मुहूर्त : महत्व एवं उपयोगिता
मुहूर्त : महत्व एवं उपयोगिता

मुहूर्त : महत्व एवं उपयोगिता  

व्यूस : 7967 | नवेम्बर 2009
मुहूर्त: महत्व एवं उपयोगिता डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव एक जिज्ञासा अक्सर उठा करती है कि मुहूर्त क्या है, या कि मुहूर्त किसे कहते हैं। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित है कि किसी कार्य के सफल संपादन के निमित्त ज्योतिषीय गणना पर निर्धारित समय मुहूर्त कहलाता है। भारतीय ज्योतिष में मुहूर्त का सर्वाधिक महत्व है। मुहूर्त की अपनी वैज्ञानिकता, अपना महत्व है। इसका निर्धारण यदि ज्योतिषीय सिद्धांतों और ब्रह्मांड में विचरण कर रहे ग्रहों की स्थितियों की गणना के आधार पर किया जाए तो कार्य की सफलता की संभावना कई गुणा बढ़ जाती है। गर्भ-धारण से अंतिम संस्कार तक हर संस्कार में मुहूर्त की भूमिका अहम होती है। आज के वैज्ञानिक युग में चिकित्सा विज्ञान में मुहूर्त अत्यंत शुभ, सार्थक, लाभकारी व कल्याणकारी सिद्ध हो रहे हैं। अभिप्राय: जीवन को सुखमय बनाने हेतु सामान्यतया हर सनातन धर्मावलंबी धार्मिक अनुष्ठान, त्योहार, सभी संस्कार, गृहारंभ तथा गृहप्रवेश, यात्रा, व्यापारिक कार्य आदि के साथ-साथ अपना हर शुभ कार्य मुहूर्त के अनुरूप करता है। इस तरह जीवन को सुखमय बनाना मुहूर्त का अभिप्राय है। मुहूर्त के महत्व को यहां प्रस्तुत एक उदाहरण से समझा जा सकता है। गेहूं सूर्य के स्वाति नक्षत्र में आने पर बोया जाता है। इसकी बोआई यदि सूर्य के तुला राशि में 6 अंश 40 कला से 20 अंश के मध्य होने पर की जाए तो फसल अच्छी होगी। यह समय हर वर्ष कार्तिक मास में पड़ता है। कहा भी गया है - ’चना चित्तरा चैगुना, स्वाती गेहूं होय।’ किसान गांव के किसी ज्योतिषी या पंडित से इस मुहूर्त का पता कर गेहूं की बोआई करते हैं। इसके विपरीत यदि किसी अन्य समय में इसकी बोआई हो, तो फसल अच्छी नहीं होगी। अशुभ मुहूर्त में किए गए कार्य का परिणाम अशुभ होता है। द्रष्टव्य है कि भारत को स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को वृष लग्न में मिली थी। उस समय वृष लग्न में राहु था और केंद्र स्थान खाली थे। सारे ग्रह कालसर्प योग में थे। ज्योतिष में यह योग बड़ा अशुभ माना जाता है। इसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुई राष्ट्रपिता की हत्या और अन्य घटनाओं से सभी परिचित हैं। मुहूर्त में तिथि व वार के बाद नक्षत्र का विशेष महत्व है। सौरमंडल में असंख्य छोटे-बड़े तारे बिखरे हुए हैं, जिनके अपने-अपने समूह हैं। इन समूहों को नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र मुख्यतः सत्ताईस हैं किंतु उत्तराषाढ़ा के चतुर्थ चरण और श्रवण नक्षत्र के मान के पन्द्रहवें भाग (4 घटियां) के समय को अभिजित नक्षत्र की संज्ञा दी गई है, जिससे इनकी संख्या अट्ठाईस मानी गई है। अभिजित नक्षत्र सभी कार्यों हेतु शुभ माना गया है। अभिजित एक अति शुभ मुहूर्त है। प्रत्येक दिन का मध्याह्न भाग अभिजित मुहूर्त कहलाता है, जो मध्याह्न से पहले और बाद में 2 घड़ी अर्थात 48 मिनट का होता है। दिनमान के आधे समय को स्थानीय सूर्योदय के समय में जोड़ दें तो मध्याह्न काल स्पष्ट हो जाता है, जिसमें 24 मिनट घटाने और 24 मिनट जोड़ने पर अभिजित का प्रारंभ काल और समाप्ति काल निकल आता है। अभिजित काल मंे लगभग सभी दोषों के निवारण की अद्भुत शक्ति है। जब मुंडनादि शुभकार्यों के लिए शुद्ध लग्न न मिल रहा हो, तो अभिजित मुहूर्त में शुभकार्य हो सकते हैं। अभिजित के बाद कृत्तिका अन्य सभी मुहूर्तों से अधिक शुभ मुहूर्त है। यह एक स्त्री संज्ञक मुहूर्त है जिसका संबंध अग्नि से है। इसे सात सिरों वाला नक्षत्र भी कहा गया है। चैघड़िया विचार: चैघड़िया मुहूर्त में शुभ, चर, अमृत और लाभ के चैघड़िया शुभ और उद्वेग, रोग तथा काल के चैघड़िया अशुभ होते हैं। अशुभ चैघड़िया मुहूर्तों का यत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए। दिनमान को (सूर्योदय से सूर्यास्त के समय को) 8 से भाग देने पर प्राप्त होने वाला समय दिन की एक चैघड़िया का समय होता है। इसी प्रकार रात्रिमान (सूर्यास्त से सूर्योदय) के समय को 8 से विभाजित करने पर प्राप्त समय रात्रि के एक चैघड़िया का समय होता है। चैघड़िया मुहूर्तों के स्वामी क्रमशः उद्वेग के सूर्य, चर के शुक्र, लाभ के बुध, अमृत के चंद्र, काल के शनि, शुभ के गुरु और रोग के स्वामी मंगल हैं। अतः किसी दिशा की यात्रा में संबद्ध चैघड़ियों के स्वामियों का विचार भी कर लेना चाहिए। दिशाशूल में वर्जित दिशा की यात्रा उक्त चैघड़ियों में नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के लिए अमृत का चैघड़िया (शुभ) होने पर भी पूर्व दिशा की यात्रा न करें क्योंकि अमृत का स्वामी चंद्र है और चंद्रवार को पूर्व में दिशाशूल होता है। दिशाशूल विवेचन पूर्व दिशा - सोमवार, शनिवार दक्षिण दिशा- गुरुवार पश्चिम दिशा- रविवार, शुक्रवार उत्तर दिशा- बुधवार, मंगलवार दिशाओं के सामने दिए गए वारों में उक्त दिशा में दिशाशूल होता है अतः उस दिन उस दिशा में यात्रा न करें। रविवार, गुरुवार और शुक्रवार के दोष रात्रि में तथा सोमवार, मंगलवार और शनिवार के दोष दिन में प्रभावी नहीं होते हैं। बुधवार हर प्रकार से त्याज्य है। अत्यावश्यक होने पर रविवार को पान या घी खाकर, सोमवार को दर्पण देखकर या दूध पीकर, मंगल को गुड़ खाकर, बुधवार को हरी धनिया या तिल खाकर, बृहस्पतिवार को जीरा या दही खाकर, शुक्रवार को दही या दूध पीकर और शनिवार को अदरक या उड़द खाकर प्रस्थान किया जा सकता है। यदि एक ही दिन में गंतव्य स्थान पर पहुंचना और फिर वापस आना निश्चित हो तो दिशाशूल पर विचार की आवश्यकता नहीं है। गुरु और शुक्र के अस्त समकाल में वर्जित कर्म: गुरु और शुक्र के अस्त होने पर गृहारंभ तथा गृहप्रवेश, कुआं-तालाब आदि का निर्माण, व्रतारंभ, व्रतोद्यापन, नामकरण, मुंडन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, सगाई-विवाह, वधू प्रवेश, गोदान, देव प्रतिष्ठा (मूर्ति स्थापना), चातुर्मास्य प्रयोग, अग्निहोत्र (यज्ञ) प्रारंभ, सकाम अनुष्ठान, यात्रा, दीक्षा, संन्यास ग्रहण आदि शुभ कार्य शास्त्र वचनानुसार निषिद्ध एवं त्याज्य माने गए हंै। व्यक्तिगत कर्मों के अतिरिक्त राजकीय कार्यों में भी मुहूर्त लाभकारी सिद्ध होते हैं। उदाहरणार्थ शपथ ग्रहण, शांति प्रस्ताव आदि भी शुभ मुहूर्त में ही करने चाहिए। दैनिक कार्यों में भी मुहूर्त के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आज मानव जाति विभिन्न रोगों तथा दुखों से ग्रस्त है। अनुकूल मुहूर्तों के प्रयोग से इन दुखों से मुक्ति संभव है। मुहूर्त के प्रयोग से पिछले कुकर्मों के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। जन्मकुंडली द्वारा विभिन्न रोगों की जांच एवं आकलन अर्थात् डायग्नाॅसिस किया जा सकता है। आवश्यकता है सूक्ष्म विश्लेषण कर शुभ मूहूर्त के निर्धारण व सटीक प्रयोग की। इस तरह मानव जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाने में मुहूर्त की भूमिका अहम होती है। किसी कार्य की सफलता उपयुक्त और सुविवेचित मुहूर्त पर निर्भर करती है। इसलिए शास्त्रों तथा ऋषि मुनियों के निर्देशानसुार हर कार्य शुभ मुहूर्त में ही करना चाहिए।



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