गुप्त रोग एवं ज्योतिष वागा राम परिहार भ कर्मों के कारण ही मानव जीवन मिलता है। जीव योनियों में मानव जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन क्या मानव जीवन को प्राप्त करना ही पर्याप्त है या जीवन में पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त कर अंतिम अवस्था को प्राप्त करना? निःसंदेह पहला सुख निरोगी काया ही है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो तो मानव जीवन पिंजरे मंे बंद पक्षी की तरह ही कहा जाएगा। गुप्त रोग अर्थात् ऐसे रोग जो दिखते नहीं हांे लेकिन वर्तमान में इसका तात्पर्य यौन रोगों से लिया जाता है। यदि समय रहते इनका चिकित्सकीय एवं ज्योतिषीय उपचार दोनों कर लिए जाएं तो इन्हें घातक होने से रोका जा सकता है। ज्योतिष के अनुसार किसी रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जन्म समय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष में पाप ग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप प्रभाव, पाप ग्रहों के नक्षत्र में उपस्थिति एवं पाप ग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। इन रोग कारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वृश्चिक राशि व शुक्र को यौन अंगों का, पंचम भाव को गर्भाशय, आंत व शुक्राणु का षष्ठ भाव को गर्भ मूत्र की बीमारियांे, गुर्दे, आंत रोग, गठिया और मूत्रकृच्छ का सप्तम भाव को शुक्राशय, अंडाशय, गर्भाशय, वस्ति, मूत्र व मूत्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि, मूत्रद्वार, शुक्र एवं अष्टम भाव को गुदा, लिंग, योनि और मासिक चक्र का तथा नक्षत्रों में पूर्वाफाल्गुनी को गुप्तांग एवं कब्जियत, उत्तरा फाल्गुनी को गुदा लिंग व गर्भाशय और हस्त को प्रमेह कारक माना गया है। राशियों में कन्या राशि संक्रामक गुप्त रोगों वसामेह व शोथ विकार और तुला राशि दाम्पत्य कालीन रोगों की कारक कही गई है। ग्रहों में मंगल को गर्भपात, ऋतुस्राव व मूत्रकृच्छ, बृहस्पति को वसा की अधिकता से उत्पन्न रोग व पेट रोग और शुक्र को प्रमेह, वीर्य की कमी, प्रजनन तंत्र के रोग, मूत्र रोग गुप्तांग शोथ, शीघ्र पतन व धातु रोग का कारक माना गया है। इन कारकों पर अशुभ प्रभाव का आना या कारक ग्रहों का रोग स्थान या षष्ठेश से संबंधित होना या नीच नवांश अथवा नीच राशि में उपस्थित होना यौन रोगों का कारण बनता है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ज्योतिषीय ग्रह योगों के कारण भी यौन रोग हो सकते हैं। शनि, मंगल व चंद्र यदि अष्टम, षष्ठ द्वितीय या द्वादश में हों तो काम संबंधी रोग होता है। इनका किसी भी प्रकार से संबंध स्थापित करना भी यौन रोगों को जन्म देता है। कर्क या वृश्चिक नवांश में यदि चंद्र किसी पाप ग्रह से युत हो तो गुप्त रोग होता है। यदि अष्टम भाव में कई पाप ग्रह हांे या बृहस्पति द्वादश स्थान में हो या षष्ठेश व बुध यदि मंगल के साथ हांे तो जननेंद्रिय रोग होता है। शनि, सूर्य व शुक्र यदि पंचम स्थान में हो, या दशम स्थान में स्थित मंगल से शनि का युति, दृष्टि संबंध हो या लगन में सूर्य व सप्तम में मंगल हो तो प्रमेह, मधुमेह या वसामेह होता है। चतुर्थ में चंद्र व शनि हों या विषम राशि लग्न में शुक्र हो या शुक्र सप्तम में लग्नेश से दृष्ट हो या शुक्र की राशि में चंद्र स्थित हो तो जातक अल्प वीर्य वाला होता है। शनि व शुक्र दशम या अष्टम में शुभ दृष्टि से रहित हों, षष्ठ या द्वादश भाव में जल राशिगत शनि पर शुभ ग्रहों का प्रभाव न हो या विषम राशिगत लग्न को समराशिगत मंगल देखे या शुक्र, चंद्र व लग्न पुरुष राशि नवांश में हों या शनि व शुक्र दशम स्थान में हों या शनि शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में हो तो जातक नपुंसक होता है। चंद्र सम राशि या बुध विषम राशि में मंगल से दृष्ट हो या षष्ठ या द्वादश भाव में नीचगत शनि हो या शनि व शुक्र पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक नपुंसक होता है। राहु, शुक्र व शनि में से कोई एक या सब उच्च राशि में हों, कर्क में सूर्य तथा मेष में चंद्र हो तो वीर्यस्राव या धातु रोग होता है। लग्न में चंद्र व पंचम स्थान में बृहस्पति व शनि हों तो धातु रोग होता है। कन्या लग्न में शुक्र मकर या कुंभ राशि में स्थित हो व लग्न को बुध और शनि देखते हांे तो धातु रोग होता है। यदि अष्टम स्थान में मंगल व शुक्र हांे तो वायु प्रकोप व शुक्र मंगल की राशि में मंगल से युत हो तो भूमि संसर्ग से अंडवृद्धि होती है। लग्नेश छठे भाव में हो तो षष्ठेश जिस भाव में होगा उस भाव से संबंधित अंग रोगग्रस्त होता है। यदि यह संबंध शुक्र/पंचम/सप्तम/अष्टम से हो जाए तो निश्चित रूप से यौन रोग होगा। यदि जन्मांग में शुक्र किसी वक्री ग्रह की राशि में हो या लग्न में लग्नेश व सप्तम में शुक्र हो तो यौन सुख अपूर्ण रहता है।