प्रश्न: ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्र शब्द का प्रयोग बहुत होता है। आखिर यह नक्षत्र क्या है?
उत्तर: प्राचीन ग्रंथों में नक्षत्र ज्ञान को ही ज्योतिष शास्त्र कहा गया है। जीव जिस नक्षत्र में जन्म लेता है, उसमें उसी नक्षत्र के तत्वों की प्रधानता होती है। जिस तरह भचक्र को 12 भागों में विभक्त कर प्रत्येक भाग को राशि कहा गया, उसी तरह जब भचक्र को 27 भागों में बांटा गया तो प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहा गया।
प्रश्न: जब नक्षत्र और राशियां भचक्र के ही भाग हैं, तो नक्षत्र को राशि से अलग क्यों माना जाता है?
उत्तर: नक्षत्र को राशि से अलग नहीं माना गया बल्कि यह राशि का ही भाग है। राशि का प्रत्येक भाग 30 अंशों का होता है और नक्षत्र का प्रत्येक भाग 13व्म्20’ का होता है। एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। फलित ज्योतिष की सूक्ष्मता तक पहुंचने के लिए राशि को आगे विभक्त करना ही हमारे महर्षियों ने उचित समझा ताकि फल कथन की गहराइयों तक पहुंचा जा सके।
प्रश्न: क्या राशियों की तरह इन 27 नक्षत्रों के भी स्वामी ग्रह हैं?
उत्तर: हां, राशियों की तरह इन नक्षत्रों के भी स्वामी ग्रह हैं जो इस प्रकार हैं- अश्वनी, मघा और मूल नक्षत्रों का स्वामी केतु है। भरण् ाी, पूर्व फाल्गुनी और पूर्व आषाढ़ का शुक्र, कृŸिाका, उŸारा फाल्गुनी और उŸारा अषाढ़ का सूर्य, रोहिणी, हस्त और श्रवण का चंद्र, मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठा का मंगल, आद्र्रा, स्वाति और शतभिषा का राहु, पुनर्वसु, विशाखा तथा पूर्व भाद्रपद का गुरु, पुष्य, अनुराधा, उŸारा भाद्रपद का शनि और अश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती का स्वामी बुध है।
प्रश्न: नक्षत्र के स्वामी किस आधार पर निर्धारित किए गए हैं?
उत्तर: जिस तरह राशियों के स्वामी निर्धारित किए गए उसी तरह नक्षत्रों के स्वामियों का भी निर्धारण किया गया। नक्षत्रों से निकलने वाली ब्रह्मांड किरणों और चुंबकीय प्रभाव के आधार पर ही नक्षत्र के स्वामी निर्धारित किए गए हैं।
प्रश्न: क्या नक्षत्रों को आगे भी विभाजित किया गया है?
उत्तर: जिस तरह एक राशि को सवा दो नक्षत्रों में विभाजित किया गया है, उसी तरह एक नक्षत्र को भी चार भागों में विभक्त कर उसके चार चरण या पाद माने गए हैं। इस तरह पूर्ण भचक्र के 108 भाग किए गए। इसीलिए लगभग सभी धर्मों में 108 मनकों की माला जप के लिए बनाई जाती है। एक माला का जप ब्रह्मांड का एक चक्र लगाने के बराबर माना गया है।
प्रश्न: क्या इन नक्षत्रों के चरणों के भी भिन्न-भिन्न स्वामी हैं?
उत्तर: हां, नक्षत्रों के चरणों के भी अलग-अलग स्वामी हैं। पूर्ण भचक्र में 27 नक्षत्र और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरणों के आधार पर 108 चरण होते हैं। एक से बारह तक के चरणों के स्वामी क्रमशः मंगल, शुक्र, बुध, चंद्र, सूर्य, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, रवि, शनि और राहु हैं। इस प्रकार इस क्रम से 13 से 24, 25 से 36, 37 से 48, 49 से 60, 61 से 72, 73 से 84, 85 से 96 और 97 से 108 चरणों के स्वामी हैं।
प्रश्न: नक्षत्रों के नाम किस आधार पर रखे गए हैं?
उत्तर: जिस तरह राशियों का नामकरण किया गया उसी तरह नक्षत्रों का भी नामकरण किया गया। भचक्र को 12 भागों में विभक्त कर प्रत्येक भाग में जो तारों के समूह से आकृति बनी उसी के आधार पर ही राशि का नामकरण किया गया जैसे प्रथम 30 अंशों में सितारों के समूह से ‘मेढ़े’ की आकृति बनी। इस आकृति के कारण ही इस भाग का नाम ‘मेष’ रखा गया जो संस्कृति का एक शब्द है। ठीक इसी तरह 13 अंश 20 कला के समूहित तारों की आकृति की तरह होने के कारण उसका नाम ‘अश्विनी नक्षत्र’ रखा गया।
प्रश्न: किस जातक पर किस नक्षत्र का प्रभाव है या किस का क्या नक्षत्र है यह कैसे जानें?
उत्तर: वैसे तो सभी नक्षत्रों का जातक के जीवन पर प्रभाव रहता है, लेकिन इनमें से किसी एक नक्षत्र का विशेष प्रभाव रहता है। जिस तरह जातक की जन्म कुंडली में राशि निकाली जाती है, उसी तरह नक्षत्र भी। अर्थात कुंडली की जिस राशि में चंद्र रहता है वही जातक की राशि मानी जाती है। चंद्र राशि के जिन अंशों पर होता है, उन अंशों पर जो नक्षत्र रहता है वही जातक का जन्म नक्षत्र माना जाता है। अंशों के आधार ही नक्षत्र का चरण निर्धारित होता है। इसी नक्षत्र और चरण के आधार पर जातक के स्वभाव आदि को जाना जाता है।
प्रश्न: नक्षत्र ज्योतिष में किस तरह से सहायता करते हंै?
उत्तर: ज्योतिष का आधार पंचांग है। पंचांग अर्थात पांच अंग। इनमें से एक अंग नक्षत्र है। ज्योतिष में नामकरण से लेकर भविष्य कथन तक नक्षत्र सहायक होते हंै। इसके अतिरिक्त मुहूर्तों की शुभाशुभता नक्षत्रों पर ही निर्भर करती है।
प्रश्न: नामकरण करने में नक्षत्र कैसे सहायक होते हैं?
उत्तर: प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण वर्णमाला के किसी अक्षर का होता है। जातक जिस नक्षत्र और नक्षत्र के जिस चरण में जन्म लेता है उस चरण व नक्षत्र पर जो वर्णमाला का अक्षर आता है उसी अक्षर पर जातक का नामकरण किया जाता है।
प्रश्न: क्या नक्षत्र का संबंध चंद्र ग्रह से ही होता है या अन्य ग्रहों और भावों से भी होता है?
उत्तर: नक्षत्र का संबंध चंद्र ग्रह से तो विशेष रूप से होता ही है क्योंकि शुभाशुभ कार्यों के लिए चंद्र नक्षत्र पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है और दशा साधन में भी चंद्र नक्षत्र की ही सहायता ली जाती है। लेकिन इसके अतिरिक्त प्रत्येक ग्रह और भाव का भी नक्षत्रों से संबंध होता है। हर ग्रह किसी न किसी राशि में होता है। जितने अंशों पर कोई ग्रह किसी राशि में स्थित होता है उन अंशों पर कोई नक्षत्र और उसका चरण भी होता है। इसलिए ग्रह नक्षत्र के अनुसार ही अपना प्रभाव जातक के जीवन पर डालता है। इस तरह लग्न अर्थात प्रथम भाव से लेकर द्वादश तक सभी में किसी न किसी नक्षत्र और नक्षत्र के चरण का उदय जातक के जन्म के समय होता है। उसी नक्षत्र के अनुसार जातक को उन भावों के फल प्राप्त होते हैं।
प्रश्न: किसी जातक के स्वभाव आदि को जानने कि लिए लग्न नक्षत्र देखना चाहिए या चंद्र?
उत्तर: जातक का स्वभाव उसके जन्म नक्षत्र पर विशेष रूप से निर्भर करता है। चंद्र नक्षत्र और लग्न नक्षत्र दोनों का विश्लेषण ही जातक के स्वभाव को जानने के लिए आवश्यक है। फिर भी लग्न नक्षत्र को अधिक महत्व देना उचित है क्योंकि लग्न चंद्र से अधिक गतिशील है। दो घंटे में लग्न बदल जाता है और एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं जो 9 चरणों में विभक्त होते हैं अर्थात एक राशि में 9 चरण हुए। दो घंटों में 9 चरण। प्रत्येक चरण लगभग 13 मिनट 20 सेकेंड में क्षितिज पर बदल जाता है जबकि चंद्र नक्षत्र चरण लगभग 6 घंटे में बदलता है। इसलिए जातक की शारीरिक रचना और स्वभाव का विश्लेषण लग्न के आधार पर करना उचित है।
प्रश्न: जातक के जीवन से संबंधित भिन्न-भिन्न पहलुओं को नक्षत्रों के माध्यम से कैसे जानें?
उत्तर: जातक के जीवन के जिस पहलू को जानना हो उसका संबंध जिस भाव से हो, सर्वप्रथम उसे जान लेना आवश्यक है। प्रत्येक भाव में जो नक्षत्र जन्म समय उदित होता है, जातक को उस भाव का फल उस नक्षत्र के अनुसार ही मिलता है। फिर उस भाव में बैठे ग्रह का फल भी उसी के अनुसार प्राप्त होता है। यदि ग्रह नक्षत्र भाव नक्षत्र एक ही हो तो फल अति उŸाम होता है, भिन्न होने पर फल में न्यूनता आ जाती है। इस तरह यदि एक या एक से अधिक ग्रह एक ही भाव में एक ही नक्षत्र पर बैठे हों, तो जातक को उस भाव का उŸाम फल प्राप्त होता है। इसमें भी यह देखना आवश्यक है कि भाव में स्थित ग्रह शुभ कितने हैं और अशुभ कितने क्योंकि नक्षत्र के अनुसार ग्रहों की शुभाशुभता बदल जाती है। यदि शुभ ग्रहों का पलड़ा भारी होगा तो फल अति उŸाम होगा।
प्रश्न: यदि किसी जातक के व्यवसाय को जानना हो तो कैसे जानें?
उत्तर: व्यवसाय का संबंध दशम भाव से होता है। इस भाव में जो नक्षत्र जन्म के समय उदित होता है जातक का व्यवसाय उस नक्षत्र और नक्षत्र चरण के स्वामियों पर निर्भर करता है। यदि दशम भाव में उदित नक्षत्र व नक्षत्र चरण स्वामियों का संबंध लग्न में उदित नक्षत्र और नक्षत्र स्वामी से मैत्री संबंध हो, तो जातक व्यवसाय में उच्च स्थान प्राप्त करेगा अन्यथा न्यून स्थान। इसके अतिरिक्त भाव में बैठे ग्रह, ग्रह के नक्षत्र एवं नक्षत्र चरण के स्वामियों का संबंध भी मैत्री होना चाहिए। यदि कोई ग्रह दशम भाव में स्थित नहीं है, तो दशम भाव पर पड़ने वाली ग्रहों की दृष्टि का मूल्यांकन करना चाहिए। यदि दशम भाव में कोई ग्रह स्थित नहीं हो और न ही दशम भाव पर किसी ग्रह की दृष्टि हो, तो व्यवसाय दशम भाव में उदित राशि, नक्षत्र व नक्षत्र चरण के स्वामियों के अनुसार ही होगा।
प्रश्न: क्या वर-वधू मिलान में भी नक्षत्र सहायक है?
उत्तर: वर-वधू मिलान में तो नक्षत्र विशेष रूप से सहायक है। अष्टकूट मिलान में तारा, योनि, गण और नाड़ी मिलान नक्षत्र पर ही आधारित होता है। इनके कुल अंक 21 होते हंै जबकि कुल अष्टकूट 36 अंकों का होता है। वैसे तो कुंडली मिलान में प्रत्येक कूट अपना विशेष महत्व रखता है लेकिन योनि, गण और नाड़ी बहुत ही महत्वपूर्ण कूट होते हैं जिनका मिलना अति आवश्यक है। यह मिलान नक्षत्र पर ही आधारित है। इसलिए वर-वधू मिलान में नक्षत्र विशेष महत्वपूर्ण व सहायक होते हैं।
प्रश्न: एक ही राशि या लग्न में जन्मे जातकों के स्वभाव आदि में अंतर को नक्षत्र द्वारा कैसे जाना जाए? उदाहरण सहित समझाएं।
उत्तर: एक लग्न या राशि में जन्मे जातकों के स्वभाव आदि में अंतर राशि के अंशों पर निर्भर करता है क्योंकि उन्हीं अंशों पर कोई नक्षत्र और नक्षत्र चरण का प्रभाव रहता है। जैसे मान लें कि जातक का जन्म कन्या राशि के 15 अंशों पर हुआ। 15 अंश पर हस्त नक्षत्र का दूसरा चरण होता है। हस्त नक्षत्र कन्या राशि के 10 अंशों से शुरू होकर उसके 23 अंश 20 कला तक रहता है। हस्त नक्षत्र के चारों ग्रह स्वामी क्रमशः मंगल, शुक्र, बुध एवं चंद्र हैं। अर्थात हस्त नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्मे जातक पर राशि स्वामी बुध, नक्षत्र स्वामी चंद्र और चरण स्वामी मंगल का, द्वितीय चरण में जन्मे जातक पर राशि स्वामी बुध, नक्षत्र स्वामी चंद्र और चरण स्वामी शुक्र का, तृतीय चरण में जन्मे जातक पर राशि स्वामी बुध, नक्षत्र स्वामी चंद्र और चरण स्वामी बुध का और चतुर्थ चरण में जन्मे जातक पर बुध, चंद्र और चरण स्वामी चंद्र का प्रभाव रहेगा। इस तरह प्रत्येक नक्षत्र के प्रत्येक चरण पर जातक के स्वभाव आदि में अंतर आ जाता है।
प्रश्न: कुछ ज्योतिर्विद 28 नक्षत्रों की बात करते हैं जबकि विभाजन के हिसाब से नक्षत्र 27 ही होते हैं। ऐसा क्यों?
उत्तर: नक्षत्र के विभाजन के अनुसार तो नक्षत्र 27 ही हैं। जन्म कुंडली विश्लेषण और फल कथन में 27 नक्षत्रों का ही प्रयोग होता है, लेकिन विभिन्न प्रकार के मुहूर्तों में 28 नक्षत्रों को लिया जाता है। यह 28वां नक्षत्र अभिजित है जो उŸारा आषाढ़ नक्षत्र के चतुर्थ चरण और श्रवण नक्षत्र के प्रथम चरण की 53 कला 20 विकला तक रहता है। दूसरे शब्दों में मकर राशि के 6 अंश 40 कला से 10 अंश 53 कला और 20 विकला तक अभिजित नक्षत्र माना गया है। अभिजित नक्षत्र का शुभ मुहूर्त निकालने में विशेष महत्व है। नामकरण में भी इस नक्षत्र के चार चरण बना कर प्रत्येक चरण को वर्णमाला के अक्षर दिए गए हैं।
प्रश्न: गंडमूल नक्षत्र से क्या अभिप्राय है? ये कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर: वे नक्षत्र जिनका प्रभाव जातक के जीवन पर अनिष्टकारी होता है गंडमूल नक्षत्र माने जाते हैं। विद्वानों का मानना है कि गंडमूल नक्षत्रों में जन्म लेने वाला जातक अपने माता पिता के लिए कष्टकारी होता है। ये नक्षत्र संख्या में छह हैं, जो अश्विनी, मघा, मूल, अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नामों से जाने जाते हैं। इन नक्षत्रों का फल चरणानुसार एवं जन्म समयानुसार भिन्न-भिन्न होता है। जैसेगंडमूल नक्षत्र का जातक यदि दिन में जन्मा हो, तो पिता के लिए, रात्रि में जन्मा हो, तो माता के लिए और प्रातः या सायंकाल में जन्मा हो, तो अपने लिए अनिष्टकारी होता है। बड़े होकर गंडमूल में जन्मे बच्चे भाग्यशाली, उच्चपदों पर कार्यरत, प्रतिष्ठित एवं धनवान होते देखे गए हैं।
प्रश्न: मुहूर्त निकालने में नक्षत्रों का क्या महत्व है?
उत्तर: लगभग सभी मुहूर्त नक्षत्रों पर ही आधारित हैं। मुहूर्त के लिए पांच अंग होते हैं जिनके अनुसार शुभ मुहूर्त बनाए जाते हैं। नक्षत्र उन पांच अंगों में एक है और मुख्य भी। इन्हीं पांच अंगों के योग से मुहूर्त बनाए जाते हैं। किसी में दो, किसी में तीन, किसी में चार और किसी में पांच अंगों का योग कर शुभ मुहूर्त बनाया जाता है।
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