मारक ग्रह और उसका प्रभाव हरिश्चंद्र आर्य लग्न कुंडली के द्वितीय और सप्तम स्थान मारक स्थान है। यह इसलिए कि तृतीय भाव और अष्टम भाव आयु के भाव हैं और उनसे द्वादश भाव क्रमशः द्वितीय और सप्तम भाव मारक कहे गये हैं। इनमें द्वितीय भाव सप्तम भाव की अपेक्षा प्रबल मारक होता है। अतः द्वितीयेश और सप्तमेश, द्वितीय और सप्तम भाव में स्थित पाप ग्रह, द्वितीयेश और सप्तमेश के साथ स्थित पाप ग्रह ये सब मारक ग्रह होते हैं। इन्हीं ग्रहों की दशान्तर्दशा में जातक-विशेष के मरण की संभावना रहती है परंतु उसी हालत में जबकि उसका आयुखंड चल रहा हो। तीन तरह के आयु खंड कहे गये हैं- अल्पायु योग, मध्यायु योग और दीर्घायु योग। अतः पहले जातक की आयु का निर्णय करना आवश्यक है। इसका निर्णय अंशायु, पिंडायु एवं निसर्गायु विधि द्वारा करने का नियम है। इसके अतिरिक्त जातक की कुंडली में स्थित ग्रह योगों के आधार पर भी आयु का आकलन किया जाता है। मारक ग्रहों की अंतर्दशा हो परंतु, आयुखंड प्राप्त नहीं हो तो वास्तविक मरण न होकर रोगादि विशेष कष्ट ही प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत जातक का आयुखंड चल रहा हो और उपरोक्त मारक ग्रहा की दशांतर्दशा प्राप्त नहीं हो तो केवल द्वादशेश के संबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा में, अष्टमेश की दशा में या केवल पापी ग्रह की दशा में मरण होता है। इस संबंध में शनि की भूमिका बड़ी ही महत्वपूर्ण है। शनि पापफल हो और उसका मारकेश ग्रह से संबंध होता हो तो वह सब मारक ग्रहों को हटाकर स्वयं मारक होता है, इसमें संदेह नहीं है। अल्पायु योग 32 वर्ष तक, मध्यायु योग, 64 वर्ष तक और दीर्धायु योग 100 वर्ष तक कहा गया है। अल्पायु योग में जन्में जातक को विपत्ति तारा में, मध्यायु योग में प्रत्यरितारा में तथा दीघार्य ु यागे म ंे वध तारा में मृत्यु का भय कहना चाहिए। लग्न से 22वां द्रेष्कोणांश, वैनाशिक नक्षत्र का स्वामी और 3, 5, 7 ताराओं के स्वामी भी मारक होते हैं। साथ ही चंद्रमा की अधिष्ठित राशि के द्वितीय और द्वादश भाव के स्वामी अगर पापी ग्रह हों तो वे भी मारक होते हैं। मारकेश की दशा में त्रिकेश की अंतर्दशा में भी मरण की संभावना रहती है।