कामदा एकादषी व्रत
कामदा एकादषी व्रत

कामदा एकादषी व्रत  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 3847 | अप्रैल 2006

कामदा एकादषी व्रत चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन किया जाता है। एक समय पांडुनंदन धर्मावतार महाराज युधिष्ठिर ने त्रिलोक नाथ, यशोदा मां के दुलारे, वसुदेव-देवकी नंदन भगवान श्री कृष्ण के श्री चरणों में प्रणाम कर विनयपूर्वक प्रश्न किया कि हे भगवान! चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में स्थित कामदा एकादशी का विधान व माहात्म्य क्या है? कृपा करके बताइए।’ अनंत गुण विभूषित भगवान श्री कृष्ण ने कहा-‘राजन एक समय यही प्रश्न राजा दिलीप ने अपने गुरुदेव वशिष्ठ जी से किया था। तब उन्होंने जो उत्तर दिया था वही मैं आपकी जिज्ञासा शांत करने हेतु श्रवण कराता हूं, आप एकाग्रचित्त से श्रवण करें।’ महर्षि वशिष्ठ जी बोले-‘हे राजन। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम कामदा है। यह पापों को भस्म करने वाली है। इसके व्रत से कुयोनि छूट जाती है और अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यह पुत्र प्राप्त कराने वाली एवं संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली है।

कामदा एकादशी के व्रत में पहले दिन दशमी के मध्याह्न में जौ, गेहूं और मूंग आदि का एक बार भोजन करके भगवान् विष्णु का स्मरण करें। दूसरे दिन (एकादशी को) प्रातः स्नानादि करके ‘ममाखिल पापक्षयपूर्वक परमेश्वर प्रातिकामनया कामदैकादशीव्रतं करिष्ये।’ यह संकल्प करके जितेन्द्रिय होकर श्रद्धा, भक्ति और विधिपूर्वक भगवान का पूजन करें। उत्तम प्रकार के गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करके नीराजन करें। तत्पश्चात जप, हवन, स्तोत्र पाठ और मनोहर गीत-संगीत और नृत्य करके प्रदक्षिणा कर दण्डवत करें। इस प्रकार भगवान की सेवा और स्मरण में दिन व्यतीत करके रात्रि में कथा, वार्ता, स्तोत्र पाठ तथा भजन, संकीर्तन आदि के साथ जागरण करें। फिर द्वादशी को भगवान विष्णु का पूजन करके ब्राह्मण भोजनादि कार्यों को पूर्ण कर पारण व भोजन करें।

कथा: प्राचीन काल में स्वर्ण और रत्नों से सुशोभित भोगिपुर नगर के पुण्डरीक राजा के ललित और ललिता नाम के गंधर्व-गंधर्विणी गायन विद्या में बड़े प्रवीण थे। पुण्डरीक राजा बड़ा ही विलासी था। उसकी सभा में अनेक अप्सराएं, किन्नर तथा गंधर्व नृत्य व गायन किया करते थे। एक बार ललित गंधर्व राजा की राज सभा में नृत्य गान कर रहा था। सहसा उसे अपनी सुंदरी ललिता की याद आ गई, जिसके कारण उसके नृत्य, गीत तथा लय में अरोचकता आ गई। कर्कोटक नामक नाग यह रहस्य जान गया तथा राजा से कह सुनाया। इस पर क्रोधातुर होकर पुण्डरीक राजा ने ललित को राक्षस हो जाने का श्राप दे दिया। ललित सहस्रों वर्ष तक राक्षस योनि में अनेक लोकों में घूमता रहा। इतना ही नहीं उसकी सहधर्मिणी ललिता भी उन्मत्त वेश में उसी का अनुकरण करती रही। ललिता अपने प्राणबल्लभ ललित का ऐसा हाल देखकर बहुत दुखी हुई।

वह सदैव अपने पति के उद्धार के लिए सोचने लगी कि मैं कहां जाऊं और क्या करूं? एक दिन वह दोनों घूमते-घूमते विंध्याचल पर्वत के शिखर पर स्थित शृंग ऋषि के आश्रम पर पहुंचे। इनकी करुण तथा संवेदनशील स्थिति देखकर मुनि को दया आ गई और उन्होंने चैत्र शुक्लपक्ष की कामदा एकादशी व्रत करने का आदेश दिया। ऋषि के बताए गए नियमानुसार ललिता ने प्रसन्नतापूर्वक व्रत का पालन किया। पुनः भगवान से प्रार्थना करने लगी कि ‘हे प्रभो! मैंने जो व्रत किया है उस व्रत के प्रभाव से मेरे पति राक्षस योनि से मुक्त हो जाएं। एकादशी का व्रत लेते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त हो पूर्व स्वरूप को प्राप्त हो गया। दोनों पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग लोक को चले गए। अपने कर्तव्य भूल के कारण मानव को अनेक विपत्तियां सहन करनी पड़ती हैं। अतः मानव के लिए अपने कर्तव्य का ठीक से पालन करना ही श्रेयस्कर है। श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा ‘हे धर्मराज युधिष्ठिर ! इस व्रत को विधिपूर्वक करने से दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार के ताप नष्ट हो जाते हैं। इसकी कथा के पठन व श्रवण से बाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है तथा प्रभु का प्रेम व सान्निध्य मिलता है।



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