श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन भाई-बहन, मित्र, छोटे-बडे़ भाई परस्पर एक दूसरे के हाथ में राखी बांध कर मेल-मिलाप तथा प्रेम का परिचय देते हैं। व्रती को चाहिए कि इस दिन प्रातः स्नानादि कर के वेदोक्त विधि से रक्षा बंधन, पितृ तर्पण और ऋषि पूजन करे। रक्षा के लिए किसी रंगीन धागे, या रेशम आदि की राखी बनाए। उसमें सरसों, सुवर्ण, केसर, चंदन, अक्षत और दूर्वा रख कर रंगीन सूत के डोरे में बांधें और अपने मकान के शुद्ध स्थान में कलशादि स्थापन कर के उसपर उसका यथाविधि पूजन करें। फिर उसे राजा, मंत्री या शिष्ट-शिष्यादि के दाहिने हाथ में: येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।। मंत्रोच्चारण करते हुए बांधें। इसके बांधने से वर्ष भर तक, पुत्र-पौत्रादि सहित, सब सुखी रहते हैं।
एक बार देव और दानवों में बारह वर्ष तक युद्ध हुआ। देवता विजयी नहीं हुए। तब देव गुरु बृहस्पति जी ने इंद्र को सम्मति दी कि युद्ध रोक देना चाहिए। युद्ध के बंद होते ही इंद्र की राज्य लक्ष्मी पर असुरों ने अधिकार कर लिया। इंद्राणी इस समाचार से बहुत दुःखी हो गयीं। तब इंद्राणी ने आत्मविश्वास के साथ कहा कि मैं कल इंद्र को रक्षा सूत्र बांधंूगी। उसके प्रभाव से इनकी रक्षा होगी और ये विजयी हांेगे तथा राज्य लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करेंगे। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को उन्होंने वैसा ही किया और इंद्र के साथ संपूर्ण देव विजयी हुए। रक्षा बंधन भाई-बहन का पवित्र पर्व है।
भारतवर्ष की पराधीनता के दिनों में जब हिंदू जाति एवं हिंदू धर्म घोर संकट के दौर से गुजर रहे थे, जब मुगल शासकों के अत्याचार, असभ्यता, बर्बरता, हिंसा, निर्दयता रूपी तलवार, हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का समूलोच्छेद करने के लिए तथा हमारी मां-बहनों की लाज एवं मर्यादा को लूटने के लिए, अहर्निश चल रही थी, तब ‘रक्षा बंधन’ ने ही हिंदू जाति को एक नयी प्रेरणा दी, एक नवीन मार्ग का संकेत दिया। वह राखी जो विगत समय में पति-पत्नी के प्रेम का एवं स्त्री के सौभाग्य रक्षा का प्रतीक थी, वही भाई-बहन के पवित्र निश्छल प्रेम बंधन के रूप में बदल गयी। ऐतिहासिक घटनाएं बतलाती हैं कि उस काल में राजपूत रमणी अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए, आवश्यकता पड़ने पर, राजपूतों के पास इस रक्षा सूत्र (राखी) को भेज कर सहायता की याचना किया करती थीं।
इसके बदले में वे वीर भी अपनी धर्म बहनों की रक्षा में हंसते-हंसते अपने प्राणों की बाजी लगा देते थे। राखी का यह निखरा हुआ रूप इतना निर्मल था कि जिसने निहारा-देखा वही मुग्ध हो गया। सूत के इन कच्चे धागों में वह शक्ति समाविष्ट हुई कि हाथों में बंधते ही निर्जीव में भी प्राणों का संचार हो जाता है। इतिहास में ऐसे एक भी कायर राजपूत का नाम नहीं मिलता, जिसने इन धागों की लज्जा की रक्षा में मर मिटने में किंचित मात्र भी संकोच का अनुभव किया हो। हिंदू तो हिंदू ही थे; अन्य भाई भी मर मिटे थे। वाला है। प्रत्येक हिंदू को इसे बड़े उत्साह से मनाना चाहिए। यह तो मानव मात्र को नवीनता का संदेश देता है। राखी का त्योहार प्रेम-सौहार्द्र का वह अटूट संबंध है, जो कभी खत्म नहीं होता।
जिन कन्याओं की शादियां होती हैं, वे संपूर्ण श्रावण माह मायके में ही रहती हैं और सखी-सहेलियों के साथ सुंदर-सुंदर गीत-भजन गाती हुई, झूला-झूलने, नृत्य क्रीड़ा आदि का भरपूर आनंद लेती हैं। ब्रज मंडल में देव मंदिरों में नित नवीन झूले (सोने-चांदी, फूल-पत्ती, फल आदि से, भगवान के लिए बनाये जाते हैं। वास्तव में तो भाई-भाई, स्वजन-कुटुंबों की एकता ही राज्य लक्ष्मी को लाती है और भ्रातृ विरोध ही राज्य लक्ष्मी को विदेशियों के हाथ में डाल देता है। यही शिक्षा रक्षा बंधन पर्व से प्राप्त होता है। जिस प्रकार भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुवादि के लिए भगवान ने सब कुछ सह कर भी उनकी रक्षा की, उसी प्रकार हर भाई को इस रक्षा सूत्र के बंधन को अपने जीवन में निभाना चाहिए, उसकी मर्यादा का पालन करना चाहिए। तभी रक्षा बंधन का त्योहार मूर्तिमान हो सकेगा।