होलिकोत्सव (होली)
होलिकोत्सव (होली)

होलिकोत्सव (होली)  

ब्रजकिशोर भारद्वाज
व्यूस : 9281 | मार्च 2013

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। अथवा पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः। ऊर्वाे र्वैश्यो भगवतः पद्भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत।। विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। इनके नाम से ही चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की प्रधानता है और इनके चार मुख्य त्योहार, क्रमशः रक्षा बंधन, दशहरा (विजया दशमी), दीपावली और होली हैं।

क्योंकि चारों वर्णों की उत्पत्ति विराट् के एक शरीर से है, इसलिए प्रत्येक मानव के शरीर में चारों वर्ण निहित हैं। अतः मूल रूप से यह कहना सर्वथा गलत होगा कि अमुक त्योहार अमुक वर्ण से संबंधित है। हां, ऐसा संभव है कि अमुक वर्ण के लिए अमुक त्योहार की विशेष प्रधानता हो। परंतु संपूर्ण त्योहारों में होली सर्वश्रेष्ठ है। जिस प्रकार मकान में नींव (आधार) का ही महत्व है, उसी प्रकार शरीर रूपी घर के लिए पैर ही आधार स्तंभ हैं। सब धर्मों की सिद्धि का मूल सेवा है।

सेवा किये बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अतः मूलभूत सेवा ही जिसका धर्म है, वह शूद्र सब वर्णों से महान है। जब शूद्र सब वर्णों से महान् है, तो फिर उसके लिए निर्धारित होली का त्योहार भी सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। ब्राह्मण का धर्म मोक्ष के लिए, क्षत्रिय का धर्म भोग के लिए, वैश्य का धर्म अर्थ के लिए और शूद्र का धर्म धर्म के लिए है।

अतः इसकी वृत्ति से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने द्वारिकावासियों, ब्रजवासियों, अपनी रानियों, पटरानियों एवं आह्लादिनी शक्ति राधा के साथ होली का उत्सव मनाया है। स्वयं देवता भी इस आनंद में पीछे नहीं रहे। भगवान शंकर ने तो श्मशान की राख से ही होली खेल कर अपने को कृतकृत्य किया।

होली का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह दो भागों में विभक्त है। पूर्णिमा को होली का पूजन और होलिका दहन तथा फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को रंग- गुलाल, कीचड़ आदि से होली। होली, होलिका दहन निर्णय प्रदोष व्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा। तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे।। इति नारद-वचनात् प्रदोषव्यापिनीत्युक्तम। सदा फाल्गुन मास की पूर्णिमा को प्रदोषव्यापिनी ग्रहण करें।

उसमें भद्रा के मुख को त्याग कर निशा मुख में होली का पूजन करें। इसे नारद के वचन से प्रदोषव्यापिनी ग्रहण करें। हेमाद्रि तथा मदनरत्न में भी भविष्य पुराण का वचन है कि हे पार्थ, इस पूर्णिमा में रात्रि के आने पर गोमय से किये हुए चैकोर गृहांगण (घर के चैक) में बालकों की रक्षा करें। इत्यादि से वहां पर उसका विधान कहा है। इससे यह पूर्व विद्धा (अर्थात पूर्व दिन ही प्रदोष काल में प्राप्त होने पर) ग्रहण करें। श्रावणी दुर्गा नवमी, दुर्गाष्टमी, हुताशनी (होली), शिव रात्रि तथा बलि के दिन वे सब पूर्वा विद्धा ही करने चाहिए।

यह बृहद्यम और ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है: दोनों दिन प्रदोष काल में प्राप्त हों, तो दूसरा ही ग्रहण करें। सायाह्ने होलिकां कुर्यात् पूर्वाह्ने क्रीडनं गवाम्। निर्णयामृत के अनुसार सायाह्न में होलिका करें और पूर्वाह्न में गौओं की क्रीड़ा करं। ज्योतिर्निबंधेतु- प्रतिपद भूत भद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा। संवत्सरं च तद्राष्ट्रं पुरं दहति साभुतम्।।

ज्योतिर्निबंध में कहा है कि प्रतिपदा, चतुर्दशी और भद्रा में जो होलिका को दिन में पूजित करता है, वह एक वर्ष तक उस देश (राष्ट्र) और नगर को आश्चर्य से दहन करता है। प्रथम दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो, तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर के सूर्याेदय होने से पूर्व होली का दहन करना चाहिए। (चंद्रप्रकाश) यदि पहले दिन प्रदोष न हो और हो, तो भी रात्रि भर भद्रा रहे (सूर्योदय होने से पहले न उतरे) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा समाप्त होती हो, तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो, तो भी उसके पुच्छ में होलिका दीपन कर देना चाहिए। (भविष्योत्तर एवं लल्ल)।

यदि पहले दिन रात्रि भर भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा का उत्तरार्ध मौजूद भी हो, तो भी उस समय यदि चंद्र ग्रहण हो, तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो, तब भी सूर्यास्त के पीछे होली जला देनी चाहिए। (मुहूर्त चिंतामणि)। यदि दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा हो और भद्रा उससे पहले उतरने वाली हो, किंतु चंद्र ग्रहण हो, तो उसके शुद्ध होने के पीछे स्नान-दानादि कर के होलिका दहन करना चाहिए। (स्मृति कौस्तुभ) यदि फाल्गुन दो हों (मलमास हो) तो शुद्ध मास (दूसरे फाल्गुन) की पूर्णिमा को होलिका दहन करना चाहिए।

(धर्मसार) हुताशनी मलमासे न भवति। होली पूजन विचार होली का पूजनोत्सव रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, ढुंढा, प्रह्लाद तो मुख्य हैं ही, इसके अलावा इस दिन नवान्नेष्टि यज्ञ भी संपन्न होता है। इसी परंपरा से ‘धर्मध्वज’ राजाओं के यहां माघी पूर्णिमा के प्रभात में शूर, सामंत और सभ्य मनुष्य गाजे-बाजे सहित नगर से बाहर वन में जा कर शाखा सहित वृक्ष लाते हैं और उसको, गंध-अक्षतादि से पूजा कर, नगर या गांव से बाहर पश्चिम दिशा में आरोपित कर के स्थित कर देते हैं। जनता में यह होली दंड (होली का डांडा) या प्रह्लाद के नाम से प्रसिद्ध है। यदि इसे ‘नवान्नेष्टि’ का यज्ञ स्तंभ माना जाए, तो निरर्थक नहीं होगा। व्रती को चाहिए कि वह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि के अनंतर ‘मम बालक बालकादिभिः सह सुखशांति-प्राप्त्यर्थं होलिका व्रतं करिष्ये’ से संकल्प कर के काष्ठ खंड के खड्ग बनवा कर बालकों को देवें तथा उनको उत्साही सैनिक बनावें।

वे निःशंक हो कर खेल-कूद करें और परस्पर हंसें। इसके अतिरिक्त होलिका के दहन स्थान को जल छिड़क कर शुद्ध कर के उसमें सूखा काष्ठ, सूखे उपले और सूखे कांटे आदि का स्थापन करें। पुनः सायं काल के समय प्रसन्न मन से संपूर्ण पुरवासियों एवं गाजे-बाजे के साथ होली के समीप जा कर शुभासन पर पूर्व या उत्तर मुख हो कर बैठें और ‘मम सकुटुंबस्य सपरिवारस्य पुरग्रामस्थजनपदसहितस्य वा सर्वापच्छांतिप्रशमनपूर्वक- सकल शुभफल प्राप्त्यार्थं ढुंढा प्रीति कामनया होलिका पूजन करिष्ये’ यह संकल्प कर के पूर्णिमा प्राप्त होने पर अछूत या सूतिका के घर से बालकों द्वारा अग्नि मंगवा कर, होली को दीप्तिमान् करें और चैतन्य होने पर गंध, अक्षत, पुष्पादि से शोडषोपचार पूजन कर के ‘‘असृक्पाभयसंत्रस्तैः कृत्वा त्वं होलि बालिशैः। अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।।

’’ इस मंत्र से तीन प्रदक्षिणा या प्रार्थना कर के अघ्र्य दें तथा लोक प्रसिद्ध होली दंड (प्रह्लाद) या शास्त्रीय ‘यज्ञ स्तंभ’ को, शीतल जल से अभिषिक्त कर के, एकांत में रख दें। उपरांत घर से लाये हुए खेड़ा, खांडा और वरकूलिया आदि को होली में डाल कर जौ, गेहूं की बाल और चने के होलों को होली की ज्वाला से सकं और यज्ञ सिद्ध नवान्न तथा होली की अग्नि तथा भस्म ले कर घर आवें। वहां आ कर वास स्थान के प्रांगण में गोबर से चैका लगा कर अन्नादि का स्थापन करं।

उस अवसर पर काष्ठ के खंडों को स्पर्श कर के बालकगण हास्य सहित शब्द उच्चारें। बालकों का रात्रि आने पर संरक्षण किया जाये और गुड़ के बने हुए पकवान (पुआ-पूड़ी) उनको खाने को दें। इस प्रकार करने से ढंढा के दोष शांत हो जाते हैं और होली के उत्सव से अभूतपूर्व सुख-शांति मिलती है। होली की प्रासंगिकता कथा प्रह्लाद् दैत्यराज हिरण्यकशिपु का पुत्र था। वह बाल्यावस्था से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था।

हिरण्यकशिपु घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी से दिव्य वरदान प्राप्त कर उसका दुरुपयोग करने लगा। उसने इंद्रासन पर भी अपना अधिकार कर लिया तथा अपने भाई हिरण्याक्ष के वधकत्र्ता भगवान् विष्णु से विशेष विद्वेष करने लगा। संभवतः इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप उनके पुत्र प्रह्लाद में विष्णु (कृष्ण) के प्रति भक्ति भावना, देवर्षि नारद जी की कृपा से, जागृत हो गयी थी।

एक बार हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र की शिक्षा के संबंध में जानने का प्रयास किया, तो पुत्र की भक्ति भावना का ज्ञान हुआ। इस पर क्रोधित हो कर उन्होंने प्रह्लाद् को गोद से नीचे जमीन पर पटक दिया तथा यातनाओं का पहाड़ प्रह्लाद् पर टूट पड़ा। प्रह्लाद् के मर्म स्थानों को शूलों से भिदवाया, बडे़-बडे़ मतवाले हाथियों से उसे कुचलवाया, विषधर नागों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे फिकवा दिया, शंबरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अंधेरी कोठरियों में बंद कराया, विष पिलाया, भोजन बंद कर दिया, बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बारी से डलवाया, आंधी में छोड़ दिया, पर्वत के नीचे दबवा दिया।

स्वयं हिरण्यकशिपु की बहन होलिका प्रह्लाद् को गोद में ले कर आग में बैठ गयी। परंतु भगवत् कृपा से जो दुपट्टा होलिका को ब्रह्माजी से प्राप्त हुआ था, वही दुपट्टा भक्त प्रह्लाद् के शरीर पर, वायुदेव की कृपा से, आ पड़ा और होलिका की शक्ति, जो दुपट्टे में निहित थी, चली जाने के कारण वह ध्वंस हो गयी। भक्त प्रह्लाद् हरि नाम स्मरण करते हुए सकुशल अग्नि से बाहर निकल आये।

पुनः हिरण्यकशिपु का वध भगवान नृसिंह के द्वारा हो गया। इसी पुनीत अवसर पर नवीन धान्य (जौ, गेहंू, चने) के खेत पक कर तैयार हो गये और मानव समाज में उन धान्यों को उपयोग में लेने का प्रयोजन भी उपस्थित हो गया। किंतु धर्म प्राण हिंदू भगवान यज्ञेश्वर को अर्पण किये बिना नवीन अन्न को उपयोग में नहीं ले सके। अतः फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को समिधास्वरूप उपले आदि को एकत्रित कर के, उसमें यज्ञ की विधि से अग्नि स्थापन, प्रतिष्ठा, प्रज्ज्वलन एवं पूजन कर के विविध रक्षोघ्न मंत्रों से यव गोधूमादि के चरू स्वरूप बालों की आहुति दी और हुतशेष धान्य को घर ला कर प्रतिष्ठित किया।

उसी से प्राणों का पोषण हो कर सभी प्राणी हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ हुए तथा होली के रूप में नवान्नेष्टि यज्ञ को संपन्न किया। तभी से होली पूजन की यह परंपरा मानव समाज में विकसित हो गयी। इसे वसंत ऋतु के आगमन में किया गया महायज्ञ भी मानते हैं। लोक परंपरा के अनुसार नव विवाहिता स्त्री को प्रथम बार ससुराल की जलती होली नहीं देखनी चाहिए। प्रतिपदा का भव्य होती उत्सव धुलैंडी होली के अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को सभी बालक, वृद्ध, नर-नारी, भांति-भांति की पिचकारियां और अनेक प्रकार के रंग-गुलाल आदि से एक दूसरे से होली का खेल खेलते हैं।

विभिन्न प्रकार के रंगों से चेहरे को पोत देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो नाली की गंदी कीचड़, गड्ढों में भरे हुए पानी से ही एक दूसरे को सराबोर करते हैं। साल भर की ईष्र्या एवं द्वेष भावना मन से मिट जाती हैं। एक दूसरे को अश्लील गालियां आदि भी देते हैं। बडे़-बूढ़ों का चरण स्पर्श कर के आर्शीवाद लेते हैं। भाई-भाई आपस में गले मिलते हैं। ब्रज मंडल में तो यह उत्सव पूरे फाल्गुन मास ही मनाया जाता है।

होली से पूर्व नवमी, दशमी, एकादशी को बरसाना, नंदगांव, वृंदावन में लट्ठामार होली एवं रंग की होली अपने आप में दिव्य है, जिसे देखने भारतवर्ष के कोने-कोने से तथा विदेशों से भी भक्त काफी संख्या में आते हैं। सब जोर-जोर से होली गीत और रसिया गाते हैं; उछलते-कूदते और फांदते हैं। होली गीत गाने, हंसने तथा निर्भीक निःसंकोच बोलने का आयुर्वेदिक महत्व भी है। गाने का गले से संबंध होने के कारण गले की पूरी कसरत हो जाती है। परिणामतः कफ दब जाता है। अ

बीर-गुलाल के गले में जाने से फेफडे़ तथा गले में रुकी कफ साफ हो जाती है। परंतु बड़ी विडंबना है कि आज के मानव समाज ने होली के इस त्योहार को दूषित कर दिया है। प्राणी शत्रु भावना से होली खेलते हैं। पुरानी दुश्मनी निकालते हैं। युवा वर्ग काम वासना की भावना से ही स्त्री वर्ग पर रंग डालना, गुलाल लगाना आदि क्रियाएं करता है, जो नितांत गलत और जघन्य अपराध हंै। इनसे बचना चाहिए।

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