कैसे करें बगलामुखी साधना डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव डाॅ. महेश मोहन झा तंत्रा साधना भारतीय चिंतन धारा में शक्ति की महत्ता सर्वोपरि रही है। शक्ति ही सृजन की देवी है। यह पराशक्ति है। बौद्धों के यहां भी शक्ति का विकास शून्य के रूप में हुआ। वस्तुतः ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच धार्मिक स्वरूप में कोई भेद नहीं था। बौद्ध धर्म में तारा की उपासना की प्रतिज्ञा भी इस तथ्य को प्रमाणित करती है। सिद्धाचार्य श्री बालचन्द्र सूरि के बसंत विलास में शक्ति के संदर्भ का संकेत मंगलाचरण में ही मिलता है। ‘चित्तरूपी वस्त्र की चंचलता त्याग कर तथा प्राणादि पंच वायु के व्यापार को स्तंभित करके मूर्ध प्रदेश में स्थिर शोभावाली सरस्वती का जो तेजो मंडल देखते हैं, उसकी हम उपासना करते हैं।’ ‘जब सुषुम्ना रूपी मेघ सरस्वती के तेजोमय बिजली के दंड से भेदित होकर मूर्धा आकर निवास करता है, उस समय विद्या रहित मनुष्यों की भी रसना अर्थात् जिह्वा रूपी नाली में कवित्व जल बनकर बहने लगता है। तंत्र का महत्व उसकी साधना में है। पुरुष और प्रकृति की इच्छा के मध्य पराशक्ति का उद्बोधन करना ही लक्ष्य है। शरीर में ही पुरुष और प्रकृति तत्व का संसार है। तांत्रिकोपासना में भौतिकता से परे होकर शून्य तत्व के साथ जीव और ब्रह्म की परिकल्पना की गई है। इसके अंदर भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। इस तरह चमत्कार और भौतिक सुख की तीव्र लालसा ने तांत्रिक उपासना को लोकप्रिय बना दिया। तांत्रिक साधना ही शाक्त मार्ग का आधार बन गया। वाम मार्ग तथा तंत्रों के मंत्रों के प्रयोग से शाक्त साधना का आकाश रहस्यमय बादलों से आच्छन्न हो गया। देवी के विभिन्न रूपों की उपासना प्रचलित हुई। दस महाविद्याओं और नवदुर्गा की साधना की ओर सभी आकर्षित होने लगे। विभिन्न उपासकों के बीच प्रतिस्पर्धा भी बढ़ने लगी, लेकिन तांत्रिक साधना में गाणपत्य, शैव और वैष्णव तंत्रों का सृजन और मनन होने लगा। इस प्रकार शाक्त साधना में शक्ति को ही महत्व दिया गया जो प्राचीन काल से ही प्रचलित है। बगलामुखी तंत्रा: शाक्त तंत्रों के अंतर्गत दस महाविद्याओं का उल्लेख बड़े विस्तार से किया गया है। इनकी सिद्धि के परिणाम जहां एक ओर सुखद आश्चर्य की पुष्टि करते हैं, वहीं साधना विधि की जटिलता सारा उत्साह भंग कर देती है, क्योंकि आज के युग में शांत मन से एकांत में बैठकर साधना, तपश्या करना जन सामान्य के लिए संभव नहीं है। लेकिन अनेक ऐसे जन अभी भी मौजूद हैं, जो ऐसी साधनाओं द्वारा स्वयं तो लाभान्वित होते हैं ही, दूसरों का कल्याण भी करते हैं। दस महाविद्याओं के संदर्भ में एक साधना है बगलामुखी देवी की। इस नामकरण के संबंध में उक्ति है बगलामुखमिव मुखं यस्या बगलामुखी अर्थात ऐसी देवी (शक्ति का वह स्वरूप) जिसका मुख बगले के मुख की भांति हो। बगलामुखी तंत्र की प्रशंसा में कहा गया है। बगला सर्व सिद्धिदा..................’ सर्वान कामान् वाप्नुयात् .................. अर्थात् बगलामुखी देवी का स्तवन-पूजन करने वाले भक्त (अनुष्ठानकर्ता) की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। तंत्र ग्रंथों में बगलामुखी तंत्र को इसकी विशिष्टता के कारण अत्यंत श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। सर्वत्र इसकी प्रशंसा ही उपलब्ध है। मंत्र महार्णव में- यस्य स्मरण मात्रेण पवनोऽपि स्थिरायते अर्थात इस तंत्र को सिद्ध कर लेने के बाद इसके स्मरण मात्र से ही प्रचंड पवन भी स्थिर हो जाता है। शैव, वैष्णव आदि विभिन्न मतावलंबियों ने भी बगलामुखी तंत्र की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। सभी तांत्रिकों, साधकों ने इसका मुक्तकंठ से गुणगान करते हुए इसे अद्भुत, आश्चर्यजनक, चमत्कारी बताया है। बगलामुखी तंत्र के साधक के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। इस तंत्र के माध्यम से विश्व का प्रत्येक कार्य संभव है तथा संपूर्ण विश्व की शक्ति भी इस तंत्र से टक्कर लेने में असमर्थ है। शत्रु-विनाश, मुकदमा आदि मामलों में विजय आदि के लिए बगलामुखी तंत्र से बढ़कर कोई अन्य तंत्र नहीं है और तांत्रिक षट्कर्मों, विशेषकर स्तंभन कार्यों के लिए रामबाण है। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से इसका प्रयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त और शिवाजी जैसे प्रतापी हिंदू राजाओं ने भी अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए इस तंत्र का सहयोग लिया और अपने तांत्रिकों से इसका प्रयोग करवाया था। एक ओर, जहां इस तंत्र का प्रयोग हिंदू राजाओं ने अपने शत्रुओं का मान-मर्दन करने के लिए किया, वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम राजाओं ने भी इसकी सहायता ली। प्रसिद्ध इतिहासकार रिचर्ड ब्रन के अनुसार मुगल सम्राट औरंगजेब जैसे कट्टर मुसलमान राजा ने भी अपने शत्रुओं को पराजित करने के लिए अन्य उपायों के अतिरिक्त बगलामुखी तंत्र की साधना भी करवाई थी। इस तंत्र के साधक का शत्रु चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, साधक से अवश्य पराजित हो जाता है। इसका विधिवत प्रयोग करने पर सभी मनोरथों की पूर्ति संभव है। बगलामुखी का वैदिक अर्थ: बगलामुखी वक्त्र महारुद्र की महाशक्ति हैं। वैदिक शब्द ‘बल्गामुखी’ ही कालांतर में बगलामुखी हो गया। बगलामुखी का सीधा संबंध प्राणी के अथर्वा सूत्र से है जिसके सहयोग से मारण, मोहन, उच्चाटन आदि प्रयोग किए जा सकते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवता शत्रुओं पर इसी के माध्यम से सूक्ष्म प्रहार किया करते थे। प्रयोजन या उद्देश्य: मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, अनिष्ट ग्रहों की शांति, मनचाहे व्यक्ति का मिलन, धन लाभ एवं मुकदमे में विजय प्राप्त करने के लिए बगलामुखी मंत्र का जप, स्तोत्र पाठ, कवच पाठ और अनुष्ठान शीघ्र फलदायक होते हैं। जप का स्थान: शुद्ध, एकांत स्थान या घर, पर्वत की चोटी, घनघोर जंगल, सिद्ध पाषाण गृह अथवा प्रसिद्ध नदियों के संगम पर अपनी सुविधानुसार रात्रि या दिन में बगलामुखी का अनुष्ठान करें। पर इस साधना में एक वस्त्र धारण करने और खुले स्थान का निषेध है। यदि खुला स्थान हो तो ऊपर से कपड़ा या चंदोवा वगैरह लेना चाहिए। आसन और बिस्तर ऊनी व पीले रंग के हों तो उत्तम रहेगा। वस्त्रा तथा पुष्प विचार: बगलामुखी की पूजा-आराधना चंपा, कनेर आदि पीत वस्त्र धारण कर पीत पुष्पों से करनी चाहिए। भोजन: बगलामुखी अनुष्ठान में मध्याह्न के समय दूध में हल्दी मिलाकर, चाय, फलाहार आदि तथा रात्रि में केसर युक्त खीर, बेसन के लड्डू, बुंदिया, पूड़ी, शाक आदि ग्रहण करें। जप विधान: अनुष्ठानकर्ता को चाहिए कि अपने बड़े-छोटे कार्य के अनुसार बगलामुखी मंत्र का एक लाख, 36 हजार या दस हजार जप यथासंभव 21, 11, 9 या 7 दिन में करें। यदि पास में बगलामुखी देवी का मंदिर हो तो उसमें अथवा किसी शुद्ध स्थान पर एक छोटी चैकी अथवा पट्टे पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर पीले चावल से अष्टदल बनाकर उस पर बगलामुखी देवी का चित्र एवं यंत्र स्थापित करें। प्रथम दिन जितनी संख्या में जप करें, उतनी ही संख्या में प्रतिदिन करना चाहिए। बीच में न्यूनाधिक करने से जप खंडित हो जाता है। साधना विधान: बगलामुखी तंत्र की साधना का विस्तृत विवरण कई प्राचीन ग्रंथों (बृहद नीलतंत्र, मंत्र महार्णव आदि) में प्राप्त होता है। नाम मात्र के अंतर से लगभग सभी में साधना की एक ही पद्धति बताई गई है। बगलामुखी देवी की आराधना हेतु सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त में एक यंत्र का निर्माण किसी धातु पत्र (सोने, चांदी अथवा तांबे के पत्तर) पर करना चाहिए। श्रेष्ठता की दृष्टि से उभरा हुआ यंत्र विशेष उत्तम होता है। गहरे अंकन वाले यंत्र में चंदन, केसर और हल्दी का प्रयोग कर उसके गड्ढों को भर देना चाहिए। यदि धातु पत्र पर उत्कीर्णित यंत्र सुलभ न हो तो भोजपत्र पर अंकित करना चाहिए। भोजपत्र पर यंत्रांकन अनार की डंठल की कलम तथा अष्टगंध की मसि से करना चाहिए। अष्टगंध के अभाव में कपूर, अगर, कस्तूरी, श्रीखंड तथा कुंकुम से भी मसि बनाई जा सकती है। ध्यान रहे कि यंत्र का रेखांकन पूर्णतया शुद्ध हो। उसके बीचोबीच बिंदु, उसको घेरता हुआ त्रिकोण, उसको घेरता हुआ षट्कोण जो एक वृत्त से घिरा हो, वृत्त पर अष्टदल हों और अष्टदल को षोडश दल चक्राकार घेरे हों। यह चक्र भी सीधी रेखाओं से चारों ओर घिरा होना चाहिए। यथास्थान शब्द भी अंकित रहें। यंत्र का निर्माण रवि पुष्य अथवा गुरु पुष्य जैसे किसी शुभयोग में करके उसकी प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए। यह कार्य किसी योग्य पुरोहित के सान्निध्य में करना चाहिए। यंत्र सिद्ध हो जाने पर उसे अपने एकांत साधना कक्ष में स्थापित करके नित्य उसका पूजन एवं बगलामुखी मंत्र का जप करना चाहिए। जप संख्या के विषय में ग्रंथ एकमत नहीं हैं, उनमें दस हजार, चालीस हजार, एक लाख, सवा लाख आदि का निर्देश है। सामान्यतः पचास हजार जप से भी यंत्र सिद्ध हो जाता है। यंत्र सिद्ध हो जाने पर उसके समक्ष कुछ ही समय तक मंत्र का जप करने से संपत्ति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। साथ ही रोग, ऋण और बंधन से मुक्ति, विषशमन, कलह-क्रोध का शमन, स्तंभन, वशीकरण, शत्रु-जय आदि कामनाओं की पूर्ति होती है। तंत्र शास्त्र में वर्णित बगलामुखी मंत्र इस प्रकार है ‘¬ ींीं बगलामुखी ! सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ींीं ¬ स्वाहा।’ पूर्वलिखित बगलामुखी यंत्र और यह बगलामुखी मंत्र ही बगलामुखी तंत्र का मूलाधार है। इस बगलामुखी मंत्र के जप की प्रक्रिया इस प्रकार है। सर्वप्रथम निम्नलिखित विनियोग मंत्र पढ़ते हुए दाहिने हाथ से बगलामुखी देवी की प्रतिमा या यंत्र के सम्मुख तीन बार जल छोड़ें। विनियोग मंत्रा: ¬ अस्य श्री बगलामुखी महामंत्रस्य नारद ऋषिः त्रिष्टुप छन्दः। श्री बगलामुखी देवता, ींीं बीजं स्वाहा शक्तिः हल्री कीलकं मम श्री बगलामुखी प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः। इसके बाद निम्नलिखित मंत्र से ऋष्यादिन्यास करें। ऋष्यादिन्यास मंत्र: ¬ नारद ऋषये नमः (शिरसि), ¬ त्रिष्टुप छन्दसे नमः (मुखे), ¬ बगलामुखी देवतायै नमः (हृदयोः), ींीं बीजाय नमः गुह्ये स्वाहा शक्तये नमः पादयोः हल्री कीलकाय नमः नाभौ ¬ विनियोगाय नमः (सर्वांगे) ऋष्यादिन्यास के पश्चात करन्यास निम्नलिखित मंत्र से करना चाहिए। कर न्यास मंत्रा: ¬ ींीं अंगुष्ठाभ्यां नमः। ¬ बगलामुखी तर्जनीभ्यां नमः । ¬ सर्वदुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः । ¬ वाचं मुखं पदं स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः । ¬ जिह्नां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां् नमः। ¬ बुद्धिं विनाशय ींीं ¬ करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादिन्यास ¬ ¬ ींीं हृदयाय नमः। ¬ बगलामुखी शिरसे स्वाहा। ¬ सर्व दुष्टानां शिखायै वषट्। ¬ वाचं मुखं पदं स्तम्भय कवचाय हुम्। ¬ जिह्वां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट्। ¬ बुदिं्ध विनाशय ींीं स्वाहा अस्त्राय फट्। हृदयादिन्यास करने के पश्चात निम्न श्लोकों का पाठ कर बगलामुखी देवी का ध्यान करें। ध्यानार्थ: मध्ये सुधाब्धि-मणिमंडप-रत्नवेदी, सिंहासनो परिगतां परिपीत वर्णम्। पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांङ्गीम्, देवीं नमामि धृत- मुद्गर-वैरिजि ह्नाम्।। जह्नग्रमादाय करेण देवीम् वामेन शत्रून् परिपीडयन्तीम्। गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि।। अर्थात् सुधा सागर के मध्य मणिमय मंडप में रत्न निर्मित वेदी के ऊपर जो सिंहासन है, बगलामुखी देवी उस पर विराजमान हैं। वे पीतवर्णा हैं तथा पीतवस्त्र, पीतवर्ण के आभूषण तथा पीतवर्ण की ही माला को धारण किये हुए हैं। उनके एक हाथ में मुद्गर तथा दूसरे में शत्रु की जीभ है। वे अपने बायें हाथ में शत्रु की जीभ के अग्रभाग को धारण करके दायें हाथ के गदाघात से शत्रु को पीड़ित कर रही हैं। पीतवस्त्रों से विभूषित उन बगलामुखी देवी को मैं नमन करता हूं। देवी का ध्यान करने के बाद मानसोपचार पूजन कर बाह्यपूजा आरंभ करें। सर्वप्रथम अघ्र्य स्थापन करें। अपनी बायीं ओर त्रिकोण मंडल बनाकर उसके मध्य में ¬ पृथ्व्यै नमः ¬ कमलाय नम ¬ शेषाय नमः मंत्रा से गंध पुष्पादि से पूजन करें। पिफर ¬ अग्निमंडलाय दशकलात्मने बगलाघ्र्य पात्रासनाय नमः पढ़कर उस त्रिकोण के ऊपर अघ्र्यपात्रा रखकर उसके ऊपर ¬ दशकलात्मने अग्निमंडलाय नमः से पुष्प, अक्षत से पूजन करें। उसके बाद अक्षत, गंध, पुष्प से अघ्र्यपात्र के जल में निम्न मंत्र से पूजन करें- ¬ सूर्यमंडलाय द्वादश कलात्मने बगलाघ्र्यपात्राय नमः, द्वादश कलात्मने सूर्य मंडलाय नमः, ¬ सोममंडलाय षोडश कलात्मने बगलाघ्र्यपात्राय नमः । इसके पश्चात् जल में अंकुश मुद्रा से तीनों का आवाहन करें। फिर 10 बार हुं मंत्र का जप धेनुमुद्रा में व मंत्र 10 बार एवं देवी के मूल मंत्र से मत्स्य मुद्रा 10 बार करके फिर योनि मुद्रा से जल को प्रणाम करके जल को अपने ऊपर एवं पूजन सामग्री पर छिड़कें। इसके बाद प्राण-प्रतिष्ठित बगलामुखी यंत्र का पीठ-पूजन करें। पीठ पूजा के बाद ¬ जयायै नमः, ¬ विजयायै नमः, ¬ अजितायै नमः, ¬ अपराजितायै नमः, ¬ नित्यायै नमः, ¬ विलासित्यै नमः, ¬ दोग्ध्रयै नमः, ¬ अघोरायै नमः, ¬ मंगलायै नमः मंत्र से नवशक्ति का पूजन करने के बाद पुनः कूर्ममुद्रा से पुष्प लेकर अपने हृदय एवं देवी के मुख से तेज निकाल कर अपने नासिका मार्ग से अंजलि में पुष्प लेकर मूल मंत्र से यंत्र के ऊपर स्थापित करें। इसके बाद आवरण पूजन करें। आवरण पूजन के बाद देवी के मूल मंत्र का जप करके स्तोत्र आदि का पाठ करें। ध्यान रहे देवी के कवच का पाठ सबसे पहले करना चाहिए। पुरश्चरण: मंत्र महार्णव के अनुसार बगलामुखी मंत्र एक लाख जप करने पर सिद्ध हो जाता है, लेकिन कुछ अन्य तंत्र ग्रंथों के अनुसार इस मंत्र के पुरश्चरण में सवा लाख मंत्रों का जप होना चाहिए। मेरु तंत्र के अनुसार तो मात्र दस हजार की संख्या में जप करने से ही यह सिद्ध हो जाता है। नियम के अनुसार कलियुग में मंत्र की निर्दिष्ट संख्या से चैगुनी संख्या में जप करना श्रेयस्कर है। मंत्र सिद्धि के लिए प्रतिदिन एक नियत संख्या में ही जप करना चाहिए, क्योंकि तंत्र ग्रंथों में कहा गया है- यत्संख्यया समारब्धं तत्कत्र्तव्यमहर्निशम्। अर्थात् प्रथम दिन जितनी संख्या में जप किया जाए, उतनी ही संख्या में अनुष्ठान की अवधि में प्रतिदिन करना चाहिए। बीच में न्यूनाधिक करने से अनुष्ठान खंडित हो जाता है। जितना जप किया जाए उसके दशांश का हवन, हवन के दशांश का तर्पण और तर्पण के दशांश का मार्जन करना तथा मार्जन के दशांश का ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। मंत्र सिद्ध हो जाने के बाद साधक उसका कभी भी प्रयोग कर सकता है। यदि यह समस्त क्रिया पूरी निष्ठा के साथ विधिवत पूरी की जाए तो साधक के लिए कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। वह किसी भी समस्या के समाधान हेतु बगलामुखी देवी की कृपा सहज ही प्राप्त कर लेता है। प्रयोग और उनसे मिलने वाले पफल: मधु, शर्करायुक्त तिलों से होम करने से वांछित लोग वश में होते हैं। मधु, घृत तथा शर्करा युक्त नमक से हवन करने से आकर्षण क्षमता में वृद्धि होती है। तेल युक्त नीम की पत्तियों से हवन करने से शत्रुओं का स्तंभन होता है। हरताल, नमक तथा हल्दी से लेप करने पर शत्रुओं का स्तंभन होता है। रात्रि के समय श्मशान की अग्नि में कोयले, राई, पैसे और गुग्गुल से होम करने से शत्रु का शीघ्र शमन होता है। गिद्ध तथा कौए के पंख, सरसों के तेल, बहेरे आदि से चिता की अग्नि में होम करने से शत्रु का उच्चाटन होता है। दूर्वा, गिलोय तथा लावा को शहद, घृत और शक्कर के साथ मिलाकर होम करने से सभी रोग दूर होते हैं। पर्वत पर, वन में, नदी के तट पर अथवा शिवालय में बैठकर मंत्र का एक लाख जप कर तथा एकरंगी गाय के दूध में मिश्रित मधु एवं शर्करा को तीन सौ बार मंत्रों से अभिमंत्रित कर पीने से समस्त कामनाओं की सिद्धि होती है तथा हर प्रकार के विषों का प्रभाव नष्ट हो जाता है। पारा, मैनतिल तथा हरताल को शहद के साथ पीस कर मूल मंत्र से ढाई लाख बार अभिमंत्रित कर अपने शरीर पर लेप करने वाला मनुष्य अदृश्य हो जाता है। हरताल तथा हल्दी के चूर्ण को धतूरे के रस में मिलाकर उससे षटकोण में ींीं बीज और शत्रु के नाम के साथ स्तम्भय लिखें, फिर मंत्र के शेष अक्षरों से वेष्टित कर भूपुर का निर्माण करें। तदुपरांत कुम्हार के चाक की मिट्टी लाकर उसके द्वारा एक सुंदर बैल की मूर्ति तैयार करें। उस मूर्ति के भीतर मंत्र को रख दें। फिर उस बैल पर हरताल का लेप करके प्रतिदिन उसकी पूजा करें। इससे साधक के शत्रुओं की वाणी तथा सभी क्रियाकलाप स्तंभित कर देता है। श्मशान भूमि में बायें हाथ से खप्पर लेकर उस पर चिता के कोयले से यंत्र को लिखें, फिर उस यंत्र को अभिमंत्रित करके शत्रु की भूमि में गाड़ दें, उसकी गति स्ंतभित हो जाएगी। इंद्रवारुणी की जड़ को 7 बार अभिमंत्रित करके पानी में डाल देने से वरुण आदि देवों द्वारा की गई जलवर्षा आदि का स्तंभन हो जाता है। अशोक और करवीर के पत्र से हवन करने से संतान की प्राप्ति होती है। गुग्गुल और तिल से हवन करने से कैदी कारागार से छूट जाता है। गुग्गुल और घी से हवन करने से राजा वश में रहता है। ज्ञातव्य तथ्य: जब भी बगलामुखी देवी की आराधना करनी हो, सदैव मंत्र जप के पूर्व देवी के स्तोत्र तथा कवच का पाठ कर लेना चाहिए। पूजन की सारी सामग्री पीले रंग की होनी चाहिए। साधना शुभ मुहूर्त में आरंभ करनी चाहिए तथा साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करना चाहिए।