वास्तु में दिशाओं एवं ग्रहों का संबंध
वास्तु में दिशाओं एवं ग्रहों का संबंध

वास्तु में दिशाओं एवं ग्रहों का संबंध  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 19957 | दिसम्बर 2011

वास्तु में दिशाओं एवं ग्रहों का संबंध रश्मि चैधरी ‘वास्तु शास्त्र’ मुख्यतः दिशाओं पर आधारित सैद्धांतिक विज्ञान है। अतः दिशाओं से संबंधित कौन-कौन से दोष हमारे घर एवं व्यवसायिक संस्थान में मौजूद हैं, यह जानकर तथा दिशाओं से संबंधित ग्रहों को मजबूत करके हम आज के भौतिकतावादी युग में तनाव एवं परेशानियों को दूर कर सकते हैं। इतना ही नहीं वरन् वास्तु शास्त्र एवं ज्योतिष के नियमों के आधार पर दिशाओं एवं ज्योतिषीय ग्रहों में समन्वय स्थापित करके हम धन, संपदा, सुख, शांति, ऐश्वर्य संपदा। सभी कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

ज्योतिष एवं वास्तु दोनों ही शास्त्रों में चार मुख्य दिशाओं एवं चार उपदिशाओं अर्थात कुल आठ दिशाओं को मान्यता प्राप्त है। ये आठ दिशायें तथा उनसे संबंधित ग्रह एवं देवता इस प्रकार हैं-

दिशा अधिपति ग्रह देवता:

1. पूर्व सूर्य इंद्र

2. पश्चिम शनि वरुण

3. उत्तर बुध कुबेर

4. दक्षिण मंगल यम

5. उत्तर-पूर्व गुरु शिव

6. उत्तर पश्चिम चंद्र वायु देवता

7. दक्षिण पूर्व शुक्र अग्नि देवता

8.दक्षिण पश्चिम राहु-केतु

नैति उ. पू. पू. द.पूउ. प. प. द.प उ. द. (गुरु) (सूर्य) (शुक्र) (बुध) (मंगल) (चंद्र) (शनि) (राहु-केतु) गायत्री मंत्र, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें।

पश्चिम दिशा: इस दिशा का स्वामी ग्रह शनि है। शनि ग्रह को मुख्यतः आयु, रोग, कठोर वाणी, सेवक, कर्मचारी इत्यादि का कारक ग्रह माना जाता है। वास्तु के अनुसार पश्चिम दिशा सफलता, संपन्नता एवं उज्जवल भविष्य की नियामक दिशा है। इस दिशा में दोष होने पर वायु विकार कुष्ठ रोग, पैरों में दर्द एवं जीवन में प्रसिद्धि एवं सफलता की कमी बनी रहती है।

उपाय: पश्चिम दिशा के भूखंड या पश्चिमी भाग में गड्ढा, दरार या नीचा स्थान नहीं होना चाहिये। शनि यंत्र की उपासना करें। मांस मदिरा का सेवन न करें। भैरो की उपासना करें।

उत्तर दिशा: ज्योतिष के अनुसार उत्तर दिशा का पूर्ण स्वामित्व ‘बुध ग्रह’ को प्राप्त है। बुध ग्रह ज्योतिषीय दृष्टि से, ज्योतिष, शिल्प, कानून हास्य-विनोद एवं वित्त व्यवस्था से संबंधित ग्रह पूर्व दिशा

- ज्योतिष के अनुसार पूर्व दिशा का आधिपत्य सूर्य ग्रह को प्राप्त है। सूर्य आत्मा, आरोग्य, स्वभाव, राज्य प्रतिष्ठा, प्रभाव, यश, सौभाग्य तथा पिता का कारक ग्रह माना गया है। वास्तु एवं ज्योतिषीय दोनों ही दृष्टियों से पूर्व दिशा अच्छे स्वास्थ्य, धन, वृद्धि एवं सुख समृद्धि की दिशा मानी गई है। यदि पूर्व दिशा में दोष है अर्थात् पूर्व दिशा में कहीं भी खुला स्थान नहीं है तो घर में मुख्यतः (पितृ दोष) की संभावना होती है। जिसके फलसवरूप किसी भी कार्य में सफलता न मिलना पिता एवं बाॅस से संबंध खराब होना। घर के मुखिया का स्वास्थ्य खराब रहना तथा सरकारी नौकरी में परेशानी होती है। साथ ही सिर दर्द, नेत्र रोग, क्षय रोग, अस्थि रोग, हृदय रोग, दांत एवं जीभ के रोग मस्तिष्क एवं बुद्धि की दुर्बलता जैसी भयानक बीमारियों का सामना भी करना पड़ सकता है।

दोष दूर करने के उपाय: भवन निर्माण करते समय पूर्व दिशा का कुछ हिस्सा खुला छोड़ देना चाहिए एवं पूर्व दिशा के भूखंड को थोड़ा नीचा रखना चाहिये। है। वास्तु शास्त्र के अनुसार सभी प्रकार की भौतिक सुख समृद्धि एवं भोग विलास की प्राप्ति उत्तर दिशा के शुभ होने पर ही प्राप्त की जा सकती है। इस दिशा में दोष हो अथवा बुध ग्रह कुपित हो तो घर में हमेशा नीरवता का वातावरण रहेगा, व्यवसाय मंे हानि, आर्थिक तंगी, वाणी दोष, विद्या प्राप्ति में बाधा/ त्वचा रोग एवं मतिभ्रम होने का भय रहता है। दोष दूर करने के उपाय: उत्तर दिशा को अधिक ऊंचा न रखें। उत्तर दिशा में थोड़ा खाली स्थान अवश्य रखें। बुध यंत्र की स्थापना करनी चाहिये। कुबेर, दुर्गा जी अपना गणेश जी की पूजा अवश्य करनी चाहिये।

दक्षिण दिशा - दक्षिण दिशा का स्वामी ग्रह ‘मंगल’ है। मंगल ग्रह ज्योतिषीय दृष्टि से मुख्यतः धैर्य, पराक्रम, साहस, शक्ति, क्रोध, उत्तेजना षड्यंत्र, शत्रु, विवाद, छोटे भाई, अचल संपत्ति, भूमि तथा रक्त इत्यादि का कारक ग्रह माना गया है। वास्तु की दृष्टि से यह दिशा पद, प्रतिष्ठा, पिता के सुख एवं जीवन में स्थायित्व प्रदान करने की मुख्य दिशा मानी गई है। इस दिशा में दोष हो तो जातक को निम्न कष्टों का सामना करना पड़ सकता है।

- अत्यधिक क्रोध आना।

- भाइयों से विवाद होना।

- शत्रुओं का सक्रिय होना।

- फोडे-फंुंसी एवं रक्त संबंधी अशुद्धियां होना।

उपाय: दक्षिण दिशा में सदैव ऊंचा व भारी निर्माण करवाना चाहिये। हनुमान जी की पूजा एवं मंगल यंत्र की स्थापना करनी चाहिए। हर मंगलवार को गरीबों को कुछ मिठाई अवश्य देनी चाहिए। उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) ईशान कोण का स्वामी ग्रह ‘गुरु’ है।

ज्योतिष में गुरु ग्रह को मुख्यतः धार्मिक कार्यों एवं आध्यात्मिकता का कारक ग्रह माना गया है। यह दिशा ज्ञान एवं धर्म-कर्म का सूचक है। इस दिशा में दोष होने पर अथवा पत्रिका में गुरु ग्रह के पीड़ित होने पर व्यक्ति कभी भी पूजा पाठ ढंग से नहीं करेगा, घर में धन की कमी बनी रहेगी तथा बच्चों के विवाह भी देर से होंगे। साथ ही उदर विकार, मधुमेह तथा पाचन क्रिया से संबंधित रोग भी हो सकते हैं।

उपाय: ईशान कोण को हमेशा साफ सुथरा रखना चाहये। इस दिशा में कभी भी शौचालय का निर्माण नहीं करवाना चाहिये। गुरुओं और ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहये। धार्मिक पुस्तकों का दान करना चाहिये। दक्षिण-पूर्व दिशा (आग्नेय कोण) इस दिशा का स्वामित्व ‘शुक्र ग्रह’ को प्राप्त है।

शुक्र ग्रह को मुख्यतः विवाह प्रेम संबंध, ऐश्वर्य, सौंदर्य, वाहन, आकर्षक व्यक्तित्व, रतिक्रिया एवं कामक्रीड़ा का कारक ग्रह माना गया है। वास्तु की दृष्टि से यह दिशा उत्तम शयन सुख एवं प्रजनन क्रिया की दिशा है। यदि इस दिशा में कोई भी वास्तु दोष है अथवा शुक्र ग्रह पीड़ित है तो पत्नी सुख में बाधा/ वैवाहिक जीवन में कड़वाहट, असफल प्रेम संबंध, वाहन से कष्ट, कामेच्छा का समाप्त होना, मधुमेह/ आंखों के रोग, मूत्र रोग एवं गुप्त रोगों की संभावना बनी रहती है।

उपाय: आग्नेय कोण में कभी भी पानी का टैंक अथवा भूमिगत टैंक का निर्माण नहीं करवाना चाहये। शुक्र यंत्र की विधिवत स्थापना करनी चाहिए। चांदी अथवा स्फटिक के श्रीयंत्र की पूजा करें। उत्तर पश्चिम दिशा (वायव्य कोण) इस दिशा का स्वामी ग्रह ‘चंद्र’ है। चंद्र ग्रह मन, माता, मस्तिष्क, घरेलू वातावरण, शिक्षा, आवास, निद्रा तथा गुप्त प्रेम संबंधों का कारक ग्रह है। वास्तु शास्त्र के अनुसार यह दिशा मानसिक विकास, मित्र-शत्रु, अतिथि अथवा रिश्तेदारों से संबंधित है। इस दिशा में दोष होने पर जातक को निम्नलिखित कष्टों का सामना करना पड़ सकता है।

- माता तथा रिश्तेदारों से संबंध ठीक न होना। मानसिक परेशानी, अनिद्रा, तनाव रहना।

- काक संबंधी रोग अस्थमा, मासिक चक्र अथवा प्रजनन संबंधी रोगों का बढ़ना।

उपाय: वायव्य कोण को ईशान की अपेक्षा नीचा न रक्खें। चंद्र की रोशनी में बैठकर ‘‘ऊँं श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः’’ मंत्र का जाप करें। माता का आदर करें। शिव की उपासना करें। दक्षिण-पश्चिम दिशा (र्नैत्य कोण् ा) दक्षिण, पश्चिम दिशा का स्वामित्व ज्योतिष में ‘राहु-केतु’ ग्रहों को प्राप्त है। ज्योतिषीय दृष्टि से ‘राहु’ को दादा तथा ‘केतु’ को नाना का प्रतीकात्मक ग्रह माना गया है। राहु का संबंध विदेशी भाषा, लोभ, झूठ, षड़यंत्र, दुष्टता। वैधव्य चोरी एवं जुएं तथा विदेश यात्रा से है तथा केतु मुख्यतः अचानक होने वाली घटनाएं, भूत-प्रेत, तंत्र मंत्र, जादू-टोने घमंड इत्यादि का कारक ग्रह है। ज्योतिष में राहु-केतु दोनों छाया ग्रहों को ’पृथकतावादी’ ग्रहों की संज्ञा दी गई है।

वास्तु की दृष्टि से इस दिशा को ‘आसुरी दिशा’ अथवा भूत प्रेत की दिशा कहा गया है। इस दिशा में यदि दोष है तो जातक को कई परेशानियांे का सामना करना पड़ सकता है। जैसे- दादा या नाना से संबंध मधुर न रहना। ससुराल पक्ष से परेशानी पत्नी की हानि, नौकरी, अपनो से अलगाव, अहंकार उत्पन्न होना, झूठ बोलना जुए की लत, जादू टोने तथा ऊपरी हवा आदि का असर होना तथा संक्रामक रोगों का होना।

उपाय: चूंकि इस दिशा को ‘यम’ की दिशा भी कहा गया है अतः वास्तु की दृष्टि से इस स्थान को कभी भी खाली नहीं छोड़ना चाहिए। यदि र्नैत्य कोण में दोष रह गया है तो सरस्वती अथवा गणेश जी की यथाशक्ति पूजा करनी चाहिए। राहु-केतु के मंत्रों का जाप करना चाहियें सतनाजा (सात अनाज) तथा जल का दान करने से राहु-केतु ग्रहों की शांति होती है तथा इस दिशा में उत्पन्न दोषों का शमन होता है।

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