हरितालिका व्रत पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज ‘ब्रजवासी’ हरितालिका व्रत भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि में संपन्न करने का विधान है। प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व ही जागकर नित्य नैमित्तिक कर्मों को पूर्णकर श्रद्धा व भावपूर्ण होकर संकल्प लेना चाहिए कि आज मैं अमुक कामना सिद्धि के लिए इस व्रत का पालन करूंगी। वैसे तो संपूर्ण भारतवर्ष में इस व्रत का विधान है, परंतु विशेष रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और झारखंड आदि प्रांतों में भाद्रपद शुक्ल तृतीया को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अखंड सौभाग्य की रक्षा के लिये बड़ी श्रद्धा, विश्वास और लगन के साथ हरितालिका व्रत (तीज)- का उत्सव मनाती हैं। जिस त्याग-तपस्या और निष्ठा के साथ स्त्रियां यह व्रत रखती हैं, वह बड़ा ही कठिन है। इसमें फलाहार-सेवन की बात तो दूर रही, निष्ठावाली स्त्रियां जलतक नहीं ग्रहण करतीं। व्रत के दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान के पश्चात व्रतपारायण स्त्रियां सौभाग्य-द्रव्य वायन छूकर ब्राह्मणों को देती हैं। इसके बाद ही जल आदि पीकर पारण करती हैं। इस व्रत में मुख्यरूप से शिव-पार्वती तथा गणेशजी का पूजन किया जाता है। इस व्रत को सर्वप्रथम गिरिराजनन्दिनी उमा ने किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान् शिव प्रतिरूप में प्राप्त हुए थे। इस व्रत के दिन स्त्रियां वह कथा भी सुनती हैं, जो पर्वती जी के जीवन में घटित हुई थी। उसमें पार्वती के त्याग, संयम, धैर्य तथा एकनिष्ठ पतिव्रत-धर्म पर प्रकाश डाला गया है, जिससे सुननेवाली स्त्रियों का मनोबल ऊंचा उठता है। कहते हैं, दक्ष कन्या सती जब पिता के यज्ञ में अपने पति शिवजी का अपमान न सहन कर योगाग्रिमें दग्ध हो गयीं, तब वे पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज ‘ब्रजवासी’ ही मैना और हिमवान् की तपस्या के फलस्वरूप उनकी पुत्री के रूप में पार्वती के नाम से पुनः प्रकट हुईं। इस नूतन जन्म में भी उनकी पूर्व की स्मृति अणुण्ण बनी रही और वे नित्य -निरंतर भगवान् शिव के ही चरणारविन्दों के चिंतन में संलग्न रहने लगीं। जब वे कुछ वयस्क हो गयीं तब मनोनकूल वरकी प्राप्ति के लिए पिता की आज्ञा से तपस्या करने लगीं। उन्होंने वर्षों तक निराहार रहकर बड़ी कठोर साधना की। जब उनकी तपस्या फलोन्मुख हुई, तब एक दिन देवर्षि नारदजी महाराज गिरिराज हिमवान् के यहां पधारे। हिमवान् ने अहोभाग्य माना और देवर्षि की बड़ी श्रद्ध के साथ सपर्या की। कुशल-क्षेम के पश्चात् नारदजी ने कहा- भगवान् विष्णु आपकी कन्या का वरण करना चाहते हैं, उन्होंने मेरे द्वारा यह संदेश कहलवाया है। इस संबंध में आपका जो विचार हो उससे मुझे अवगत करायें। नारदजी ने अपनी ओर से भी इस प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया। हिमवान् राजी हो गये। उन्होंने स्वीकृति दे दी। देवर्षि नारद पार्वती के पास जाकर बोले-उमे ! छोड़ो यह कठोर तपस्या, तुम्हें अपनी साधना का फल मिल गया। तुम्हारे पिता ने भगवान् विष्णु के साथ तुम्हारा विवाह पक्का कर दिया है। इतना कहकर नारदजी चले गये। उनकी बात पर विचार करके पार्वती जी के मन में बड़ा कष्ट हुआ। वे मूचर््िछत होकर गिर पड़ीं। सखियों के उपचार से होश में आने पर उन्होंने उनसे अपना शिव विषयक अनुराग सूचित किया। सखियां बोलीं- तुम्हारे पिता तुम्हें लिवा जाने के लिये आते ही होंगे। जल्दी चलो, हम किसी दूसरे गहन वन में जाकर छिप जायं। ऐसा ही हुआ। उस वन में एक पर्वतीय कन्दरा के भीतर पार्वती ने शिवलिंग बनाकर उपासनापूर्वक उसकी अर्चना आरंभ की। उससे सदाशिव का आसन डोल गया। वे रीझकर पार्वती के समक्ष प्रकट हुए और उन्हें पत्नीरूप में वरण करने का वचन देकर अंतर्धान हो गये। तत्पश्चात् अपनी पुत्री का अन्वेषण करते हुए हिमवान् भी वहां आ पहुंचे और सब बातें जानकर उन्होंने पार्वती का विवाह भगवान् शंकर के साथ ही कर दिया। अन्ततः ‘बरउं संभु न त रहउं कुआरी।।’ पार्वती के इस अविचल अनुराग की विजय हुई। देवी पार्वती ने भाद्र शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र में आराधना की थी, इसीलिये इस तिथि को यह व्रत किया जाता है। तभी से भाद्रपद शुक्ल तीज को स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु के लिये तथा कुमारी कन्याएं अपने मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिये हरितालिक (तीज)- का व्रत करती चली आ रही हैं। ‘आलिभिर्हरिता यस्मात् तस्मात् सा हरितालिका’ सखियों के द्वारा हरी गयी- इस व्युत्पत्ति के अनुसार व्रत का नाम हरितालिका हुआ। इस व्रत के अनुष्ठान से नारी को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।