प्रश्न: निम्नलिखित मुख्य भारतीय हिंदू पर्व निर्णय हेतु तिथि, नक्षत्र, सूर्योदयास्त आदि से संबंधित आधार व नियम क्या हैं? विस्तृत वर्णन करें।
रक्षा बंधन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, दशहरा, करवा चैथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन व अन्नकूट पर्व, भैया दूज, लोहड़ी, मकर संक्रांति, महाशिवरात्री, होलिका दहन व धुलैंडी। हमारे सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में पर्वों का विशेष महत्व रहा है। आज भी सभी धर्म एवं जातियों में विभिन्न पर्वों को बड़ी उमंग से मनाया जाता है। आज की इस विचार-गोष्ठी में उपरोक्त प्रश्नानुसार पर्वों का परिचय दिया जा रहा है, जिनका समय-समय पर आयोजन किया जाता है, जो प्राचीन काल से भारतीय समाज में प्रचलित और मान्य रहे हैं। प्रत्येक पर्व की उत्पत्ति, उसको मनाने की विधि, उसका महत्व और उससे संबंधित कथा पर धार्मिक तथा राष्ट्रीय दृष्टि से विचार किया गया है। रक्षा बंधन यह पर्व श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें अपराह्नव्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि यह दो दिन हो या दोनों ही दिन न हो तो पूर्वा लेनी चाहिए। यदि उस दिन भद्रा हो तो उसका त्याग करना चाहिए। इसी दिन श्रावणी पर्व भी मनाया जाता है। भद्रा में श्रावणी और फाल्गुनी दोनों निषेध है क्योंकि श्रावणी से राजा का और फाल्गुनी से प्रजा का अनिष्ट होता है। एक बार देवता और दानवों में बारह वर्ष तक युद्ध हुआ पर देवतागण विजयी नहीं हुए तब बृहस्पति ने सहमति दी की युद्ध बंद कर देना चाहिए।
यह सुनकर इंद्राणी ने कहा कि मैं कल इंद्र रक्षा बांधूंगी, उसके प्रभाव से इनकी रक्षा होगी और यह विजय प्राप्त करेंगे। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को वैसा ही किया गया और इंद्र के साथ संपूर्ण देवता विजयी हुये। उसी दिन से यह रक्षा बंधन का पर्व मनाया जाता है। श्रावणी पर्व के संबंध में प्रसिद्ध है कि इसी दिन श्रवणकुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता के लिए जल लेने गये वहीं पर हिरण की ताक में राजा दशरथ छिपे थे। उन्होंने जल से घड़े के शब्द को हिरण का शब्द समझकर तीर छोड़ दिया, जिससे श्रवणकुमार की मृत्यु हो गयी। यह सुनकर माता-पिता अत्यंत दुखी हुए। तब दशरथ जी ने उनको आश्वासन दिया और अपने अज्ञान में किये अपराध की क्षमा याचना करते हुए श्रावणी को श्रवणपूजा का सर्वत्र प्रचार किया। उस दिन से संपूर्ण सनातनी श्रवण की पूजा करते हैं और उक्त रक्षा सूत्र उन्हीं को अर्पण करते हैं। जन्माष्टमी यह पर्व भाद्रपद मास कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि के समय वृषभ के चंद्र में हुआ था।
अधिकांशतः उपरोक्त बातों में अपने-अपने अभीष्ट योग का ग्रहण करते हैं। शास्त्रानुसार इसके शुद्धा व विद्धा दो भेद हैं। उदय से उदयपर्यन्त शुद्धा और तद्गत सप्तमी या नवमी से विद्धा होती है। शुद्धा या विद्धा भी समा, न्यूना, अधिका भेद से तीन प्रकार की हो जाती है और इस प्रकार अठारह भेद बन जाते हैं। परंतु सिद्धांत रूप में तत्कालव्यापिनी (अर्धरात्रि में रहने वाली) तिथि अधिक मान्य होती है। वह यदि दो दिन हो या दोनों ही दिन न हो तो (सप्तमी विद्धा को सर्वथा त्यागकर) नवमी विद्धा का ग्रहण करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष, अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र बुधवार मध्य रात्रि का समय था। जन्म के समय वृषभ लग्न में शनि-चंद्र, कर्क में गुरु, सिंह में सूर्य-बुध, कन्या में राहु, तुला में शुक्र, मकर में मंगल तथा मीन में केतु स्थित थे। श्रीगणेश चतुर्थी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय भगवान श्री गणेश जी का जन्म हुआ था। इस पर्व में मध्याह्नव्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि यह दो दिन हो या दोनों दिन न हो तो ‘मातृविद्धा प्रशस्यते’’ के अनुसार पूर्वविद्धा लेनी चाहिए। इस दिन अगर रविवार या मंगलवार हो तो यहां ‘महाचतुर्थी’ हो जाती है। इस दिन चंद्र दर्शन करने से झूठा आरोप लग जाता है।
इसके निवारण हेतु स्यमन्तक की कथा श्रवण करना आवश्यक है। दशहरा (विजया दशमी) आश्विन शुक्ल दशमी को श्रवण नक्षत्र के सहयोग से विजया दशमी (दशहरा) का पर्व मनाया जाता है। आश्विन शुक्ल दशमी के सायंकाल तारा उदित होने पर ‘विजयकाल’ रहता है। यह समस्त कार्य सिद्ध करता है। आश्विन शुक्ल दशमी पूर्वविद्धा निषिद्ध मानी गयी है। परविद्धा शुद्ध और श्रवणयुक्त सूर्योदय व्यापिनी सर्वश्रेष्ठ होती है। इसदिन भगवान श्रीरामचंद्र जी ने रावण से युद्ध में विजय प्राप्त की थी। इसीलिए यह तिथि विजयादशमी के पर्व के रूप में मनायी जाती है। इस दिन शमी वृक्ष व अश्यन्तक वृक्ष की तथा अस्त्र-शस्त्रों का पूजन किया जाता है। करवा चैथ (करक चतुर्थी) यह पर्व कार्तिक कृष्ण की चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी को मनाया जाता है। विशेषकर यह पर्व सौभाग्यवती स्त्रियां या उसी वर्ष में विवाही हुई लड़कियां करती है। यह पर्व सौभाग्य बढ़ाने वाला होता है। अहोई अष्टमी यह पर्व कार्तिक कृष्ण अष्टमी को मनाया जाता है। संध्या के समय दीवार पर आठ कोष्टक की एक पुतली बनाई जाती है समीप ही साही व उसके बच्चों की आकृति बनाई जाती है। जमीन पर चैक पूरकर कलश स्थापन कर दीवार पर अष्टमी का पूजन किया जाता है।
दूध-भात का भोग लगाया जाता है। यह पर्व संतान की प्राप्ति व संतान की आयु वर्धन के लिए मनाया जाता है। धन त्रयोदशी (धन तेरस) यह पर्व कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को प्रदोषव्यापिनी तिथि में मनाया जाता है। इस दिन किसी पात्र में मिट्टी का दीपक रखकर तिल के तेल से पूर्ण कर नवीन रूई की बाती से पूरित दक्षिण दिशा की ओर मुख करके दीप-दान किया जाता है जिससे यमराज प्रसन्न होते हैं। यह दिन देवताओं के वैद्य धन्वंतरी की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। नरक चतुर्दशी (रूप चतुर्दशी) कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के अंत में जिस दिन चंद्रोदय के समय चतुर्दशी तिथि हो उस दिन यह पर्व मनाया जाता है। यदि यह तिथि दो दिन तक हो तो चतुर्दशी के चतुर्थ प्रहर में यह पर्व मनाना चाहिए अर्थात स्नान आदि करना चाहिए। दीपावली लोक प्रसिद्धि में प्रज्ज्वलित दीपकों की पंक्ति लगा देने से ‘दीपावली’ और स्थान-स्थान पर मंडल बना देने से ‘दीपमालिका’ बन जाती है। अतः इस रूप में ये दोनों नाम सार्थक हो जाते हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार कार्तिक की अमावस्या को अर्धरात्रि के समय लक्ष्मी महारानी सद्गृहस्थों के मकान में जहां-तहां विचरण करती हंै। इसलिए अपने मकानों को सब प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध और सुशोभित करके दीपावली या दीपमालिका बनाने से माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और उनके निवास स्थान में स्थायी रूप से निवास करती हैं।
इसके अलावा वर्षा काल के जाले, मकड़ी, धूल-धमासे और दुर्गन्धादि दूर करने हेतु भी कार्तिकी अमावस्या को दीपावली मनाना हितकारी होता है। यह अमावस्या प्रदोषकाल से लेकर अर्धरात्रि तक रहने वाली श्रेष्ठ होती है। यदि वह आधी रात तक न रहे तो प्रदोषव्यापिनी लेना चाहिए। यह पर्व भगवान श्रीराम के लंका विजय के पश्चात अयोध्या लौटने के उपलक्ष्य में भी मनाया जाता है। गोवर्धन व अन्नकूट पर्व यह पर्व दीपावली पर्व के दूसरे दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस पर्व के संबंध में श्रीमद्भागवत महापुराण में उल्लेख मिलता है। यह पर्व भगवान श्रीकृष्ण के अवतीर्ण होने के पश्चात द्वापर युग से आरंभ हुआ। इस दिन भगवान गोवर्धन की कच्ची-पक्की रसोई बनाकर पूजा की जाती है। भैय्या दूज (यम द्वितीया) कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यह पर्व मनाया जाता है। हेमाद्रि मत से यह द्वितीया मध्याह्नव्यापिनी पूर्व विद्धा उत्तम होती है। स्मार्त मतानुसार आठ भाग के दिन के पांचवें भाग को श्रेष्ठ माना जाता है तथा स्कंद के अनुसार अपराह्नव्यापिनी अधिक अच्छी होती है। इस पर्व को ‘‘कलम दान पूजा’’ भी कहते हैं। इस दिन भाई अपनी बहिन के घर भोजन करते हैं। इसीलिए यह ‘‘भैय्यादूज’’ के नाम से विख्यात है।
इस दिन यमराज, चित्रगुप्त व यमुना का पूजन किया जाता है। इस दिन भाई अपनी बहिन के (सगी, मामा, काका, बुआ, मौसी व मित्र की बहिन) घर भोजन करता है तो उसकी आयु की वृद्धि होती है। यदि इस दिन यमुना नदी के किनारे पर बहिन के हाथ का भोजन करता है तो भाई की आयु वृद्धि के साथ दिन के सौभाग्य की भी रक्षा होती है। लोहड़ी यह पर्व 14/15 जनवरी को सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के उलक्ष्य में पंजाब व हरियाणा में लोहड़ी के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व एक दिन पूर्व मनाया जाता है। बीच में अग्नि जलाकर उसमें तिल गुड़, मिष्ठान्न आदि डालकर सर्वत्र खुशियां मनाई जाती हैं तथा अच्छी फसल होने की प्रार्थना की जाती है। तिल से व्यंजन, गुड़ तथा मक्के की खीलें परस्पर मिल बांट कर खाई जाती है। मकर संक्रांति पर्व भारतीय ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियां मानी गई हैं। उनमें से एक का नाम ‘मकर’ राशि है। मकर राशि में सूर्य के प्रवेश करने को ही ‘मकर संक्रांति’ कहा जाता है। वैसे तो यह संक्रांति प्रति माह होती रहती है। पर मकर और कर्क राशियों का संक्रमण विशेष महत्व का होता है। मकर संक्रांति सूर्य के उत्तरायण होने पर तथा कर्क संक्रांति सूर्य के दक्षिणायन होने को कहते हैं। इसके अलावा मेष और तुला की संक्रांति की ‘‘विषुवत’’ वृष व सिंह, वृश्चिक व कुंभ की विष्णुपदी’’ और मिथुन, कन्या, धनु और मीन की ‘षडशीत्यानन’ संज्ञा होती है।
अयन या संक्रांति के समय व्रत, दान या जपादि करने के विषय में हेमाद्रि के मत से संक्रमण होने के समय पहले और बाद की 15-15 घड़ियां, बृहस्पति के मत से दक्षिणायन के पहले और उत्तरायण के पीछे की 20-20 घड़ियां तथा देवल के मतानुसार पहले और पीछे की 30-30 घड़ियां पुण्यकाल की होती हैं। इनमें वशिष्ठ के मत से विषुव मध्य की विष्णुपदी और दक्षिणायन के पहले की तथा षडशीतिमुख और उत्तरायन के पीछे की उपर्युक्त घड़ियां पुण्यकाल की होती हैं। वैसे सामान्य मतानुसार सभी संक्रांतियों की 16-16 घड़ियां पुण्यदायक हैं। यह विशेषता है कि दिन में संक्रांति हो तो पूरा दिन, अर्धरात्रि से पूर्व हो तो उस दिन का उत्तरार्द्ध, अर्धरात्रि से पीछे हो तो आने वाले दिन का पूर्वार्ध, ठीक अर्ध रात्रि में हो तो पहले और बाद के 3-3 प्रहर और उस समय अयन का परिवर्तन भी हो तो तीन-तीन दिन का पुण्यकाल होता है। इस पर्व को उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में ‘‘खिचड़ी’’ पर्व के नाम से मनाते हैं। महाशिवरात्रि पर्व यह पर्व फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। प्रत्येक तिथि के अधिपति होते हैं। चतुर्दशी तिथि के अधिपति भगवान शिव हैं। अतः यह पर्व उनकी ही रात्रि में मनाने से इस पर्व का नाम शिवरात्रि सार्थक होता है।
ईशान संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को निशीथ काल (अर्धरात्रि) में ‘‘शिवलिंगतयोक्सूतः कोटि सूर्यसमप्रभः‘‘ वाक्य के अनुसार ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ था, इस कारण यह महाशिव मानी जाती है। सिद्धांत रूप में आज के सूर्योदय से कल के सूर्योदय तक रहने वाली चतुर्दशी शुद्धा और अन्य विद्धा मानी गयी है। उसमें भी प्रदोष (रात्रि का आरंभ) और निशीथ (अर्धरात्रि) की चतुर्दशी की जाती है। स्कंदपुराण में भी अर्धरात्रि को पर्व हेतु माना गया है। अगर यह त्रिस्पृश (त्रयोदशी, चतुर्दशी व अमावस्या) हो तो अधिक उत्तम होती है। इसमें भी रविवार व मंगलवार का योग (शिव योग) और भी अधिक अच्छा होता है। होलिका दहन व धुलैंडी होलिकाउत्सव (होलिका दहन) हमारा राष्ट्रीय व सामाजिक त्योहार है। यह फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। जिस प्रकार श्रावणी (रक्षाबंधन) को ऋषि पूजन, विजया दशमी (दशहरा) को देवी पूजन तथा दीपावली को लक्ष्मी पूजन का महत्व है ठीक उसी प्रकार होलिका दहन व पूजन का भी महत्व है। होलिका दहन में पूर्वविद्धा प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा ली जाती है। यदि वह दो दिन प्रदोष व्यापिनी है तो दूसरी लेनी चाहिए। यदि प्रदोष काल में भद्रा हो तो उसके मुख की घड़ी त्याग कर प्रदोष में होलिका दहन करना चाहिए। भद्रा में होलिका दहन करने से जनसमूह का विनाश होता है। प्रतिपदा, चतुर्दशी और भद्रा तथा दिन में होली जलाना सर्वथा त्याज्य है।
यदि पहले दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर सूर्योदय के पूर्व होली जलानी चाहिए। यदि पहले दिन प्रदोष न हो और न हो तो भी रात्रि भर भद्रा रहे (सूर्योदय से पूर्व न उतरे) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो तो ऐसे अवसर पर पहले दिन भद्रा हो तो भी भद्रा के पुच्छकाल में होलिका दहन करना चाहिए। यदि पहले दिन रात्रि भर भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा के उत्तरार्द्ध मौजूद भी हो तो भी उस समय यदि चंद्र ग्रहण हो तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो तब भी सूर्यास्त के पीछे होली जला देना चाहिए। यदि दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा हो और उससे पहले भद्रा समाप्त होती हो किंतु चंद्रग्रहण हो तो उसके शुद्ध होने के पश्चात स्नान करके होली जलानी चाहिए। यदि फाल्गुन दो हो तो शुद्ध मास (दूसरे) फाल्गुन में पूर्णिमा को होलिका दहन करना चाहिए। होली क्या है? क्यों जलायी जाती है? और इसमंे किसका पूजन होता है? इसका आंशिक समाधान पूजन-विधि और कथा सार से होता है। होली का पर्व रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, ढूंढा, प्रींाद और स्मरशान्ति तो है ही इनके अतिरिक्त इस दिन नवान्नेष्टि यज्ञ भी संपन्न होता है। धुलैंडी यह पर्व होलिका दहन के दूसरे दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस दिन अबीर-गुलाल व रंगों की फाग होती है।