सुखमय जीवन के लिए धन परम आवश्यक है। अतः हर एक व्यक्ति धन-संपन्न होने का प्रयत्न करता है। परंतु यह भी सत्य है कि भाग्य से अधिक और समय से पहले व्यक्ति को जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
प्रारब्ध (भाग्य) के अनुरूप धन प्राप्ति तथा अनुकूल समय के बारे में ज्योतिष शास्त्र, जातक की जन्मकुंडली में स्थित ग्रह योग के आधार पर, उचित मार्गदर्शन करता है। कुंडली का प्रथम भाव लग्न मूलाधार होता है। लग्न और लग्नेश की स्थिति जातक के जीवन स्तर को दर्शाती है। दूसरा भाव धन स्थान कहलाता है। उससे पैतृक धन, बचत, बैंक बैलेंस आदि का विचार किया जाता है। एकादश भाव लाभ स्थान कहलाता है। इससे सब प्रकार के लाभ तथा उसके स्वरूप आदि का विचार किया जाता है।
केंद्र स्थानों को ‘विष्ण् ाु’ (सुख) स्थान, और त्रिकोण भावों को ‘लक्ष्मी’ (धन) स्थान माना गया है। लग्न भाव के केंद्र तथा त्रिकोण दोनों होने से बलवान लग्नेश की दशा जातक को उच्च स्तरीय धन-संपन्नता प्रदान करती है। पंचम तथा नवम भाव धनकारक होने से उनके स्वामी और उनसे संबंध रखने वाले ग्रह भी अपनी दशा अंतर्दशा में जातक को धन प्रदान करते हैं। मूलतः बलवान लग्नेश, धनेश और लाभेश का आपसी संबंध जातक का े बहुत धनी बनाता है।
यदि लग्नश्े ा धन भाव में, धनेश लाभ भाव में तथा लाभेश लग्न भाव में हो तो जातक बहुत धनवान होता है। बृहत पराशर होरा शास्त्र के अनुसार यदि धनेश तथा लाभेश दोनों एक साथ केंद्र या त्रिकोण स्थान में युक्त हों, तो जातक बहुत धनवान होता है।
केवल धनेश या लाभेश की त्रिकोण या केंद्र में स्थिति जातक को धनवान बनाती है। परंतु यदि द्वितीयेश ंचतुर्थ भाव में बृहस्पति से युक्त हो, या धनेश सुख भाव में उच्च राशि का हो तो जातक राजा तुल्य ऐश्वर्यवान होता है। यदि लग्नेश धन भाव में, धनेश लग्न से केंद्र स्थान में, तथा बृहस्पति लाभ स्थान में हो तो जातक बहुत धनवान होता है।
उत्तरकालामृत ग्रंथ के अनुसार जब द्वितीय, पंचम, नवम् तथा एकादश भावों के स्वामी बलवान हों और उनमें से किन्हीं दो का परस्पर युति, दृष्टि या स्थान परिवर्तन संबंध हो तो जातक बहुत धनवान होता है। उपर वर्णित ग्रहों का परस्पर संबंध जातक को धनवान बनाता है।
परंतु इनके साथ छठे, आठवें अथवा बारहवें (त्रिक) भाव के स्वामियों का भी संबंध हो तो ‘हानि’ तथा ‘ऋण’ योग का निर्माण होता है। इस स्थिति में भाव 2, 5, 9 व 11 के स्वामियों की दशा अंतर्दशा में धन हानि की संभावना रहती है। विभिन्न धन योग यदि लग्नेश का द्वितीय, चतुर्थ तथा पंचम भाव के स्वामियों के साथ संबंध हो तो जातक धनी होता है।
यदि द्वितीयेश के साथ लग्नेश, चतुर्थेश तथा पंचमेश का संबंध हो तो जातक धनी होता है। यदि पंचमेश के साथ चतुर्थेश का संबंध हो तो जातक धनी होता है। यदि नवमेश का द्वितीय, लग्न, चतुर्थ, दशम और एकादश स्थानों के स्वामियों से योग संबंध हो तो जातक धनी होता है। यदि दशमेश का लग्न, द्वि तीय, चतुर्थ और पंचम तथा एकादश स्थान के स्वामियों से योग (संबंध) हो तो जातक धनी होता है।
यदि लाभेश का लग्न, द्वितीय, चतुर्थ व पंचम भाव के स्वामियों से संबंध हो तो जातक धनी होता है। यदि लग्नेश अपने उच्च, मूल त्रिकोण, स्व गृह या मित्र राशि में शुभ ग्रह (बृहस्पति, शुक्र, बुध) से युक्त या दृष्ट हो तो, जातक सुखी, धनी व यशश्वी होता है। विभिन्न निर्धन योग यदि षष्ठेश के साथ लग्न, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, अष्टम, नवम्, दशम, एकादश तथा द्व ादश भाव के स्वामियों का संबंध हो तो दरिद्र योग बनता है।
व्ययेश के साथ लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, तृतीय, पंचम, सप्तम, अष्टम, नवम्, दशम तथा एकादश भाव के स्वामियों का संबंध हो तो धन-हानि योग का निर्माण होता है। उपर्युक्त धन और दारिद्र्य योग निर्माण करने वाले ग्रह पांच अंश के अंतराल में होने पर विशेष प्रभावी होते हैं। 5 से 12 अंश के अंतराल तक उनका प्रभाव कम होता है और 12 अंश से अधिक अंतराल के उपरांत उनका प्रभाव नगण्य हो जाता है।
कुछ विशिष्ट धन प्राप्ति योग वसुमत योग: लग्न अथवा चंद्रमा से उपचय (3, 6, 10, 11) भाव में केवल शुभ ग्रह स्थित हों तो जातक अतिशय धनी होता है। दो शुभ ग्रहों के इन स्थानों में होने पर जातक मध्यम धनी होता है। केवल एक ही शुभ ग्रह उक्त स्थान में होने पर अल्प धनी होता है। इन स्थानों में कोई शुभ ग्रह नहीं होने पर जातक धनहीन होता है। कुंडली में वसुमत योग बलवान हो तो अन्य कुयोग/ दरिद्र योग निष्प्रभावी हो जाते हैं। लग्न और चंद्र राशि दोनों से उपचय भाव में सब शुभ ग्रह स्थित हों तो प्रबल धन योग बनता है।
महापुरुष योग: केंद्र स्थान में शुभ ग्रह (बृहस्पति, शुक्र व बुध) हों तो जातक धनी होता है। यदि ये शुभ ग्रह स्वराशि या उच्च राशि में हों तो शुभ ‘महापुरुष’ योग का निर्माण कर जातक को राजा समान ऐश्वर्यवान बनाते हैं। बृहस्पति तथा बुध की धनेश (द्वितीयेश) से युति जातक के लिए धनदायक होती है। जिसके लग्न या चंद्रमा से छठे, आठवें तथा सातवें स्थान में शुभ ग्रह हों, वह धनवान और प्रतिष्ठित होता है। यदि लग्नेश व चंद्र राशीश की युति केंद्र में अधिमित्र की राशि में हो और उन पर बली शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो जातक संपत्तिवान तथा प्रतिष्ठित होता है। लग्नेश और दशमेश का स्थान परिवर्तन जातक को धनी व प्रसिद्ध बनाता है।
विपरीत राजयोग: यदि (1) अष्टमेश षष्ठ या द्वादश भाव में हो, (2) षष्ठेश अष्टमस्थ या द्वादशस्थ हो, अथवा (3) द्वादशेष षष्ठस्थ या अष्टमस्थ हो तो विपरीत राजयोग का निर्माण होता है जिसके फलस्वरूप जातक को सुख वैभव की प्राप्ति होती है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है। विशेष धन हानि योग यदि लग्न में शुभ ग्रह हो और बारहवें में पाप ग्रह हों तो उस व्यक्ति के पास धन नहीं ठहरता।
द्वितीय भाव में स्थित पाप ग्रह अन्य पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो जातक दरिद्र होता है। कुंडली में 2 या 3 ग्रह नीच होकर किसी भी भाव में स्थित हों तो जातक उन ग्रहों की दशा-भुक्ति में ऋणी रहता है। इन नीच ग्रहों पर बृहस्पति या शुक्र की दृष्टि होने पर धन आता-जाता रहता है।
1. केंद्र भावों में केवल पापी ग्रह के स्थित होने पर जातक बड़े परिश्रम से धन कमाता है परंतु वह उसके पास नहीं टिकता।
2. यदि कुंडली में केंद्र में कोई ग्रह नहीं हो तो जातक द्वारा कमाया धन स्थायी नहीं रहता।
3. लग्नेश, सूर्य व चंद्र पर जितना पाप प्रभाव होगा उसी अनुपात में मनुष्य निर्धन, असहाय व पीड़ित रहेगा।
सर्वार्थ चिंतामणि ग्रंथ के अनुसार यदि तृतीय (भाई), चतुर्थ (माता), पंचम (पुत्र), षष्ठ (मामा/ ननिहाल), सप्तम (पत्नी, ससुराल) आदि के स्वामी बलवान होकर धन भाव अथवा धनेश से संबंध बनाए तो जातक को क्रमशः भाई, माता पुत्र, ननिहाल, पत्नी आदि से धन प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि तृतीयेश इत्यादि ग्रह निर्बल होकर धन भाव के स्वामी से संबंध बनाएं और पापी ग्रह धन भाव को प्रभावित करते हों तो जातक को संबद्ध संबंधी द्वारा धन की हानि होती है।
चतुर्थेश तथा सप्तमेश का राशि परिवर्तन योग हो तथा भाग्येश सप्तम स्थान में हो तो ससुराल से धन प्राप्त होता है। षष्ठेश की शुभ ग्रह से युति हो तथा धनेश और भाग्येश की षष्ठ स्थान में युति हो तो जातक को ननिहाल से धन प्राप्त होता है। शेयर, सट्टा आदि से लाभ धनेश व अष्टमेश का संबंध जातक को लाटरी से धन दिलाता है। अष्टमेश व नवमेश का परिवर्तन हो तो लाटरी से धन मिलता है।
पंचमेश और अष्टमेश का परिवर्तन योग भी जातक को शेयर, सट्टे या लाटरी से धन लाभ कराता है। गडे़ धन की प्राप्ति चंद्र, बुध, बृहस्पति अथवा शुक्र लग्नेश होकर धन (द्वितीय) भाव में और धनेश अष्टम भाव में हो तो जातक को भूमि में गड़ा धन मिलता है। लग्नेश अष्टम भाव में हो और चतुर्थेश एवं अष्टमेश में शुभ संबंध हो तो उस स्थिति में भी गड़े धन की प्राप्ति होती है।
काला धन: द्वितीय भाव के विपरीत अष्टम भाव का स्वामी गुप्त धन, आयु तथा बिना मेहनत के धन प्राप्ति का कारक है। लाभ भाव के विपरीत पंचम भाव का भावेश अचानक धन की प्राप्ति करता है। इसके साथ बलवान चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होने से अतुल धन की प्राप्ति होती है। धन योगों का अष्टम भाव, अष्टमेश व राहु से संबंध होने पर जातक काला धन एकत्र करता है।
धनदायक दशा भुक्ति लग्नेश का आय एकादश भाव से संबंध हो तो लग्नेश की दशा धनदायक होती है। लग्नेश का धन भाव से संबंध हो तो लग्नेश तथा धनेश की दशा-अंतर्दशा में धन की प्राप्ति होती है। बलवान एकादशेश की दशा में जातक को धन लाभ होता है। पंचमेश और अष्टमेश में संबंध हो तो अष्टमेश की दशा-अंतर्दशा में धन की प्राप्ति होती है। आयु के अनुसार धन प्राप्ति बृहत पराशर होरा
शास्त्र ग्रंथ के अनुसार:
1. यदि बृहस्पति नवम भाव में और नवमेश केंद्र में हो तो जातक को 20वें वर्ष में विशेष धन की प्राप्ति होती है।
2. यदि धनेश और लाभेश का राशि विनिमय हो तो विवाहोपरांत जातक का भाग्य चमकता है और उसे धन की प्राप्ति होती है।
बलवान पंचमेश यदि नवम् भाव में स्थित हो तो संतान के जन्म के बाद जातक के धन की वृद्धि होती है। धनेश तथा नवमेश के राशि विनिमय से 32वें वर्ष में जातक को धन, वाहन और यश की प्राप्ति होती है। लग्नेश तथा लाभेश का राशि विनिमय हो तो जातक को 33 वें वर्ष में धन की प्राप्ति होती है। बुध उच्च का हो और नवमेश नवम भाव में हो तो जातक को 36वें वर्ष में अतुल धन की प्राप्ति होती है। एकादशेश शुभ ग्रहों के साथ केंद्र या त्रिकोण में स्थित हो तो जातक को 40 वें वर्ष में अतुल धन की प्राप्ति होती है।
यदि लग्नेश, धनेश और लाभेश केंद्र में स्थित हों और उन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक अपनी मेहनत से मध्य आयु में धनवान होता है। यदि लग्नेश और कोई अन्य शुभ ग्रह धनेश के साथ स्थित हो तथा उस राशि का स्वामी लग्न में बलवान हो, तो जातक प्रौढ़ अवस्था में धनी होता है।
धन और दरिद्र योगों का आकलन प्रत्येक कुंडली में धन और दरिद्र योग दोनों विभिन्न अनुपात में रहते हैं। जातक को इन योगों का फल देश, काल व पात्र की स्थिति तथा ग्रहों के बलाबल के अनुरूप उनकी दशा भुक्ति में प्राप्त होता है। इन योगों का आकलन करते समय कुंडली में जितने धन योग मिलें उन्हें एक ओर लिख लें। फिर जितने दरिद्र योग मिलें उन्हें अलग लिख लें।
तत्पश्चात् उनके बलाबल पर विचार करें। यदि दरिद्र योगों की अपेक्षा धन योगों की संख्या अधिक हो और वे बलशाली हों तो जातक को आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ता। और उसका जीवन सुखमय रहता है। कुंडली में धन योगों की अपेक्षा दरिद्र योग अत्यंत निर्बल हों तो जातक जीवनपर्यंत धनाढ्य रहेगा।
परंतु धन योगों की अपेक्षा दरिद्र योग संख्या में अधिक तथा बलशाली हों तो धन योगों के होते हुए भी दरिद्र योगों के प्रभाव में जातक जीवन में बार-बार आर्थिक तंगी का सामना करता है। धनाढ्य कुल में जन्म लेकर आगे दरिद्र बनने वाले जातकों की कुंडली में दरिद्र योग संख्या में अधिक तथा बलवान होते हैं।
धन योगों के अपेक्षाकृत कुछ बलवान होने पर जातक अपना जीवन भली प्रकार व्यतीत कर पाता है। योगों के बलाबल का सही आकलन करने में कुंडली के धन भाग तथा दरिद््रय भाग का महत्वपूण्र् ा योगदान होता है।
कुंडली में नवम स्थान से छः भाव (नवम, दशम, एकादश, व्यय, लग्न तथा धन) तक का भाग धन भाग और तृतीय स्थान से छः भाव (तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम, तथा अष्टम भाव) तक दारिद्र्य भाग होता है। धन योग कुंडली के धन भाग में तथा ‘दारिद्रय योग दारिद्रय भाग में अधिक प्रभावी होते हैं। जब धन और दरिद्र्य योग दोनों धन भाग में स्थित हों और धन योग उत्तम हों तो जातक निर्धन परिवार में जन्म लेकर भी धनवान बनता है।
जबकि धनी परिवार में जन्मा अपनी पारिवारिक धन संपत्ति में वृद्धि करता है। परंतु यदि दारिद्र्य योगों की शक्ति अधिक हो तो निर्धन परिवार में जन्मा व्यक्ति भरसक प्रयास करने के बावजूद अपनी स्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं कर पाता।
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