गरुढ़ व्रत
गरुढ़ व्रत

गरुढ़ व्रत  

व्यूस : 6332 | दिसम्बर 2008
गरुड़ व्रत पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज ब्रजवासी गरुड़ व्रत एक दिव्य व्रत है। यह किसी भी पूर्णमासी से प्रारंभ किया जा सकता है, किंतु मार्गशीर्ष की पूर्णिमा से शुरू कर इसे एक वर्ष तक करने की विशेष महिमा है। एक वर्ष पूरा हो जाने पर पुनः मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को ही इसका उद्यापन करना चाहिए। व्रत एवं उद्यापन में गणेश तथा नवग्रहादि पूजनोपरांत गरुड़ व गरुड़ पर विराजमान भगवान लक्ष्मीनारायण का पूजन करना चाहिए। पूजन पुरुषसूक्त व श्रीसूक्त से ही षोडशोपचार विधि से संपन्न करें। बारह ब्राह्मणों व एक ब्राह्मणी को मिष्टान्नादि से तृप्त कर वस्त्राभूषणादि एवं द्रव्य-दक्षिणा देकर स्वयं भी महाप्रसाद ग्रहण करें। संभव हो तो स्वर्ण निर्मित गरुड़ पर विराजित लक्ष्मीनारायण भगवान का विग्रह ब्राह्मण को दान करें। गरुड़ व्रत का पालन करने वाला कालसर्प दोष से तो मुक्ति प्राप्त करता ही है, उसके लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति का मार्ग भी सुलभ हो जाता है। व्रत वाले दिन व्रती को भगवान विष्णु के चरित्र, गरुड़ पुराण आदि का श्रवण तथा हरि संकीर्तन और गरुड़ चरित्रों का पाठ करना चाहिए। भगवान श्री हरि के वाहन और उनके रथ की ध्वजा में स्थित विनतानंदन गरुड़ भगवान की विभूति हैं। वे नित्यमुक्त और अखंड ज्ञान संपन्न हैं। उनका विग्रह सर्ववेदमय वृहत् और रथंतर उनके पंख हैं, उड़ते समय जिनसे सामवेद की ध्वनि निकलती रहती है। वे भगवान के नित्य परिकर और लीला स्वरूप हैं। देवगण उनके परमात्मस्वरूप की स्तुति करते हुए कहते हैं- खगेश्वरं शरणमुपागता वयं, महौजसं ज्वलनसमानवर्चसम्। तडित्प्रभं वितिमिरमभ्र गोचरं, महाबलं गरुड़मुपेत्य खेचरम्।। अर्थात् आप ही सभी पक्षियों एवं जीवों के ईश्वर हैं। आपका तेज महान है तथा आप अग्नि के समान तेजस्वी हैं। आप बिजली के सदृश चमकते हैं। आप बादलों की भांति आकाश में स्वच्छंद विचरण करने वाले महापराक्रमी गरुड़ हैं। हम सभी आपके शरणागत हैं। देवताओं के साथ साथ व्रती को गरुड़ भगवान का भी शरणागत होना चाहिए। यह परम कल्याण का मार्ग है। श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं उद्धव जी से कहा है- ‘‘सुपर्णोऽहं पतत्त्रिणाम्’’ अर्थात् पक्षियों में मैं गरुड़ हूं। श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान कहते हैं -‘‘वैनतेयश्च पक्षिणाम्’’ अर्थात् पक्षियों में मैं विनता का पुत्र गरुड़ हूं। गरुड़ जी के जन्म-कर्म की कथा सत्ययुग की बात है, दक्ष प्रजापति की पत्नी असिक्नी ने साठ कन्याओं को जन्म दिया जिनमें से ताक्ष्र्य नामधारी कश्यप के साथ चार कन्याओं विनता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का विवाह हुआ। एक समय कद्रू और विनता की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि कश्यप ने दोनों को प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए कहा, ‘तुममें जिसकी जो इच्छा हो, वर मांग लो।’ कद्रू ने एक हजार तेजस्वी नागों को पुत्र रूप में पाने का वर मांगा जबकि विनता ने बल, तेज और पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो पुत्र ही मांगे। इसके पश्चात ‘तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने-अपने गर्भ की रक्षा करना’ कहकर महर्षि कश्यप वन चले गए। कद्रू ने एक हजार तथा विनता ने मात्र दो अंडे दिए। कद्रू के पुत्र अंडों से निकल गए, परंतु विनता के दोनों अंडों से कोई बच्चा बाहर नहीं निकला। विनता ने उत्सुकतावश एक अंडे को तोड़ दिया और देखा कि उसके पुत्र के शरीर का ऊपरी भाग तो विकसित हुआ है, परंतु निचला भाग अविकसित है। उस बालक अरुण ने क्रोध में आकर शाप दिया कि चूंकि उसने उसके शरीर के विकास में बाधा पहुंचाई है, अतः वह कद्रू की दासी बनेगी। परंतु यह भी कहा कि दूसरे अंडे से जो बच्चा निकलेगा, वह उसे शापमुक्त करेगा। शर्त यह है कि वह धैर्यपूर्वक अंडे से बालक के निकलने की प्रतीक्षा करे। यह कहकर अरुण आकाश में उड़ गए। अरुण ही सूर्य देव के रथ के सारथी बने। तदनंतर समय पूरा होने पर सर्पसंहारक गरुड़जी का जन्म हुआ। गरुड़जी की तेजोमयी कान्ति गरुड़जी जन्म से ही साहस और पराक्रम से सम्पन्न थे। उनके तेज से संपूर्ण दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। उनमें अपनी इच्छा से नाना रूप धारण करने की क्षमता भी थी। उनका प्राकट्य आकाशचारी पक्षी के रूप में ही हुआ। वे जलती हुई अग्नि के समान उद्भासित होकर प्रलयकाल की अग्नि के समान द्युतिमान थे। उनका शरीर थोड़ी ही देर में विशाल हो गया तथा भयंकर आवाज के साथ वे आकाश में उड़ गए। सभी देवतागण भगवान के रूप में उनकी स्तुति करने लगे- त्वं प्रभुस्तपनः सूर्यः परमेष्ठी प्रजापतिः। त्वमिन्द्रस्त्वं हयमुखस्त्वं शर्वस्त्वं जगत्पतिः।। त्वं मुखं पùजो विप्रस्त्वमग्निः पवनस्तथा। त्वं हि धाता विधाता च त्वं विष्णुः सुरसत्तमः।। आप ही प्रभु, तपन, सूर्य, परमेष्ठी और प्रजापति हैं। आप ही इंद्र, हयग्रीव, शिव तथा जगत्पति हैं। आप ही भगवान के मुखस्वरूप ब्राह्मण,पùयोनि ब्रह्मा तथा विज्ञानवान विप्र हैं। आप ही अग्नि, आयु, धाता, विधाता तथा देवश्रेष्ठ श्रीविष्णु हैं। खगश्रेष्ठ ! आप अग्नि के समान तेजस्वी इस रूप को शांत कीजिए। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान आपकी कांति देखकर हमारा मन चंचल हो रहा है। आप अपना तेज समेटकर हमारे लिये सुखदायक हो जाइए। देवताओं की स्तुति सुनकर गरुड़जी ने अपने तेज को समेट लिया। माता की दासत्व से मुक्ति हेतु अमृत लाना: गरुड़ की माता विनता सर्पों की माता कद्रू की दासी थीं। इसका गरुड़ को बहुत दुःख था। उन्होंने सर्पों की दासता से अपनी माता को छुड़ाने के लिए उनकी शर्त जाननी चाही। इस पर सर्पों ने कहा कि यदि तुम हमें अमृत लाकर दे दो तो तुम्हारी मां दासता से मुक्त हो जाएगी। तब गरुड़ ने अमृतकलश लाने का निश्चय किया। अमृतकलश इंद्र द्वारा रक्षित था, जिसकी देवगण रक्षा कर रहे थे। देवगुरु बृहस्पतिजी ने सभी देवताओं को यह कहकर सतर्क किया कि पक्षिराज गरुड़ ने अपने पंखों से धूल उड़ाकर समस्त लोकों में अंधकार कर दिया। फिर देवगणों को अपनी चोंच से बेधकर घायल कर दिया और लघु रूप धारण कर अमृत का हरण कर लिया। पक्षिराज गरुड़ को अमृतघट का अपहरण कर ले जाते देख इंद्र ने रोष में भरकर वज्र से उन पर प्रहार किया। विहंगप्रवर गरुड़ ने वज्र से आहत होकर भी हंसते हुए कहा- देवराज ! जिनकी हड्डी से यह वज्र बना है, उन महर्षि का मैं सम्मान करता हूं। शतक्रतो ! उन महर्षि के साथ-ही-साथ आपका भी सम्मान करता हूं, इसलिए अपना एक पंख, जिसका आप अंत नहीं पा सकेंगे, मैं त्याग देता हूं। आपके वज्र से मैं आहत नहीं हुआ हूं। उस गिरे हुए पंख को देखकर लोगों ने कहा- सुरूपं पत्रमालक्ष्य सुपर्णोऽयं भवत्विति। तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं सहस्राक्षः पुरन्दरः। खगो महदिदं भूतमिति मत्वाभ्यभाषत।। जिसका यह सुंदर पंख है, वह पक्षी सुपर्ण नाम से विख्यात हो। वज्र की असफलता देख सहस्र नेत्र वाले इंद्र ने मन-ही-मन विचार किया- अहो, यह पक्षी रूप में कोई महान प्राणी है। यह सोचकर इंद्र ने कहा- बलं विज्ञातुमिच्छामि यत्ते परमनुत्तमम्। सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वया सह खगोत्तम।। विहंगप्रवर ! मैं आपके बल को जानना चाहता हूं और आपके साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूं, जिसका कभी अंत न हो। गरुड़जी ने कहा- कामं नैतत् प्रशंसन्ति सन्तः स्वबलसंस्तवम्। गुणसंकीर्तनं चापि स्वयमेव शतक्रतो।। शतक्रतो ! साधु पुरुष स्वेच्छा से अपने बल की प्रशंसा तथा अपने ही मुख से अपने गुणों का बखान अच्छा नहीं मानते, किंतु सखे ! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिए मैं बता रहा हूं- सपर्वतवनामुर्वीं ससागरजलामिमाम्। वहे पक्षेण वै शक्र त्वामप्यत्रावलम्बिनम्।। सर्वान् सम्पिण्डितान् वापि लोकान् सस्थाणुजंगमान्। वहेयमपरिश्रान्तो विद्धीदं मे महद्, बलम्।। अर्थात् हे इंद्र ! पर्वत, वन और समुद्र के जल के साथ साथ सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहने वाले आपको भी अपने एक पंख पर उठाकर मैं बिना परिश्रम के उड़ सकता हूं अथवा संपूर्ण चराचर लोकों को एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाए तो मैं सबको बिना परिश्रम के ढो सकता हूं। इससे तुम मेरे महान बल को समझ लो। अमृत लेकर लौटते समय भगवान से वर की प्राप्ति भगवान विष्णु ने गरुड़ जी के पराक्रम से संतुष्ट होकर उन्हें वर मांगने के लिए कहा। गरुड़ जी ने वर मांगा- ‘हे प्रभो ! मैं आपके ध्वज में स्थित हो जाऊं। हे भगवन ! मैं बिना अमृतपान के ही अजर-अमर हो जाऊं।’ भगवान ने ‘एवमस्तु’ कहकर वर प्रदान किया। उसके उपरांत गरुड़ जी ने भगवान विष्णुजी को वर मांगने को कहा- भगवान विष्णु ने वर मांगा- तं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्।। महाबली गरुत्मन् ! आप मेरे वाहन हो जाएं। इस प्रकार भगवान विष्णु ने गरुड़ को अपना वाहन बनाया और अपने ध्वज के ऊपर स्थान भी दिया। गरुड़ जी ने नागों के सामने अमृत रखकर अपनी माता विनता को दासत्व से मुक्त करा लिया। काल सर्प दोष मुक्ति कथा: श्री शुकदेव जी ने महाराज परीक्षित को तक्षक नाग से मुक्ति एवं सनातन मोक्ष की प्राप्ति के लिए श्रीमद्भागवत कथा सुनाते समय इस सुंदर आख्यान का वर्णन करते हुए कहा कि गरुड़ जी की माता विनता और सर्पों की माता कद्रू में परस्पर वैर था। माता का वैर स्मरण कर गरुड़ जी जो सर्प मिलता उसे खा जाते। इससे व्याकुल होकर सब सर्प ब्रह्माजी की शरण में गए। तब ब्रह्माजी ने यह नियम कर दिया कि प्रत्येक अमावस्या को प्रत्येक सर्प परिवार बारी-बारी से गरुड़ जी को एक सर्प की बलि दिया करे। इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सारे सर्प अपनी रक्षा के लिए महात्मा गरुड़ जी को उपहारस्वरूप एक निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे अपना-अपना भाग देते रहते थे। उन सर्पों में कद्रू का पुत्र कालिय नाग अपने विष और बल के घमंड से मतवाला हो रहा था। उसने गरुड़ का तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना दूर रहा, दूसरे सांप जो गरुड़ को बलि देते, उन्हें भी खा लेता। परीक्षित् ! यह सुनकर भगवान के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुड़ को बड़ा क्रोध आया। इसलिए उन्होंने कालिय नाग को मार डालने के विचार से बड़े वेग से उस पर आक्रमण किया। विषधर कालिय नाग ने जब देखा कि गरुड़ बड़े वेग से उस पर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसने के लिए उन पर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दांत, इसलिए उसने दांतों से गरुड़ को डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी सांस लंबी चल रही थी और आंखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं। ताक्ष्र्यनंदन गरुड़जी विष्णु भगवान के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नाग की यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने उसे अपने शरीर से झटककर फेंक दिया और उस पर अपने सुनहरे बायें पंख से बड़े जोर से प्रहार किया। उनके पंख की चोट से कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहां से भागा और यमुनाजी के एक कुंड में चला आया। यमुनाजी का कुंड गरुड़ के लिए अगम्य था। वह इतना गहरा था कि उसमें कोई दूसरा भी नहीं जा सकता था। इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा लिया। अपने मुखिया मत्स्यराज के मारे जाने के कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यंत दीन और व्याकुल हो गईं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरि को बड़ी दया आई। उन्होंने उस कुंड में रहने वाले सब जीवों की भलाई के लिए गरुड़ को शाप दे दिया कि ‘यदि गरुड़ फिर कभी इस कुंड में घुसकर मछलियों को खाएंगे, तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूं।’ परीक्षित। महर्षि सौभरि के इस शाप की बात कालिय नाग के अलावा और कोई सांप नहीं जानता था। इसलिए वह गरुड़ के भय से वहां रहने लगा था और भगवान श्रीकृष्ण ने कालिय दमन लीला के समय उसे निर्भय करके वहां से रमणक द्वीप में भेज दिया। जो व्रती नियमपूर्वक संकल्प सहित पूर्ण विधि से यह व्रत करते हैं, निश्चय ही उन्हें सुख-शांति, समृद्धि और कृष्ण-नारायण की कृपा प्राप्त होती ही है, काल सर्प दोष से मुक्ति भी मिलती है। साथ ही देवों की कृपा, मातृ-पितृ भक्ति और समाज में मान प्रतिष्ठा की प्राप्ति भी होती है और अंततः वे भगवान विष्णु के परम धाम को भी प्राप्त कर लेते हैं। गरुड़ गायत्री मंत्र वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि। तन्नोगरुड़ः प्रचोदयात्। तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि। तन्नो गरुड़ः प्रचोदयात्। सुपर्णाय विद्महे पक्षिराजाय धीमहि। तन्नो गरुड़ः प्रचोदयात्। तत्पुरुषाय विद्महे सुपर्णपर्णाय धीमहि। तन्नो गरुड़ः प्रचोदयात्। पक्षिराजाय विद्महे पक्षिदेवाय धीमहि। तन्नो गरुड़ः प्रचोदयात्। गरुड़ मंत्र गरुड़ देवाय नमः। पक्षिराजाय नमः। विनतासुताय नमः। विष्णुवाहनाय नमः।



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