठ सकता है कि इनसे मुक्ति कैसे हो? शिव सर्प का हार पहनते हैं व विष्णु शेष नाग की शय्या पर विराजमान हैं। अतः कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए मुख्यतः शिव व विष्णु की आराधना ही श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक उपाय हैं जिन्हें अपनाकर जातक कालसर्प दोष के नेष्ट प्रभावों से मुक्त हो सकता है।
सामग्री: कालसर्प दोष शांति में पारद शिवलिंग, कालसर्प यंत्र, कालसर्प लाॅकेट, नाग नागिन के जोड़े, रुद्राक्ष माला, एकाक्षी नारियल, राहु, केतु व मछली, हकीक व गोमती चक्र की विशेष उपयोगिता है। पारद भगवान शिव का वीर्य माना गया है। कालसर्प दोष के जातक को पारद शिवलिंग की प्रतिष्ठा कर प्रतिदिन जल चढ़ाने से दोष से मुक्ति मिलती है। प्रतिष्ठित कालसर्प यंत्र के सम्मुख सरसों का दीप जलाने से अनेक कष्टों का शमन होता है। रुद्राक्ष भगवान शिव के अश्रु हैं। अतः रुद्राक्ष माला पर शिव मंत्र व राहु-केतु एवं कालसर्प मंत्र का जप करने से असीम शांति प्राप्त होती है। अभिमंत्रित कालसर्प लाॅकेट गले में धारण करने से भी दोष से रक्षा होती है। शिवस्वरूप एकाक्षी नारियल, विष्णुस्वरूप गोमती चक्र, राहु-केतु, मछली, हकीक एवं नाग नागिन के जोड़े के विसर्जन से कालसर्प दोष से तत्काल मुक्ति प्राप्त होती है।
विधि: कालसर्प योग जन्य दोषों से मुक्ति हेतु शिव अर्चना एवं रुद्राभिषेक का विधान है। प्रत्येक पूजन से पहले कलश पूजन का हमारी संस्कृति में विशेष महत्व है। पुराणों में इसका उल्लेख समुद्र मंथन के क्रम में निकले चैदह बहुमूल्य रत्नों में से एक के रूप में किया गया है। यह अनुकूल स्वास्थ्य, दीर्घायु, धन-समृद्धि, ज्ञान और अंतरिक्ष का द्योतक है। इसे ज्ञान घट भी कहते हैं। कलश पूजन देवी-देवताओं के आवाहन हेतु किया जाता है।
कलश पूजन की तरह ही पंचांग वेदी पूजन का भी अपना विशेष महत्व है। इसमें गौरी-गणेश पूजा, वर्ण कलश पूजा, सूर्यादि नवग्रह पूजा, पंचोपचार पूजा तथा षोडशोपचार मातृका पूजा की जाती है। तत्पश्चात शंृगी द्वारा दूध मिश्रित जल की धार से रुद्राभिषेक कराया जाता है। इस पूजन क्रिया के साथ-साथ रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। रुद्राष्टाध्यायी के शुद्ध पाठ के फलस्वरूप पारद शिवलिंग में भगवान शिव का अंश प्रविष्ट होता है, जो शास्त्रों में प्राण प्रतिष्ठा के नाम से जाना जाता है। इसके पश्चात् शिव महिमन स्तोत्र एवं शिव तांडव स्तोत्र के उच्चारणों से भगवान शिव को प्रसन्न किया जाता है।
मंत्र जप: ऊपर वर्णित रुद्राभिषेक के पश्चात कालसर्प दोष शांति के लिए निम्न मंत्रों का उक्त संख्या में जप करवाने से तत्काल शांति प्राप्त होती है। जप की सूक्ष्म विधि भी है जिसमें दशांश जप करवाने का विधान है।
राहु मंत्र |
ॐ रां राहवे नमः (18000द्ध |
शिव मंत्र: |
ॐ नमः शिवाय (11000) |
केतु मंत्र: |
ॐ कें केतवे नमः (7000) |
विष्णु मंत्र: |
ॐ विष्णवे नमः (11000) |
कालसर्प मंत्र: |
ॐ क्रौं नमो अस्तु सर्पेभ्यो कालसर्प शांति कुरु-कुरु स्वाहा (11000) |
महामृत्यंुजय मंत्र: |
ॐ त्रयंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम् ऊर्वारुकमिव बंधनान मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् (11000) |
अष्टकुल नाग स्तोत्र: |
(108) |
विसर्जन
जातक प्रतिष्ठित पारद शिवलिंग एवं कालसर्प यंत्र अपने पूजा स्थल पर स्थापित करें व लाॅकेट एवं रुद्राक्ष माला धारण करें। प्रतिदिन पारद शिवलिंग का जल या दूध से अभिषेक करें। यंत्र के सम्मुख तेल का दीपक जलाएं। रुद्राक्ष माला से शिव, राहु-केतु व कालसर्प मंत्र का एक माला या यथाशक्ति जप करें। अनुष्ठान के पश्चात् काले हकीक, एकाक्षी नारियल, कौड़ी, राहु-केतु के सिक्के और नाग-नागिन के जोड़े का विसर्जन किया जाता है। विसर्जन के पूर्व इन्हें एक कपड़े में बांधकर जातक के ऊपर से निम्न मंत्र का जप करते हुए उतारा करना चाहिए।
मंत्र - ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नम्।। ॐ सर्पेभ्यो नमः ।।
तत्पश्चात इन्हें बहते जल में प्रवाहित करें। ऐसा करने से जातक के जीवन से कालसर्प दोष का प्रभाव दूर होता है तथा उसे शारीरिक, मानसिक और आर्थिक लाभ प्राप्त होता है।
कब करवाएं: कालसर्प दोष शांति के लिए ऊपर वर्णित विधि प्रतिवर्ष किसी सोमवार को, जन्मदिवस पर या सिद्ध मुहूर्त, जैसे महाशिवरात्रि, नाग पंचमी या श्रावण मास में करानी चाहिए। शिव या विष्णु के किसी सिद्ध स्थल या तीर्थ स्थल पर एक बार दोष शांति अवश्य करानी चाहिए। द्वादश ज्योतिर्लिंग मंदिरों में, और विशेष रूप से त्रयंबकेश्वर में, कालसर्प दोष शांति की विशेष महत्ता है। इसी प्रकार गंगातीर हरिद्वार या प्रयाग में भी शांति का विशेष महत्व है।