प्रश्न: ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्र या अन्य विधाओं द्वारा मृत्यु का कारण व सटीक आयुनिर्णय कैसे किया जा सकता है? उदाहरण द्वारा विस्तृत गणना प्रदान करें। हिंदुओं कि मान्यता के अनुसार बालक की आयु का निर्धारण माता के गर्भ में ही हो जाता है। यह बड़े गौरव कि बात है कि ज्योतिष शास्त्र में आयु निर्धारण विषय पर व्यापक चिंतन किया गया है। यह एक कठिन विषय है। ज्योतिष शास्त्र में अविरल शोध, अध्ययन व अनुसंधान कार्य में जी जान से जुड़े हजारों, लाखों ज्योतिषी इस दिव्य विज्ञान के आलोक से जगत को आलौकिक कर पाएं है। महर्षि पराशर के अनुसार ‘बालारिष्ट योगारिष्टमल्पध्यंच दिर्घकम। दिव्यं चैवामितं चैवं सत्पाधायुः प्रकीतितम’।। हे विप्र आयुर्दाय का वस्तुतः ज्ञान होना तो देवों के लिए भी दुर्लभ है फिर भी बालारिष्ट, योगारिष्ट, अल्प, मध्य, दीर्घ, दिव्य और अस्मित ये सात प्रकार की आयु होती हैं। बालारिष्ट आयु - 8 वर्ष 6, 8, 12 भाव में चंद्रमा यदि पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो बालारिष्ट योग बनता है अथवा बालक का जन्म समय ग्रहण समय में हुआ हो तब भी बालारिष्ट योग बनता है।
योगारिष्ट - 20 वर्ष जातक की कुंडली में आयु में कमी करने वाले विशेष योग बन रहे होते हैं। ग्रह योगों से इस प्रकार की आयु का निर्धारण किया जाता है। अल्पायु - 32 वर्ष Û यदि लग्नेश, अष्टम या षष्ट भाव में हो और लग्न व लग्नेश पर किसी प्रकार से शुभ प्रभाव न हो तथा गुरु भी निर्बल हो तो अल्पायु योग बनता है।
Û अष्टमेश और लग्नेश का राशि परिवर्तन हो और अष्टमेश, लग्नेश का मित्र न हो और लग्न, लग्नेश शुभ प्रभाव से मुक्त हो तो जातक अल्पायु का हो सकता है।
Û षष्ठेश और अष्टमेश दोनों लग्न में बैठे या देखें और लग्नेश भी त्रिक भाव में हो तथा गुरु भी पीड़ित हो तो अल्पायु संभव है। मध्यमायु - 64 वर्ष 32 से 64 वर्ष के बीच की आयु के जातक मध्यमायु के अंतर्गत आते हैं। अधिकांश जातक मध्यमायु के अंतर्गत ही आते हैं। इसके कुछ योग इस प्रकार हैं।
Û लग्नेश और अष्टमेश परस्पर सम हो तथा समान बली हों तो मध्यमायु होती है।
Û लग्नेश यदि शुभ स्थान में तो हो परंतु शत्रु ग्रहों से प्रभावित हो तो व्यक्ति की मध्यमायु होती है।
Û लग्नेश त्रिक भाव में हो परंतु शुभ ग्रहों से दृष्ट हो और गुरु पीड़ित हो तो भी मध्यमायु योग बनता है। दीर्घायु - 120 वर्ष इसे पूर्णायु योग भी कहा जाता है। 64 वर्ष से 120 वर्ष के मध्य की आयु दीर्घायु कहलाती है। इसके कुछ योग इस प्रकार है।
Û लग्नेश केंद्र, त्रिकोण में बली हो तथा अष्टम भाव में कोई पाप योग न बने या पाप ग्रह न हा तो दीर्घायु होती है।
Û केंद्र त्रिकोण और अष्टम भाव में पाप योग न बने तथा लग्नेश व गुरु केंद्रस्थ हो तो दीर्घायु होती है। अथवा यदि लग्नेश अष्टमेश से अधिक बली हो। चंद्र राशि का स्वामी अपने अष्टमेष से अधिक बली हो।
Û नवांश लग्न व नवांश चंद्र राशि के स्वामी अपने-अपने अष्टमेश से अधिक बली हों तो ये योग पूर्णतया घटित होने पर दीर्घायु देते हैं। दिव्य आयु - 1000 वर्ष जब कुंडली में सभी शुभ ग्रह केंद्र और त्रिकोण में और पाप ग्रह 3, 6, 11 में हो तथा अष्टम भाव में शुभ ग्रह की राशि हो तो दिव्य आयु योग बनता है। ऐसे जातक की आयु यज्ञ, अनुष्ठान और योग क्रिया से हजार वर्ष की आयु हो सकती है। अस्मित आयु - सबसे अधिक जब गुरु चतुर्थ वर्ग में होकर केंद्र में हो शुक्र षड्वर्ग में एवं कर्क लग्न हो तो ऐसा व्यक्ति मानव न होकर देवता होता है। और उसकी आयु की कोई सीमा नहीं होती है।
2. ज्योतिष द्वारा मृत्यु का कारण एवं आयु निर्धारण का विचार सामान्यतः अष्टम भाव से किया जाता है। इसके साथ ही अष्टमेश, कारक शनि, लग्न-लग्नेश, राशि-राशीश, चंद्रमा, कर्मभाव - कर्मेश, व्यय भाव- व्ययेश तथा इसके अलावा प्रत्येक लग्न के लिये मारक अर्थात् शत्रु ग्रह, द्वितीय, सप्तम, तृतीय एवं अष्टम भाव (सभी मारक भाव) तथा इनके स्वामियों तथा उपरोक्त सभी पर शुभ एवं अशुभ पाप ग्रहों द्वारा डाले जाने वाले प्रभाव (युति/दृष्टि) पर भी विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सामान्यतः आयु में कमी करके मृत्यु का योग ‘मारक’ ग्रह देते हैं। इस तरह से ‘‘मारक’’ का अर्थ होता है -‘‘ मारने वाला’’ अर्थात् ‘‘मारकेश’’ का अर्थ होता है- ‘‘मृत्यु देने वाले ग्रह’’। जो आयु में कमी कर मृत्यु देता है। सामान्यतः मारकेश ग्रह वह होता है जो लग्नेश से शत्रुता रखता है। इस तरह से, प्रत्येक लग्न के लिये मारकेश ग्रहों को तालिका -1 में दर्शाया गया है। उक्त सारणी से स्पष्ट है कि मंगल एवं बुध एक दूसरे के लिये मारकेश का कार्य करते हैं। इसी तरह शनि तथा सूर्य आदि। इसके अलावा, प्रत्येक लग्न के लिये एकादशेश भी मारकेश का कार्य करता है। क्योंकि लग्नेश एवं एकादशेश आपस में शत्रुता रखते हैं तथा एकादशेश, प्रत्येक लग्न के लिये बाधक (मारक) ग्रह का कार्य करता है। इसे तालिका-2 में दर्शाया गया है- कभी-कभी लग्नेश, राशीश, अष्टमेश तथा चंद्र (मन, मस्तिष्क कारक) जो कि नीच, शत्रु राशि के हों तथा त्रिक भाव (6, 8, 12) आदि में चले जायंे तथा चंद्र नीच के अलावा अमावस्या का बलहीन हो तथा इन पर राहु, केतु का पाप प्रभाव हो तो भी मारक योग बन जाता है, जो कि मृत्यु का कारण बनते हैं। क्योंकि राहु, केतु से कालसर्प, पितृदोष ग्रहण योग (सूर्य,चंद्र से), अंगारक योग (मंगल से), जड़ योग (बुध से), चांडाल योग (गुरु से), अभोत्वक योग (शुक्र से) तथा शनि से नंदी योग बनते हैं। इसके साथ ही इनकी तथा मारक ग्रहों की दशायें भी चल रही हों तो अरिष्ट की संभावना बढ जाती है। जैमिनी से आयु निर्णय जैमिनी के सूत्रों के अनुसार तीन जोड़ों के आधार पर आयु निर्णय की विधि बताई गई है। ये तीन जोड़े हैं। 1. लग्नेश-अष्टमेश
2. लग्न- होरा लग्न
3. शनि-चंद्र ।
1. इनमें यदि दोनों चर राशि में हो या एक स्थिर राशि में और दूसरा द्वि स्वभाव राशि में हो तो दीर्घायु होगी।
2. एक चर और दूसरा स्थिर में अथवा दोनों द्विस्वभाव राशि में हो तो मध्यमायु होगी।
3. एक चर और दूसरा द्विस्वभाव राशि में हो अथवा दोनों स्थिर राशि में हो तो अल्पायु होगी।
निम्नांकित चक्र में इस प्रकार स्पष्ट हैः- उपर्युक्त विधि से देखने पर यदि तीनों जोड़ों में दीर्घायु बने तो आयु 120 वर्ष। दो से बने तो 108 वर्ष ओर एक प्रकार से बने तो 96 वर्ष होगी। मध्यमायु में इसी चक्र से 80-72 और 64 वर्ष होगी। अल्पायु तीनों प्रकार से बने तो 32 वर्ष, दो प्रकार से बने तो 36 वर्ष और एक प्रकार से बने तो 40 वर्ष होगी। इस प्रकार तीन प्रकार की आयु के तीन-तीन भेद होंगे। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि आयु खंड के ठीक अंतिम वर्ष में ही मृत्यु हो जायेगी। प्रश्न उठ सकता है कि तीन तरह से आयु के विचार में यदि तीन तरह की आयु आये तो क्या करना उचित होगा? विभिन्न प्रकार की आयु आने पर लग्न और होरा लग्न से जो निश्चित हो, उसे ग्रहण करना चाहिए। विभिन्न प्रकार की आयु आने पर यदि लग्न या सप्तम भाव में चंद्रमा स्थित हो तो ऐसी स्थिति में शनि और चंद्रमा से जो आयु आ रही हो, वह ग्रहण करना चाहिए।
अर्थात् लग्न व सप्तम में चंद्रमा न हो तो लग्न और होरा लग्न से सिद्ध आयु मान ग्रहण करनी चाहिए। तीन प्रकार के आयु मान से गणितागत स्पष्ट आयु ज्ञात करने की विधि का उल्लेख पराशर ने किया हैं इसका गणित सूत्र इस ढंग का है- जितने योग कारक ग्रह हो, उनके अंश का योग करके, उस योग में योग कारक ग्रह की संख्या का भाग दे दें, जो अंशाधिलब्धि हो, उनके प्रति खंड से गुणा कर गुणनफल में 30 का भाग देकर लब्धि वर्ष आदि को प्राप्त (दीर्घादि) आयु की वर्ष संख्या में घटाने से स्पष्ट आयु-वर्ष, मास व दिन में होगी। निम्नांकित चक्र का अवलोकन करें विंशोत्तरी दशा क्रम में जन्म नक्षत्र स्वामी से पांचवी दशा मंगल की हो, छठी दशा गुरु की हो, चतुर्थ दशा शनि की हो अथवा पांचवी दशा राहु की हो तो ये दशायें अरिष्ट कारक अर्थात् मृत्यु कारक होती है। इस तरह से, जिन जातकों का जन्म केतु के नक्षत्र-मघा, मूल, अश्विनी में हुआ है उसकी पांचवी दशा मंगल की होती है अर्थात् केतु स्वामित्व वाले नक्षत्र की पांचवी दशा मंगल की होती है।
जो अरिष्टकारी होती है। इसके अतिरिक्त आयु निर्णय हेतु कई और विधियां प्रचलित हैं। मृत्यु का कारण: अन्य ज्योतिषीय योग Û यदि अष्टम भाव में कोई ग्रह नही है, उस दशा में जिस बली ग्रह द्वारा अष्टम भाव दृष्ट होता है, उस ग्रह के धातु (कफ, पित्त, वायु) के प्रकोप से जातक का मरण होता है। ऐसा प्राचीन ज्योतिष शास्त्र के पुरोधा का मत है। यथा- सूर्य का पित्त से, चंद्रमा का वात से, मंगल का पित्त से, बुध का फल-वायु से, गुरु का कफ से, शुक्र का कफ-वात से तथा शनि का वात से।
Û अष्टम स्थान की राशि कालपुरुष के जिस अंग में रहना शास्त्रोक्त है, इस अंग में ही उस धातु के प्रकोप से मृत्यु होती है।
Û यदि अष्टम भाव पर कई एक बली ग्रहों की दृष्टि हो तो उन सभी ग्रहों के धातु दोष से जातक का मरण होता है।
Û मृत्यु के कारणों का विवेचन करते समय यदि अष्टम भावस्थ ग्रह/ग्रहों की प्रकृति व प्रभाव तथा उसमें स्थित राशि, प्रकृति व राशियों के प्रभाव को संज्ञान में लेना परमावश्यक है।
Û सूर्य: सूर्य से अग्नि, उष्ण ज्वर, पित्त विकार, शस्त्राघात, मस्तिष्क की दुर्बलता, मेरूदंड व हृदय रोग।
Û चंद्रमा: जलोदर, हैजा, मुख के रोग, प्यरिसी, यक्ष्मा, पागलपन, जल के जानवर, शराब के दुष्प्रभाव।
Û मंगल: अग्नि प्रकोप, विद्युत करेंट, अग्नेय अस्त्र, मंगल आघात पहुंचाता है। रक्त विकार, हड्डी के टूटने, एक्सीडेंट, रक्त, हड्डी में मज्जा की कमी। क्षरण, कुष्ठ रोग, कैंसर रोग।
Û बुध: पीलिया, ऐनीमिया, स्नायु रोग, रक्त में हिमोग्लोबिन की कमी, प्लेटलेट्स कम होना, आंख, नाक, गला संबंधी रोग, यकृत की खराबी, स्नायु विकार, मानसिक रोग ।
Û गुरु: पाचन क्रिया में गड़बड़ी, कफ जनित रोग, टाइफाईड, मूर्छा, अदालती कार्यवाई, दैवी प्रकोप, वायु रोग मानसिक रोग।
Û शुक्र: मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, गुर्दा रोग, रक्त/वीर्य/ रज दोष, गला, फेफड़ा, मादक पदार्थों के सेवन का कुफल प्रोस्ट्रेट ग्लैंड, सूखा रोग।
Û शनि: लकवा, सन्निपात, पिशाच पीड़ा, हृदय तनाव, दीर्घ कालीन रोग, कैंसर, पक्षाघात, दुर्घटना, दांत, कान, हड्डी टूटना, वात, दमा।
Û राहु: कैंसर, चर्म रोग, मानसिक विकार, आत्म हत्या की प्रवृत्ति, विषाक्त भोजन करने से उत्पन्न रोग, सर्प दंश, कुष्ठ रोग विषैले जंतुओं के काटने, सेप्टिक, हृदय रोग, दीर्घकालिक रोग Û केतु: अपूर्व कल्पित दुर्घटना, दुर्भरण, हत्या, शस्त्राघात, सेप्टिक, भोजनादि में विषाक्त पदार्थ या कीटाणुओं का प्रवेश, जहरीली शराब पीने का कुफल, रक्त, चर्म, वात रोग चेहरे पर दाग, एग्जिमा। विशेष:
1. जन्मांग से अष्टम में जो दोष या रोग वर्णित हैं उनसे, अष्टम भाव से अष्टम अर्थात् तृतीय भाव व तृतीयेश सभी आ जाते हैं।
2. अष्टमेश जिस नवांश में बैठा हो उस नवांश राशि से संबंधित दोष से भी मृत्यु का कारण बनता है। अष्टम भावस्थ राशियों के अधो अंकित दोष के कारण जातक मृत्यु का वरण करता है।
1. मेष : पित्त प्रकोप, ज्वर, उष्णता, लू लगना जठराग्नि संबंधी रोग।
2. वृष: त्रिदोष, फेफड़े में कफ रुकने/सड़ने से उत्पन्न विकार, दुष्टों से लड़ाई या चैपायों की सींग से घायल होकर मृत्यु संभव है।
3. मिथुन: प्रमेह, गुर्दा रोग, दमा, पित्ताशय के रोग, आपसी वैमनस्य/शत्रुओं से जीवन बचाना मुमकिन नहीं।
4. कर्क: जल में डूबने, उन्माद, पागलपन, वात जनित रोगं
5. सिंह: जंगली जानवरो, शत्रुओं के हमले, फोड़ा, ज्वर, सर्पदंश।
6. कन्या: सुजाक रोग, एड्स, गुप्त रोग, मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, स्त्री की हत्या, बिषपान।
7. तुला: उपवास, क्रोध अधिक करने, युद्ध भूमि में, मस्तिष्क ज्वर, सन्निपात।
8. वृश्चिक: प्लीहा, संग्रहणी, लीवर रोग, बवासीर, चर्म रोग, रुधिर विकार, विषपान से या विष के गलत प्रयोग से मृत्यु संभव है।
9. धनु: हृदय रोग, गुदा रोग, जलाघात, ऊंचाई से गिरना, शस्त्राघात से।
10. मकर: ऐपेन्डिसाइटिस, अल्सर, नर्वस सिस्टम के फेल हो जाने के कारण गंभीर स्थिति, विषैला फोड़ा।
11. कुंभ: कफ, ज्वर, घाव के सड़ने, कैंसर, वायु विकार, अग्नि सदृश या उससे संबंधित कारण से मृत्यु।
12. मीन: पानी में डूबने, वृद्धावस्था में अतिसार, पित्त ज्वर, रक्त संबंधित बीमारियों से मृत्यु संभावी है। कुछ उदाहरण कुंडलियों से इन योगों का विश्लेषण करें। दीर्घायु योग पं. जवाहर लाल नेहरू 75 वर्ष दिनांक 14-11-1889, समय:10 बजे रात्रि, स्थान: इलाहाबाद मृत्यु तिथि 27-5-1964 (75 वर्ष) दशा- राहु की महादशा बुध-बुध का अंतर-प्रत्यंतर दशा Û लग्न -कर्क, लग्नेश- चंद्र लग्न में स्वगृही होकर बली है अतः पूर्ण आयु दे रहे हैं। इस पर किसी भी अच्छे या बुरे (पाप) ग्रह का प्रभाव नहीं।
Û चंद्र, पाप कर्तरी (शनि, राहु) प्रभाव में होने से आयु में कमी कर रहा है।
Û मृत्यु 27-5-64 के समय राहु-बुध जो कर्क लग्न के लिये मारकेश है, का समय चल रहा था। राहु के पाप कर्तरी प्रभाव में उपस्थित कर्क लग्न, लग्नेश चंद्र को दूषित करने के साथ अष्टम भाव पर पूर्ण प्रभाव दिया है।
बुध का कर्म भाव पर प्रभाव शत्रुराशिगत अशुभ है। अतः इन कारणों से 27-5-64 को 75 साल में मृत्यु हुई। मध्यमायु उदाहरण कुंडली इंदिरा गांधी जन्मतिथि 19.11.1917, समय 23ः11, स्थान- इलाहाबाद संक्षिप्त विश्लेषण Û यदि जन्म नक्षत्र की लग्नेश या राशिश से शत्रुता हो तो व्यक्ति की मृत्यु का कारण हत्या होता है। उदाहरण- इंदिरा गांधी, भगवान श्रीकृष्ण, राजीव गांधी।
Û इंदिरा जी की कुंडली का नक्षत्र स्वामी सूर्य है जो राशीश शनि से शत्रुता रखता है तथा लग्नेश चंद्र, जल तत्व यानि ठंडा है। जबकि नक्षत्र स्वामी, अग्नि तत्व सूर्य है जो कि गर्म है। स्वभाव से दोनों ही विपरीत प्रकृति के हैं। अतः इनकी मृत्यु का कारण हत्या रहा। इंदिरा जी की कुंडली में योग
1. लग्न (कर्क) एवं लग्नेश (चंद्र) पाप एवं मारक ग्रह शनि से पीड़ित है, जो अपनी दशा (महा, अंतर, प्रत्यंतर, सूक्ष्म प्राण, साढ़ेसाती, ढैया, गोचर आदि) में अरिष्ट का कार्य करेगा।
Û अष्टम (आयु, मृत्यु) भाव पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि न होना।
Û लग्नेश एवं अष्टमेश शत्रु राशिगत स्थित हो या शत्रु राशिगत भावपरिवर्तन कर स्थित हो। इंदिरा जी की कुंडली में अरिष्ट करने वाले दोनों ही योग मौजूद हंै। जो मृत्यु का कारण बनें। लग्नेश एवं अष्टमेश शत्रुराशिगत अल्पायु देते हैं। जबकि दोनों में शत्रु राशिगत भाव परिवर्तन मध्यमायु देते हैं। इसके अलावा, इंदिरा जी की कुंडली में अष्टमेश शनि एवं आयु कारक शनि की अष्टम भाव पर दृष्टि न होना भी एक कारण है।
Û अष्टम भाव पर अग्नि तत्व प्रधान ग्रहों का प्रभाव- बारूद जैसे- गोली, बम आदि से मृत्यु के होने का कारण बनता है। इंदिरा जी की कुंडली में अष्टम भाव एवं मृत्यु भाव पर द्वितीयस्थ अग्नि तत्व प्रधान ग्रह मंगल का शत्रु राशिगत दृष्टि द्वारा प्रभाव तथा द्वादशस्थ केतु जो अग्नि प्रधान ग्रह मंगल की तरह ही कार्य करेगा, का नवम दृष्टि द्वारा प्रभाव बंदूक की गोली (बारूद) द्वारा मृत्यु (हत्या) का योग बनाता है। इंदिरा जी की हत्या (मृत्यु) 31-10-84 को उनके ही अंग रक्षकों के धोखे द्वारा बंदूक की गोलियों (बारूद) की बौछार द्वारा हुई थी। उनके अंग रक्षकों ने उनके शत्रुओं/धोखे का कार्य किया। यहां छठे भाव से शत्रु, धोखे आदि का विचार किया जाता है। इंदिरा जी का छठा भाव पूर्णतया निर्बल है।
षष्ठेश गुरु एकादश भाव में शत्रु राशिगत अशुभ हैं। षष्ठ भाव में शुत्र राशिगत शुक्र एवं राहु उपरोक्त अशुभ घटना के लिये जिम्मेदार है। हत्या के दिन 31.10.84 को शनि की महादशा में राहु की अंतर्दशा तथा राहु का ही प्रत्यंतर चल रही थी अर्थात् हत्या के दिन दोनों ही मारकेश (शुक्र, राहु- कर्क लग्न, चंद्र के लिये) ग्रहों का प्रभाव था। साथ ही षष्ठस्थ राहु ने शुक्र के साथ अभोत्वक योग नामक अशुभ योग बनाया है। इसके अलावा, गुरु व शुक्र में भावपरिवर्तन योग शुभ है, लेकिन शत्रु राशिगत एवं राहु का समय होने से यह योग अशुभ अरिष्ट देने वाला रहा तथा साथ ही राहु की चार दृष्टियां अशुभ रहीं- राहु की 5 दृष्टि दशम कर्म भाव पर शत्रु राशिगत होने से इंदिरा जी बुलेट प्रूफ जैकेट पहनना भूल गई।
राहु ने यह गलत कार्य करवाया। 7 दृष्टि बारहवें व्यय भाव को देखने से शरीर का क्षय करवाया। नवम दृष्टि से द्वितीय मित्र, पडोसी, कुटंुब भाव को शत्रुराशिगत (सिंह राशि) देखने से अंगरक्षकों (जो मित्र, पडोसी, कुटुंब भाव को शत्रु राशिगत (सिंह राशि) देखने से अंग रक्षक को (जो मित्र, पड़ोसी भी कहलाते हैं।) द्वारा धोखा प्राप्त हुआ, जो मृत्यु का कारण रहा। द्वादश दृष्टि द्वारा पंचम बुद्धि, विवेक भाव को शत्रु राशिगत (वृश्चिक राशि) देखने से इंदिरा जी की बुद्धि, विवेक का उस दिन नाश हुआ। फलतः इसके कारण बुलेटपू्रफ जैकेट पहनना भूल गईं, जो हत्या (मृत्यु) का कारण रहा। निष्कर्ष: इंदिरा जी के लग्नेश स्वयं चंद्रमा हैं, जो केंद में बली हैं। जो दीर्घायु दे रहा हैं। लेकिन पाप, शत्रु एवं मारक शनि की महादशा में दीर्घायु में कमी कर मध्यमायु (67 वर्ष) दी।
अल्पायु कुंडली उदाहरण डाॅ. - विवेकानंद योग (39 वर्ष) 12/1/1863, 6ः25 प्रातः कोलकाता मृत्यु की तिथि: 04/7/1902 उम्र: 39 वर्ष विवेकानंद की मृत्यु 39 वर्ष की अवस्था में हुई। यह मध्यमायु की श्रेणी में न आकर अल्पायु की श्रेणी में ही आती है। इनकी मृत्यु के समय लग्नेश ‘गुरु’ की महादशा चल रही थी। लग्नेश गुरु एकादश भाव में शत्रु राशिगत अशुभ स्थित है तथा राहु का प्रभाव भी अशुभ है। इसके अलावा मित्र ग्रह मंगल का पाप प्रभाव भी मृत्यु, आयु भाव का स्वामी चंद्रमा भी कर्म भाव में शनि से ‘विष’ नामक योग बनाकर अशुभ प्रभाव में है। ये दोनों ही ग्रह (गुरु, चंद्र) पाप ग्रहों के प्रभाव (शनि, राहु, मंगल) से दूषित होने के कारण आयु में कमी कर रहे हैं। यहां शनि, राहु, धनु लग्न के लिये मारकेश का भी कार्य कर रहे हैं।
इनकी मृत्यु 04/07/1902 को 39 वर्ष की कम अवस्था में ही हुई, उस समय अशुभ लग्नेश गुरु की महादशा में मारकेश (धनु लग्न) शुक्र, बुध की अंतर, प्रत्यंतर दशा का समय चल रहा था तथा इनकी दोनों की अष्टम भाव पर शत्रु दृष्टि अशुभ है, जो आयु में कमी कर रही हैं। गुरु, चंद्र ने आयु (39 वर्ष) का निर्धारण किया तथा मारकेश बुध, शुक्र, शनि, राहु मृत्यु के कारण रहे। हस्त रेखाओं के द्वारा आयु निर्णय ज्योतिष के अलावा हस्तरेखा शास्त्र द्वारा भी आयु निर्धारण किया जा सकता है। भारतीय सामुद्रिक हस्त शास्त्रों व गरुड़ पुराण के अनुसार ‘जीवन रेखा को आयु रेखा, कुल रेखा, पितृ रेखा, जीवनी शक्ति भी कहते हैं। यह रेखा आयु, मृत्यु, जीवन शक्ति के अलावा स्वास्थ्य एवं शरीर सुख प्रकट करती है। हृदय रेखा यदि कनिष्ठका तक हो तो 10 से 15 वर्ष की आयु होती है। कनिष्ठका से अनामिका तक हो तब 25 वर्ष की आयु होती है।
अनामिका तक हो तब वर्ष 50 की आयु मानी गई है। अनामिका और मध्यमा के बीच तक हो तब 65 वर्ष की आयु मानी गई है। मध्यमा तक हो तब 90 वर्ष की आयु मानी गई है। मणिबंध रेखाओं से जातक की आयु का आकलन यदि एक रेखा हो तो जातक की आयु 30 वर्ष की होती है। दो रेखाएं होने पर 60 वर्ष, तीन रेखाएं होने पर आयु 90 वर्ष की होती है। तथा चार रेखाएं हो तो जातक की आयु 120 वर्ष की मानी गई है। कपाल रेखाओं से जातक की आयु का आकलन कपाल में एक रेखा होने पर पुरुष की आयु 20 वर्ष व स्त्री की आयु 40 वर्ष होती है। दो रेखाएं होने पर पुरुष की आयु 30 व स्त्री की आयु 60 वर्ष। तीन रेखाएं होने पर पुरुष की आयु 60 वर्ष की और स्त्री की आयु 70 वर्ष की मानी गई है।
चार रेखा से पुरुष की आयु 80 वर्ष और नारी की आयु 80 वर्ष, पांच रेखाएं होने पर पुरुष की आयु 100 वर्ष व नारी की भी 100 वर्ष ही मानी गई है। छः रेखा होने पर पुरुष-स्त्री दोनों की आयु 120 होती है। अंक ज्योतिष द्वारा आयु निर्णय कल्पना चावला की मृत्यु दुर्घटना के कारण कोलंबिया में दिनांक 01-02-2003 को हुई। अंक ज्योतिष में मूलांक, संयुक्तांक, नामांक, आत्मांक आदि सभी का अपना महत्व है। ज्ञ।स्च्छ। ब्भ्।ॅस्। . 2़1़3़8़5़1़3़5़1़6़3़1 त्र 39 त्र 12 त्र 3ए तीन अंक पर गुरु का अधिकार है। जन्म: भ्।त्ल्।छ। . 5़1़2़6़1़5़1 त्र 21 त्र 2़1 त्र 3 दुर्घटना के दिन (01-2-03) इनकी आयु - 42 वर्ष व 24 दिन थी। (जन्म तिथि - 07-1-1961) 42 वर्ष 24 दिन - 4$2$2$4 =12 = 3 अर्थात् उपरोक्त तीनों बातों से स्पष्ट है कि कल्पना चावला के लिये 3 अंक अत्यधिक महत्वपूर्ण था। जन्म तिथि 07-1-1961 (मूलांक-07) आत्मांक/संयुक्तांक - 7$1$1$9$6$1 = 25 = 2$5 = 7 कोलंबों मिशन पर जाने वाले व मरने वाले व्यक्तियों की संख्या = 7 मिशन पर जाने की तिथि 16.1.2003 (मूलांक-7) यान के पुनः पृथ्वी पर उतरने का भारतीय समय - 7ः45 था। इसमें मूलांक 7 ही आ रहा है। परंतु दुर्घटना 16 मिनट पूर्व हुई थी। इसमें भी मूलांक (16 = 1$6 =7) 7 ही आ रहा है।
इस पर केतु का पूर्ण प्रभाव रहता है। अर्थात् कल्पना चावला पर 7 अंक का भी पूर्ण प्रभाव था। अंक 3 एवं 7 का कल्पना चावला पर पूर्ण प्रभाव था, जो इनकी आयु (42 वर्ष 25 दिन) एवं कारण को दर्शाता है।