रमल भूत, भविष्य, वर्तमान, रूप, गुण, आयु तथा मृत्यू हर प्रकार के शुभाशुभ फल ज्ञात करने की प्राचीन विद्या है। भारतीय विद्वानों के मतानुसार ज्योतिष के अन्य अंगों की भांति ‘रमल’ विद्या भी मूलतः भारत की ही देन है जो कालांतर में अगले वंशों में फली फूली। यह कारण है कि ‘रमल’ के वर्तमान स्वरूप पर अरबी का जबरदस्त प्रभाव है। भारतीय मतानुसार ज्योतिष के 18 मुख्य प्रणेताओं में पवनाचार्य भी है। पवनाचार्य पवन जातक के प्रवर्तक एवं रमल विद्या के जनक कहे जाते हैं। ‘रायल’ शब्द को भी संस्कृत पुस्तक में इस प्रकार किया गया है। रमुऋीडार्थ धातोश्च तस्यादय विद्यानता। ओणा दित्वादलं प्राप्परमलेति प्रथां गत।। अर्थात् रयु क्रीडार्थक धातु में दल प्रत्यय लगाकर रमल शब्द बना है। रमल विद्या से संबंधित संस्कृत ग्रंथों में इस विद्या की उत्पत्ति के संबंध में कुछ कथाएं भी मिलती है। पाठकों की जानकारी के लिए हम उन्हें वहां उद्धृत कर रहे हैं। रमल की उत्पत्ति और प्रस्तार का गहरा संबंध है। इसका वर्णन यहां प्रस्तुत है। एक बार भगवान शिव एवं भगवती पार्वती कैलाश शिखर पर बैठे हुए आमोद-प्रमोद में मग्न थे।
तभी भगवती भवानी खेल ही खेल में अचानक ही अदृश्य हो गई। भगवती को इस प्रकार अंतध्र्यान हुआ देखकर शिवजी अत्यंत आश्चर्यचकित एवं दुःखी हुए वे उन्हें सहस्त्रों वर्षों तक ढूंढते रहे परंतु कोई सफलता नहीं मिली। यह देखकर भगवती के मानस पुत्र श्रीमहाभारत जो भगवान सदाशिव के ही एक अन्य रूप है, प्रकट हुए और उन्होंने भगवान शिव के समीप ही एक स्थान पर अपनी चार उंगलियों से चार बिंदु चिन्ह (ःः) बना दिये। शिवजी उन बिंदु चिन्ह का कोई अर्थ नहीं समझ सकें। तब महाभैरव ने उन बिंदु चिन्हों के समीप ही चार बिंदु चिन्ह (ःः) और बनाते हुए शिवजी से कहा- ‘‘भगवन् आप इन चिन्हों का आशय समझ गये और उन्हीं के आधार पर गणना करके वे यह ज्ञात करने में भी सफल हो गये कि उनकी प्रियतमा भगवती तारा सुंदरी के रूप में इस समय सातवें आकाश में बिहार कर रही है।
तत्पश्चात शिवजी ने सातवें आकाश में पहुंच कर भगवती को प्राप्त कर लिया। इस प्रकार चिन्ह अर्थात् रमल विद्या का प्रकटीकरण सर्वप्रथम यहां भैरव द्वारा हुआ तथा भगवान सदाशिव ने उससे सर्वप्रथम लाभ उठाया। तत्पश्चात् भगवान शिव के अनुग्रह से यह विद्या अन्य ऋषि-मुनियों को भी प्राप्त हुई। अनेक प्रकार के लटा-वृक्षों से समन्वित विविध भांति के पक्षियों के कलरव से गुंजायगान एवं अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से सुशोभित स्फटिक के सामान शुभ्र वर्ण कलश पर्वत के सुरम्य शिखर पर बैठी हुई भगवती पार्वती जी ने एक समय डाॅलो पूजित भगवान आशुतोष शंकर को प्रसन्न मुख-मुद्रा में देखकर इस प्रकार प्रार्थना की है ‘देवाधि देव आज आप मुझे किसी ऐसी विद्या के विषय में बताइये, जो भूत, भविष्य, एवं वर्तमान त्रिलोक का ज्ञान कराने वाली तथा प्रच्छक के सभी प्रश्नों का सरलता पूर्वक उत्तर देने वाली हों।’ भगवती पार्वतीजी के मुख से निकले हुए इन वचनों को सुनकर शिवजी को अत्यंत हर्ष हुआ। ठीक उसी समय उनके ललाट पर सुशोभित चंद्रमा से अमृत की चार बूंदंे स्रवित हुई।
उन बंूदों के नीचे गिरते ही अमृत प्राप्ति की लालसा से
(1) अग्नि
(2) वायु
(3) जल
(4) पृथ्वी ये चारों तत्व उनके चारों ओर घिर आए।
पूर्व दिशा में अग्नि, पश्चिम दिशा में जल, उत्तर दिशा में वायु तथा दक्षिण दिशा में पृथ्वी तत्त्व स्थित हुए। तदनन्तर अमृत-प्राप्ति दिशा में पृथ्वी तत्व स्थित हुए। तदनन्तर अमृत प्राप्ति की लालसा से ही अन्य ग्रह भी उन सुधा बिंदुओं के चारों ओर उपस्थित हुए। यह देखकर शिवजी ने पार्वती दुर्लभ जी से कहा - हे प्रिय। अब तुम मुनियों के भी परम दुर्लभ ज्ञान को सुनो। यह संपूर्ण ब्रह्मांड पांच तत्वों से निर्मित है।
(1) अग्नि
(2) वायु
(3) जल
(4) पृथ्वी
(5) आकाश।
इनमें प्रथम चार तत्व स्थूल है तथा पांचवा आकाश तत्व सूक्ष्म रूप से सर्वत्र विद्यमान रहता है। अतः उसे चारों तत्वों का धारक समझना चाहिए। अग्नि, वाुय, जल और पृथ्वी इन चारों तत्वों के प्रतीक ही ये चारों बिंदु है। इन्हीं को चतुरानन ब्रह्मा ‘‘समझना चाहिए, क्योंकि इन्हीं तत्वों के द्वारा संपूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है। जब ये बिंदू दो-दो खंडों में विभक्त होकर आद्व की संख्या ग्रहण कर लेते हैं। तब इन्हें ‘‘अष्टवसु’’ के नाम अभिहित किया जाता है। ये आठों बसु विश्व ब्रह्माण्ड के धारक माने जाते हैं। इन विन्दुओं के चार-चार खंडों में विभक्त हो जाने, अर्थात संख्या 16 हो जाने पर ये सोलह तिथियों तथा पूर्णिमा और अमावस्या इस प्रकार कुल सोलह तिथियां कही गई है। इन्हीं को चंद्रमा की ‘‘कला’ भी कहा जाता है। ये बिंदु परस्पर मिलकर विभिन्न प्रकार के रूप ग्रहण करते हैं। इनके किस रूप से किस तिथि और उनके स्वायी का बोध होता है समझना चाहिए। ये बिंदु परस्पर मिलकर विभिन्न प्रकार के रूप (शक्लों) को ग्रह करते हैं। इनके इन रूपों किसी तिथि और उनके स्वामी का बोध होता है। समस्त ग्रह राशियों और लग्न भी इन्हीं विन्दुओं से संबंधित है। पांसे (पाशक) की मदद से इन विन्दुओं के रहस्य को समझकर भूत, वर्तमान एवं भविष्य की घटनाओं को जानकारी एवं प्रश्नों के उत्तर जाने जा सकते हैं। रमल विद्या में पांसे का बड़ा महत्व है। ये पांसे अष्ट धातु का प्रयोग ग्रहों से सामंजस्य बनाने के लिए किया जाता है। इन धातुओं का ग्रहों से संबंध निम्नानुसार है। सूर्य-सोना, चंद्र चांदी, मंगल-लोहा, शनि-सीसा, बृहस्पति -पीतल, शुक्र-तांबा, बुध-जस्ता एवं पारा आकाशीय तत्व है। क्योंकि वह उड़नशील है। पांसों की संख्या आठ रहती है।
जो चार-चार के रूप में एक तार में पिरोए हुए रहते हंै। पांसों की पडिकाओं पर बिंदू अंकित रहते हैं। पहली पर 4, दूसरी पर 3, तीसरी पर 2, चैथी पर 5 बिंदु अंकित उत्कीर्ण रहते हैं। पांसों के फैंके जाने पर सोलह स्थितियां बनती है। जो गणना करने पर प्रश्न का उत्तर दर्शाती है। सही फलित हासिल करने के लिए पांसों में पास प्रतिष्ठा मंदिर मूर्ति की तरह वैदिक रीति से करना चाहिए। प्राण प्रतिष्ठा को उचित समय एवं रमल का प्रयोग करते समय मौमस का ख्याल रखना जरूरी है। वर्षा ऋतु में बादल हो तथा घटा विखरी हो उस समय का तारतम्य ग्रहों से सटीक नहीं बैठता है। जिससे उत्तर भी सटीक नहीं निकलता है। मूक प्रश्न की बजाय मुख प्रश्न का उत्तर सटीक निकलता है। उत्तर जानने के लिए मंत्रोच्चारण के पासे जब फेंके जाते हैं। तब उनको हथेली के बाग्गी (लहियान) स्थिति में रखा जाता है तथा निम्न सिद्ध मंत्र का उच्चारण करने के बाद पासे फेंके जाते हैं। मंत्र: ¬ नमो भगवति देवि कूष्याण्डिनि सर्व कार्य प्रसाधिनि सर्व निमित प्रकाशिनि एंहियहि त्वर त्वर वरं देहि लिहि लिहि मातडिगनि सत्यं भूहि भूहि स्वाहा।