पद्मा एकादशी का व्रत भाद्रपद मास शुक्लपक्ष एकादशी को किया जाता है। एक समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अकारण करूणावरूणालय पुराण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम कर पूछा, हे भगवन्। मैं भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष की एकादशी पद्मा का माहात्म्य श्रवण करना चाहता हूं। इसका क्या विधान है? किस देवता का पूजन किया जाता है? फल क्या है? कृपा करके बतलाइये। परमाराध्य ब्रजेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- हे नृपश्रेष्ठ धर्मराज। श्रम ताप विनाशक, सच्चिदानंद प्रभु के चरण कमलों में प्रीति बढ़ाने वाली तथा संपूर्ण मनोऽभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली पद्मा एकादशी के व्रत में दशमी तिथि को शुद्ध चित्त होकर सूर्यनारायण भगवान के अस्त होने से पहले ही दिन में एक बार सात्विक भोजन करंे। मन और इंद्रियों को वश में रखते हुए प्रभु नाम का स्मरण करता हुआ दिन व्यतीत करें तथा रात्रि में विश्राम करें। प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में जागकर नित्यनैमित्तिक कार्यों को पूर्णकर एकादशी व्रत का संकल्प करें तथा गणेश नवग्रहादि देवताओं व भगवान् श्रीकृष्ण व श्रीराधारानी का विधिवत् षोडशोपचार पूजन करें।
भगवान् के अलौकिक दिव्य लीला चरित्रों का कर्णेन्द्रिय पुटों से श्रवण व मंत्रों का जाप करें। रात्रि में जागरण व भगवत् संकीर्तन करें। द्वादशी में पुनः विधिपूर्वक पूजनादि कृत्यों के उपरांत पंच महायज्ञों को पूर्ण करते हुए ब्राह्मणों को यथाशक्ति सुस्वादिष्ट पकवान्नों व मिष्ठान्नों से तृप्त कर वस्त्र, द्रव्य, दक्षिणादि समर्पित कर आदर सहित विदा करें। तदुपरांत स्वयं बंधु-बांधवों के साथ भगवान् का प्रसाद ग्रहण करें। राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें परम कल्याणकारी, आनंदप्रदाता तथा आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूं; जिसे ब्रह्माजी ने महात्मा नारद से कहा था। नारदजी ने पूछा - चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है। मैं भगवान् विष्णु की आराधना के लिये आपके मुख से यह सुनना चाहता हूं कि भाद्रपदमास के शुक्ल पक्ष में कौन-सी एकादशी होती है? ब्रह्माजी ने कहा - मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे। भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी -‘पद्मा’ के नाम से विख्यात है। उस दिन भगवान् हृषीकेश की पूजा होती है। यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है। सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे प्रजा का अपने ओरस पुत्रों की भांति धर्मपूर्वक पालन किया करते थे।
उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिंताएं नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था। उनकी प्रजा निर्भय तथा धन-धान्य से समृद्ध थी। महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था। उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने-अपने धर्म में लगे रहते थे। मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देने वाली थी। उनके राज्य करते समय प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था। एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी; तब संपूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा- प्रजा बोली - नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिये। पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जलको ‘नारा’ कहा है; वह नारा ही भगवान् का अयन - निवास स्थान है; इसलिये वे नारायण कहलाते हैं। नारायणस्वरूप भगवान् विष्णु सर्वत्र व्यापक रूप में विराजमान हैं। वे ही मेघस्वरूप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है।
हे नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है; अतः ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योग क्षेम का निर्वाह हो। राजा ने कहा - आपलोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है। अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से जगत् जीवन धारण करता है। लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है; किंतु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूं तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता। फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिये पूर्ण प्रयत्न करूंगा। ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने-गिने व्यक्तियों को साथ लेकर विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये। वहां जाकर मुख्य-मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे। एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अड्गिरा ऋषि का दर्शन हुआ। उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया।
मुनिने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशल पूछी। मुनिने राजा को आसन और अघ्र्य दिया। उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो उन्होंने इनके आगमन का कारण पूछा। तब राजा ने कहा - भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था। फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया। इसका क्या कारण है, इस बात को मैं नहीं जानता। ऋषि बोले - राजन्, यह सब युगों में उत्तम सत्ययुग है। इसमें सब लोग परमात्मा के चिंतन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है। इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं। किंतु महाराज ! तुम्हारे राज्य में यह शूद्र तपस्या करता है; इसी कारण मेध पानी नहीं बरसाते। तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो; जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय। राजा ने कहा - मुनिवर ! एक तो यह तपस्या में लगा है, दूसरे निरपराध है; अतः मैं इसका अनिष्ट नहीं करूंगा।
आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये। ऋषि बोले - राजन्, यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्र्रत करो। भाद्रपदमास के शुक्ल पक्ष में ‘पद्मा, नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी। नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो। ऋषि का यह वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये। उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजाओं के साथ भादों के शुक्ल पक्ष की ‘पद्मा’ एकादशी का व्रत किया। इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे। पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी-भरी खेती से सुशोभित होने लगी। उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - राजन्! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये।
‘पद्मा’ एकादशी के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढककर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिये, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिये। दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे- नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक।। अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव। भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ।। बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करने वाले भगवान् गोविन्द ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है; मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें। आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले तथा सुखदायक हैं। राजन्, इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।