मंगलीक दोष
मंगलीक दोष

मंगलीक दोष  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 13256 | अकतूबर 2010

प्रश्नः मंगलीक दोष भंग होने के क्या नियम हैं? जिनका मंगलीक दोष भंग हो रहा है क्या उनको गैर मंगलीक मानना चाहिए? और उनको मंगलीक या गैर मंगलीक किस प्रकार के जातकों से विवाह करना चाहिये और क्यो? प्राचीन ग्रंथों जैसे बृहत्पाराशरहोरा शास्त्र व भावदीपिका आदि के अनुसार जातक या जातिका की जन्मपत्री में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश में मंगल स्थित होने पर मंगलीक दोष होता है। यह नियम उत्तर भारत में अधिक मान्य है।

मानसागरी, अगस्त्य संहिता, जातक पारिजात के अनुसार लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश मंगल होने पर जन्मकुंडली मंगलीक मानी जाती है एवं यह नियम दक्षिण भारत में अधिक माना जाता है। अर्थात यदि जन्मपत्री के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश में यदि मंगल विराजमान हो तब वह कुंडली मंगलीक दोष वाली मानी जाएगी। मंगलीक दोष भंग योग ‘‘अजे लग्ने व्यये चापे पाताले वृश्चिके स्थिते। द्यूने मीने घटे रन्ध्रे भौम दोषो न विद्यते।।’’

Û यदि मंगल लग्न में मेष अथवा मकर राशि, द्वादश में धनु राशि, चतुर्थ में वृश्चिक राशि, सप्तम में वृष अथवा मकर राशि तथा अष्टम में कुंभ अथवा मीन राशि में स्थित हो तो मंगल दोष नहीं लगता। चतुः सप्तमे भौमे मेष कर्क निग्रहः। कुज दोषो न विद्यते।।’’

Û चतुर्थ, सप्तम अथवा द्वादश में मेष या कर्क का मंगल हो तो मंगलीक दोष नहीं होता है। ‘‘गुण बाहुल्ये भौम दोषो न विद्यते।’’

Û यदि गुण अधिक अर्थात् 27 या अधिक हों तो मंगलीक दोष नहीं लगता है। ‘‘व्यये च कुज दोषः कन्या मिथुन योर विना। द्वादशे भौम दोषस्तु वृष तौलिक योर विना।।’

’ Û यदि द्वादश में मंगल बुध तथा शुक्र की राशियों में हो, तो मंगलीक दोष नहीं होता है। ‘‘शनि भौमोऽथवा कश्चित् पापोवा तादृशो भवेत्। तेष्वेव भवनेष्वेव भौम दोष विनाशकृत।।’’

Û यदि कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या बारहवे भावों में मंगल तथा उन्हीं स्थानों पर दूसरे की कुंडली में प्रबल पाप ग्रह (राहु या शनि) हों तो मंगल दोष नहीं होता। ‘‘सबले गुरौ भृगो वा लग्ने धूनेऽथवाभौमे Û यदि बली गुरु और शुक्र स्वराशि या उच्च हो कर लग्न या सप्तम भाव में हो तो, मंगल का दोष नहीं होता। वक्रेनीचारि गृहस्थे वाऽस्तेऽपिन न कुज दोषः

Û यदि मंगल वक्री, नीच, अस्त हो, तो मंगल दोष नहीं होता है। ‘‘तनु धन सुख मदनायुलभि व्ययगः कुजस्तु दाम्पत्यम्। विघटयति तद गृहेशो न विघटयति तुंगमित्र गेहेवा।।’’

Û यदि मंगल स्वराशि अथवा उच्च का हो, तो मंगली दोष नहीं होता। ‘‘केंद्र कोणे शुभाद ये च त्रिषडायेऽप्यसद् ग्रहाः । तदा भौमस्य दोषो न भदने मदपतस्था।।’’

Û केंद्र त्रिकोण में शुभ ग्रह और तृतीय, षष्ठ व एकादश भाव में पाप ग्रह हों तथा सप्तमेश सप्तम में हो तो मंगल दोष नहीं लगता। ‘‘कुजजीवो समायुक्तो वा कुजचंद्रमा। न मंगली मंगल-राहु योग।।’’

Û यदि मंगल व गुरु या मंगल राहु या मंगल चंद्र एक राशि में हो तो मंगली दोष भंग हो जाता है। ‘‘सप्तमो यदा भौमः गुरूणां च निरीक्षिता। तदास्तु सर्वसौख्यं दा मंगली दोषनाषकृत।।’’

Û सप्तमस्थ मंगल पर यदि गुरु की दृष्टि हो तो मंगलीक दोष समाप्त हो जाता है। ‘‘त्रिषट एकादशे राहु त्रिषट एकादशे शनिः । त्रिषट एकादशे भौमः स्वदोष विनाषकृत।।

Û वर या कन्या की कुंडली मंगली हो और दूसरे की कुंडली में 3, 6, 11 वें भावों में राहु, मंगल या शनि हो तो मंगलीक दोष समाप्त हो जाता है।

Û जन्मपत्रिका में यदि दूसरे भाव में शुक्र हो, या मंगल के साथ राहु हो अथवा मंगल को गुरु देखता हो तो मंगल दोष रहित अर्थात शुभकारी हो जाता है।

Û सप्तम भाव को गुरु देखता हो तो मंगली दोष कट जाता है।

Û वर या कन्या में से एक मंगलीक हो और दूसरे की कुंडली में 3, 6, 11 वें भावों में राहु, मंगल या शनि हो तो मंगलीक दोष समाप्त हो जाता है।

Û यदि लड़का या लड़की की आयु 28 या अधिक वर्ष की हो तो मंगल पर विचार नहीं करना चाहिये। (कुछ ज्योतिषीयों का मत है।)

Û यदि शादी के पूर्व (जिसकी कंुडली मंगलीक है। मंगल की दशा निकल चुकी हो तब मंगल पर विचार नहीं करना चाहिये।

Û मिथुन राशि का मंगल सप्तम भाव में बैठा हो या जन्म पत्रिका कर्क लग्न की होने पर अष्टम भाव का मंगल हो अथवा कन्या लग्न में प्रथम चतुर्थ और सप्तम भाव में मंगल होने पर भी मंगलीक दोष न होकर शुभ फलकारी होता है।

Û कुछ विद्वानों के अनुसार वर का मंगलीक दोष कन्या के दोष से अधिक होना चाहिये। मंगलीक दोष क्यों माना जाता है? सामान्य प्रचलित मत के अनुसार यदि जन्मकुंडली मंगलीक हो तो लग्न से कलह, द्वितीय से कौटुम्बिक कलह, चतुर्थ से दैनिक रोजगार में बाधा, अष्टम से आयु कष्ट, द्वादश से शैया कष्ट होता है क्योंकि मंगल, कलत्र, अग्नि, दुर्घटना व विग्रह का कारक होता है। मांगलिक दोष का वास्तविक अर्थ यदि किसी जातक या जातिका की जन्मपत्री में यदि-

Û लग्न में मंगल विराजमान है तब सप्तम भाव पर सातवी दृष्टि से दुष्प्रभाव डालेगा एवं जीवन साथी को खतरे की संभावना रहेगी।

Û द्वितीय भाव में मंगल स्थित होने पर जीवन साथी की आयु को खतरा रहेगा क्योंकि सप्तम से द्वितीय भाव अष्टम अर्थात आयु का होगा।

Û चतुर्थ में मंगल होने पर सप्तम (जीवन साथी) भाव पर चतुर्थ दृष्टि होगी।

Û सप्तम में मंगल होने पर जीवन साथी को खतरा एवं मंगल की द्वितीय भाव पर अष्टम दृष्टि पड़ेगी।

Û अष्टम में मंगल होने पर द्वितीय भाव अर्थात् जीवन साथी के आयु भाव पर सप्तम दृष्टि होगी।

Û द्वादश मंगल होने पर सप्तम भाव प्रभावित होगा अर्थात उक्त छः भावों में मंगल स्थित होने पर जीवन साथी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खतरा होने पर मंगलीक दोष माना जाता है। मंगल का प्रभाव जीवन साथी व दांपत्य जीवन पर कितना रहेगा, इसका निष्कर्ष गहन अध्ययन के बाद ही बताया जा सकता है, न कि उक्त भावों में मंगल के बैठने मात्र से। कुछ अन्य योग लग्ने व्यये सुखे वाऽपि सप्तमे वाऽपि चाष्टमे।

शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्ति न संशयः।। -वृहत्पाराशर होरा शास्त्र जिस कन्या के लग्न, द्वादश, चतुर्थ, सप्तम व अष्टम भाव में मंगल हो और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि या योग न हो तो वह स्त्री विधवा होती है। यस्मिन् योगे समुप्तपन्ना पतिं हन्ति कुमारिका। तस्मिन् योगे समुत्पन्नो पत्नी हन्ति नरोऽपि च।। -वृहत्पाराशर होरा शास्त्र जिस योग में उत्पन्न कन्या पति का हनन करती है, उसी योग में उत्पन्न पुरूष भी पत्नी का हनन करता है। स्त्रीहन्ता परिणीता चेत पतिहन्त्री कुमारिका। तदा वैधव्य योगस्य भङ्गगो भवति निश्चयात्। -वृहत्पाराशर होराशास्त्र पतिहन्त्री कन्या या पत्नीहन्ता पुरूष के साथ विवाह होने से वैधव्य योग नष्ट हो जाता है। स्वक्षेत्रे उच्च राशि स्थिते उच्चांशे स्वनावांशोऽपिवा।

अंगारको न दोषस्यात् कर्क सिंहे न दोषभाक्। लग्न कुंडली या नवांश कुंडली में मंगल उच्च, स्वगृही या कर्क या सिंह राशि का हो तब, मंगल दोष नुकसान दायक नहीं होता। भौम स्थितेशे यदि केंदत्र्रिकोणे तद्दोषनाशं प्रवदन्ति सन्तः।। मंगल जिस राशि में स्थित है यदि उसका स्वामी केंद्र या त्रिकोण में शुभ ग्रह होकर विराजमान हो तब मंगल दोष कम हो जाता है। सिद्धांत है कि कोई ग्रह जिस भाव या राशि में स्थित रहता है उस भाव, राशि या स्वामी की शुभता या अशुभता उस ग्रह में आ जाती है।

वृहतपाराशर होरा शास्त्र के आधार पर 1, 2, 4, 7, 8 व 12 वें भाव मंगल हो व उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि या योग न हो तब स्त्री विधवा होती एवं वर है तब स्त्री की मृत्यु होती है, इसके आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि मंगल पर शुभ दृष्टि या युति या अन्य प्रभाव से शुभता आ जाये तब मंगल दोष नहीं होगा अर्थात मंगलीक दोष भंग हो जायेगा। उक्त स्थानेषु चंद्राच्च गणयेत पापखेचरान्। पापाधिक्ये वरे श्रेष्ठं विवाहं प्रवदेद् बुधः। दोनों कुंडलियों (वर एवं कन्या) में द्वितीय, चतुर्थ, लग्न, सप्तम, अष्टम व द्वादश भाव में मंगल सहित पापी/ क्रूर ग्रहों (सूर्य, राहु, केतु व शनि) की संख्या समान हो तो मिलान सामान्य, तथा यदि लड़के के पाप ग्रहों की संख्या अधिक हो तो तब कुंडली मिलान अति शुभ माना जाता है। दोषकारी कुजो यस्य बलीचेदुक्त दोष कृत। दुर्बलः शुभ दृष्टोवा सूर्योणस्तंगतोपिवा। शास्त्र कहता है मंगल दोषकारी तब होता जब ग्रह बलवान होकर, अशुभ प्रभाव दे रहा हो। यदि मंगल शुभ प्रभावी हो या षडबल में कमजोर हो या सूर्य से अस्त हो या शुभ ग्रहों से प्रभावी हो तब मंगल दोष अप्रभावी अर्थात दोष रहित होता है। पंचक स्थानगे भौमे लग्नेन्दु गुरु संस्थिते।

बुधे स्थिते न दोषोऽस्तिे दृष्ट न चिन्तयेत्।। यदि मंगल लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित हो एवं मंगल के ऊपर गुरु,चंद्र या बुध की युति या दृष्टि से शुभ प्रभाव हो, मंगल दोष नहीं होता है। जिनका मांगलिक दोष भंग हो रहा हो उन्हें मांगलिक व्यक्तियों से ही विवाह करना चाहिए या नहीं इस पर कदाचित सहमति होना असंभव प्रतीत होता है कारण ऐसे कई उदाहरण है जिनमें मांगलिक दोष परिहार होने के बावजूद विवाह संबंधी सुखों में परेशानियां आई।

उदाहरण हेतु श्रीमती मेनका गांधी की कुंडली में मंगल अष्टम भाव में गुरु द्वारा दृष्ट है (द्वितीय भाव से) जिससे मांगलिक दोष का परिहार होता है परंतु उनका वैवाहिक जीवन कितना चला यह सर्वविदित है (पति की मृत्यु हो गई) ऐसा कोई भी परिणाम मंगल के लिए निश्चित भावों (1, 4, 7, 8, 12) पर मंगल के होने से मिल जाना कभी भी संभव हो जाता है। (क्योंकि मंगल अनुशासनप्रिय, घोर स्वाभिमानी और अत्यधिक कठोर माना गया जिसके कभी-कभी दुखदायी परिणाम होते ही हैं। मंगल की विशेष दृष्टि मिली हुई है जिससेे वह चतुर्थ भाव सुख भाव को देखता है मंगल स्वभाव से क्रोधी होने से क्रोध में सुख भाव का ह्रास करता है जिससे जन्मजात बुद्धि व विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है। मंगल लग्न में बैठकर चतुर्थ, सप्तम व अष्टम भावों पर दृष्टि डालता है जिससे सुख भाव खराब होगा सप्तम भाव योग सुख है जिससे गृहस्थ जीवन में उत्तेजना बनी रहेगी, आवेश में होने से निर्णय क्षमता खराब होगी, चतुर्थ का सुख भाव सप्तम भाव है पति/पत्नी में वैचारिक मतभेद होकर गृहस्थी टूटने की संभावना बनी रहेगी।

इसी प्रकार चतुर्थ भाव से सप्तम, दशम व एकादश भाव पर मंगल की क्रूर दृष्टि रहेगी जिससे भोग सुख, नौकरी व धन में कुछ ना कुछ परेशानियां होती रहेगी, सप्तम से मंगल दशम, लग्न व कुटुंब भाव प्रभावित करेगा, अष्टम से एकादश, कुटुंब व सहज, भाव तथा द्वादश से सहज षष्ठ तथा सप्तम भाव पर दृष्टि डालेगा जिससे मुख्यतः सप्तम व दशम भाव हर अवस्था में चाहे मंगल (1, 4, 7, 8, 12) में बैठे हो प्रभावित होंगे और यह दोनों भाव जीवन का मुख्य आधार (जीविका एवं गृहस्थ) दर्शाते हैं जिससे जातक स्पष्ट है कि मांगलिक जातक स्वयं व जीवन साथी हेतु कष्ट व परेशानियां उत्पन्न करता ही रहेगा। इसलिए जातक का विवाह मांगलिक व्यक्ति से अथवा पाप ग्रह से प्रभावित व्यक्ति से ही करना चाहिए किन्हीं परिस्थितियों में मांगलिक दोष परिहार जातक का विवाह गैर मांगलिक से किया जा सकता है परंतु फिर भी मंगल ग्रह की शांति अवश्य करवानी चाहिए।

यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि केवल मंगल ग्रह अथवा मांगलिक होने के कारण ही विवाह करना या न करना विचारना नहीं चाहिए अन्य योग भी जांचने चाहिए कि विवाह सफल होगा कि नहीं क्योंकि मंगल ग्रह की उपयोगिता विवाह हेतु अवश्य है। परंतु अन्य ग्रहों का प्रभाव भी देखना चाहिए विशेषकर विवाह कारक शुक्र को अवश्य देखना चाहिए कई बार यह भी पाया गया कि शुक्र बली होने पर मांगलिक होने के बाद भी विवाह सफल रहा। जिनका मांगलिक दोष भंग हो रहा हो उन्हें मांगलिक ही मानना चाहिए उन्हें गैर मांगलिक कदापि नहीं माना जा सकता क्योंकि मांगलिक होने से मंगल ग्रह का प्रभाव तो रहेगा ही परंतु उसमें कुछ कमी आ जाएगी यदि शुभ प्रभाव है तो भी कमी ही आएगी।

पूर्ण रूप से मंगल दोष नष्ट नहीं होगा, शास्त्रों के आधार पर केवल परिहार घोषित कर देना आज के भौतिकतावादी युग में सही साबित नहीं माना जा सकता, स्वयं विवाह में देरी होना, या कष्ट होना ऐसी परिस्थितियों में मंगल ग्रह की शांति करवानी ही चाहिए (परिहार होने पर भी ) अन्यथा जीवन में कुछ न कुछ परेशानी रहती है। मांगलिक जातकों को मांगलिक जातकों से ही विवाह करना चाहिए। जिनका मांगलिक दोष भंग हो रहा हो कतिपय कारणों से वह गैर मांगलिक से विवाह कर सकते हैं। प्राचीन ग्रंथों में जो कुछ लिखा गया है वह पुरूष जाति को केंद्र में रखकर लिखा गया है (तलाक आदि नहीं होते थे इसलिए पत्नी की मृत्यु लिखा जाता था) परंतु समयानुसार यह परिपेक्ष्य बदल गया है विशेषतौर से महानगरों मंे इसलिए केवल मंगल ग्रह की ही विशेषता मात्र विवाह हेतु नहीं माननी चाहिए। शास्त्रों के आधार पर भी अगर देखें तो प्राचीन समय में अधिकतर विवाह स्वयंवर के रूप में, गंधर्व रूप में, अथवा हरण कर किए जाते थे जिनमें इस तरह के दोष परिहार नहीं देखे जाते थे।

जिन संबंधों में परेशानियां होती उनके उपाय कराए जाते थे। मर्यादा पुरुषोत्तम ‘‘राम जी’’ की पत्रिका स्पष्ट रूप से मंगल दोष का दुखद परिणाम बताती है उनकी पत्रिका में सप्तम भाव में उच्च का मंगल लग्न से गुरु व चंद्र द्वारा दृष्ट है जिससे मांगलिक दोष का परिहार बनता है परंतु इसका परिणाम क्या रहा सब जानते हैं (स्वयंवर द्वारा विवाह हुआ था मांगलिक परिहार देखकर नहीं) ऐसा ही उदाहरण भगवान् महाबीर की पत्रिका का भी है।



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