हृदय हमारे शरीर का महत्वपूर्ण अंग है जिसकी हर धड़कन जीवन है। जीवन भर शरीर को सक्रिय रखने के लिए प्रकृति ने उसे विशेष ढंग से बनाया है। किंतु कुछ शारीरिक एवं मानसिक कारणों से जब यह विकारग्रस्त होता है तो रोग उत्पन्न होते हैं, जो इंसान के लिए हानिकारक तो होती ही हैं साथ ही जानलेवा भी। हृदय एक आश्चर्यजनक पंप है जो फेफड़ों से आए शुद्ध रक्त को शरीर के प्रत्येक भाग तक पहुंचाता है और वहां से लौटे हुए अशुद्ध रक्त को शुद्ध करने के लिए फेफड़ों में भेजता है।
यह कार्य हृदय बिना रूके जीवन पर्यंत करता रहता है। इस प्रकार हृदय शरीर में रक्त का संचार निरंतर बनाए रखता है, जिससे शरीर के प्रत्येक सूक्ष्म भाग तक पोषक सामग्री पहुंचायी जाती है। इस सारी प्रणाली को हृदय संवहनी प्रणाली कहते हैं। जब यह प्रणाली अपने नियमित रूप से कार्य करने में असक्षम होने लगती है तो हृदय रोग के लक्षण शुरू हो जाते हैं। हृदय रोग ज्योतिषीय दृष्टिकोण से ज्योतिषीय दृष्टि से हृदय रोग का प्रतिनिधित्व कर्क राशि और सिंह राशि करती है।
इसी प्रकार जन्मकुंडली के द्वादश भावों में चतुर्थ भाव और पंचम भाव हैं। ग्रहों में सूर्य एवं चंद्र का संबंध हृदय से है। किसी भी जन्मकुंडली में यदि सूर्य, चंद्र चतुर्थ एवं पंचम भाव, चतुर्थेश एवं पंचमेश बलहीन हो तो जातक को हृदय संबंधित रोग हो सकते हैं। विभिन्न लग्नों में हृदय रोग मेष लग्न: लग्नेश मंगल षष्ठ, अष्टम भाव में शनि से युक्त या दृष्ट हो, सूर्य राहु या केतु से युक्त या दृष्ट हो, चंद्र-बुध से युक्त होकर चतुर्थ या पंचम भाव में हो तो जातक को हृदय संबंधित रोग हो सकते हैं। वृष लग्न: अकारक गुरु चतुर्थ भाव में राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो, चतुर्थेश सूर्य षष्ठ या अष्टम भाव में एवं लग्नेश शुक्र अस्त या वक्री हो तो जातक को हृदय रोग हो सकता है। मिथुन लग्न: चतुर्थेश बुध अस्त होकर मंगल, राहु या केतु से युक्त या दृष्ट होकर चतुर्थ भाव में स्थित हो या दृष्टि दे तो जातक को हृदय रोग हो सकता है।
कर्क लग्न: शनि चतुर्थ भाव में हो या दृष्टि दे, मंगल-शुक्र षष्ठ भाव में या अष्टम भाव में हो, चंद्र सूर्य से अस्त हो और राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को हृदय रोग होता है। सिंह लग्न: मंगल सूर्य से अस्त होकर राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो, गुरु-चंद्र चतुर्थ भाव में स्थित होकर शनि से दृष्ट हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है। कन्या लग्न: लग्नेश बुध सूर्य से अस्त होकर चतुर्थ भाव में होकर, मंगल से दृष्ट हो, चतुर्थेश गुरु षष्ठ या अष्टम भाव में चंद्र से युक्त हो तो जातक को हृदय रोग का सामना करना पड़ता है। तुला लग्न: चतुर्थेश शनि षष्ठ, अष्टम् या द्वादश भाव में हो, गुरु चतुर्थ भाव में हो, सूर्य चंद्र राहु-केतु से दृष्ट या युक्त हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
वृश्चिक लग्न: लग्नेश मंगल लग्न में राहु-केतु से युक्त हो, चतुर्थेश शनि षष्ठ भाव या अष्टम भाव में हो, सूर्य बुध चतुर्थ भाव में हो तो जातक हृदय रोग से परेशान होता है। धनु लग्न: सूर्य-गुरु तृतीय, षष्ठ या अष्टम भाव में हो, चंद्र-शुक्र चतुर्थ भाव में राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो, शनि चतुर्थ भाव में दृष्टि दे तो जातक को हृदय रोग का सामना करना पड़ता है। मकर लग्न: गुरु चतुर्थ भाव में हो या चतुर्थ भाव को देखे, सूर्य राहु-केतु से युक्त हो, शनि सूर्य के नक्षत्र में हो तो जातक को हृदय रोग हो सकता है। कुंभ लग्न: गुरु राहु या केतु से युक्त होकर अष्टम या द्वादश भाव में हो, मंगल सूर्य चतुर्थ भाव या दशम भाव में हो, शनि षष्ठ भाव में चंद्र से युक्त हो तो जातक को हृदय संबंधित रोग होते हैं।
मीन लग्न: शनि शुक्र से युक्त होकर चतुर्थ, सप्तम या दशम भाव में हो और राहु-केतु से युक्त हो, गुरु सूर्य से अस्त होकर षष्ठ, अष्टम भाव में हो तो जातक को हृदय रोग का सामना करना पड़ता है। रोग संबंधित ग्रहों की दशा-अंतर्दशा और गोचर पर निर्भर करता है। जब तक दशा-अंतर्दशा और गोचर प्रतिकूल रहेंगे तब तक जातक को रोग का सामना करना पड़ता है उसके उपरांत रोग से मुक्ति मिल जाती है। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण आयुर्वेदिक दृष्टि से रोग वात, पित्त एवं कफ के असंतुलन से होता है। हृदय रोग अधिक परिश्रम, भय, शोक, चिंता, तनाव एवं अधिक गर्म, अम्ल, कसैले, तीखे एवं नशीले पदार्थों के सेवन से कुपित, वातादि दोष हृदय में पहुंच कर रक्त के साथ मिलकर हृदय रोग उत्पन्न करते हैं।
हृदय में स्थित वायु की गति में कफ, पित्त में खराबी आने पर हृदय में तेज दर्द उत्पन्न होता है, सांस रूकने लगती है और कभी-कभी तो रूक ही जाती है। इसका तुरंत उपचार न होने पर व्यक्ति विशेष की मृत्यु भी हो जाती है। आयुर्वेद में इस रोग को हृदय शूल कहते हैं। आधुनिक युग में इसे ‘दिल का दौरा’ कहते हैं। हृदय शूल में ‘वायु’ प्रधान दोष होता है तथा रक्त भी दूषित होता है। यही वायु रक्त के साथ मिलकर हृदय के काम में बाधा डालती है जिससे दर्द उत्पन्न होता है और दिल का दौरा या हृदय या शूल का कारण बनता है। हृदय रोग के घरेलू उपचार
- अश्वगंधा तथा पिप्पली को मिलाकर प्रातः, दोपहर, सायंकाल इसका सेवन करने से हृदय तथा नसों में बल बढ़ता है और हृदय शूल नहीं होता।
- सौंठ, हल्दी, कटूफल, अतीस, हरड़ को पीसकर पानी मंे उबाल कर काढ़ा बनाकर सेवन करने से रक्त में कोलेस्ट्राॅल और हृदय शूल नहीं होता।
- हींग, धनिया, हरड़, पुष्कर मूल, तीन प्रकार के नमक को मिलाकर चूर्ण बना लें और जौ के काढ़े के साथ सेवन करने से हृदय शूल में राहत मिलती है।
-शृंग भस्म 125 मि. ग्रा. दूध या शहद के साथ मिलाकर चाटने से हृदय शूल से राहत मिलती है।
- शृंग भस्म, मारंगी चूर्ण, काली मिर्च, मुनक्का, पिप्पली और खजूर को मिलाकर पीसें और गोलियां बना लें। दिन में चार बार पानी के साथ दो-दो गोली लेने से हृदय शूल मंे राहत मिलती है।
- प्याज और लहसुन का उपयोग भोजन के साथ संतुलित मात्रा में किया जाए तो रक्त में कोलेस्ट्राॅल की मात्रा सही बनी रहती है जिससे रक्त संचार में बाधा नहीं होती और हृदय शूल नहीं होता।
- प्रातःकाल नाश्ते में एक पपीता एक महीने तक खाने से हृदय शूल में आराम मिलता है। ध्यान रखें कि पपीता खाने के दो घंटे तक कुछ न खाएं।
-प्रातःकाल तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से रक्त चाप ठीक रहता है और हृदय शूल नहीं होता। याद रखें कि पानी रात को तांबे के बर्तन में उबाल कर रखें, जिसे प्रातःकाल छान कर पीयें।