गंडमूल नक्षत्र
गंडमूल नक्षत्र

गंडमूल नक्षत्र  

व्यूस : 46088 | आगस्त 2011
गंडमूल नक्षत्र विचार गोष्ठी प्रश्न : गंडमूल नक्षत्रों का जातक पर क्या प्रभाव होता है? क्या यह प्रभाव बड़ी अवस्था में भी बना रहता है? इन नक्षत्रों के उपाय कब और कैसे किये जाने चाहिए? गंडमूल नक्षत्रों में जातक का जन्म होना शुभ नहीं माना गया है। किसी भी गंडमूल नक्षत्र में जातक का जन्म होने पर अशुभ फलकारक स्थिति बनती है जिसमें समय की भिन्नता के अनुसार अशुभ फल भिन्न-भिन्न प्रकार से घटता है। गंडमूल नक्षत्रों की अशुभता का कारण इनके तृतीयांशों की संधि पर पड़ने से ही जुड़ा हुआ है। किसी भी चीज की संधि के समय को शुभ नहीं माना गया हैं। ''संधि या संक्रमण काल सदैव अशुभ, हानिकारक, कष्टदायक व असमंजसपूर्ण होता है'' जैसे ऋतुओं के संधिकाल में रोगों की उत्पत्ति होती है, दो मार्गों की संधि पर चेतावनी सूचक पट् लगे होते हैं, शासन, प्रशासन के संधिकाल में जनता को कष्ट होता है तथा वरदान प्राप्त करने पर भी हिरण्यकश्यपु का जिस प्रकार अंत हुआ वह भी संधि का ही उदाहरण है। अतः गंडमूल नक्षत्रों में जन्मे जातक पर नकारात्मक प्रभाव तो अवश्य पड़ता है विशेष रूप से जन्म समय से ही बालक को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा माता-पिता पर भी इसका दुष्प्रभाव कई बार व्यवहारिक रूप से देखा जा सकता है। प्रकृति ने कुछ नक्षत्रों को निर्धारित कर रखा है जिसमें जन्म से लेकर जातक अपना हिसाब-किताब बराबर करता है, करवाता है। इन्हीं विशेष नक्षत्रों अश्विनी, मघा, मूल, आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती को गंडमूल नक्षत्र कहा जाता है। यहां पर प्रश्न यह उठता है कि इन्हीं नक्षत्रों को अरिष्ट क्यों माना गया है तो इसका कारण यह है कि 27 नक्षत्रों में से इन छः नक्षत्रों के क्रमों में तीन स्थान ऐसे आते हैं जहां नक्षत्र एवं राशि दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। एक राशि एवं नक्षत्र की समाप्ति होने एवं दूसरे नक्षत्र एवं राशि के प्रारंभ होने वाले बिंदु को संधि कहा जाता है और इन संधिकाल का विवरण यह है कि- 1. कर्क राशि का अंतिम भाग जहां कर्क राशि और आश्लेषा नक्षत्र समाप्त होते हैं क्योंकि कर्क राशि में पुनर्वसु नक्षत्र का एक चरण 30-20' कला का तथा पुष्य के चार चरण 130-20' कला के तथा आश्लेषा के पूरे चारो चरण 130-20' कला मिलकर 300 की एक राशि पूर्ण कर देते हैं। अतः यह स्थान दो नक्षत्रों व राशि का संधि स्थल संवेदनशीलबिंदु है क्योंकि यहां से कर्क राशि व आश्लेषा नक्षत्र समाप्त होकर सिंह राशि एवं मघा नक्षत्र का प्रारंभ होता है। 2. इसी प्रकार दूसरा संवदेनशील बिंदु वह होता है जहां पर ज्येष्ठा नक्षत्र एवं वृश्चिक राशि की समाप्ति होती है तथा मूल नक्षत्र तथा धनु राशि प्रारंभ होती है। 3. तीसरा संवेदनशील बिंदु हैं जो रेवती नक्षत्र एवं मीन राशि का समाप्ति काल है तथा अश्विनी नक्षत्र एवं मेष राशि का प्रारंभ है। उपरोक्त संधि स्थलों पर उत्पन्न होने वाले जातक गंडमूल नक्षत्रों में उत्पन्न होने वाले जातक होते हैं तथा इनका जन्म ज्योतिष शास्त्रों के दृष्टिकोण से अरिष्टकारक होता है क्योंकि इन नक्षत्रों में पैदा होने वाले जातकों को न तो पिछली राशि, नक्षत्र तथा न ही प्रारंभ होने वाले नक्षत्र एवं राशि का फल प्राप्त होता है। गंडमूल का प्रभाव : गंडमूल नक्षत्रों का प्रभाव पूर्ण जीवन भर (बड़ी अवस्था) तक बहुत कम हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक नक्षत्र प्रभाव अवधि का विवरण निम्न अनुसार है। रात में जातक का जन्म हो और गंडांत दोष हो तो माता को बहुत कष्टकारी होता है। दिन गंड में कन्या का जन्म हो और रात में पुरूष जातक का जन्म हो तो यह दोष बहुत कम बल्कि न के बराबर हो जाता है। गंडमूल नक्षत्र की शांति वापस उसी नक्षत्र के आने पर 27 दिन बाद की जानी चाहिए। शांति के बाद ही पिता को बच्चे का मुंह देखना चाहिये। 6 माह व 12 दिन में शांति करने का विधान भी कुछ ज्योतिषाचार्यों ने माना है। नारद का मत : मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा ये तीन गंड कारक होते हैं। अश्विनी, रेवती और मघा ये तीन अपगंड नक्षत्र होते हैं। मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा की अंतिम चार घड़ी (1.36 मिनट) गंड कहलाती है। सामान्यतः इन तीनों नक्षत्रों को गंड माना है। मूल और ज्येष्ठा का बुरा प्रभाव दिन में, आश्लेषा और मघा का बुरा प्रभाव रात्रि में, अश्विनी और रेवती का बुरा प्रभाव सायं काल में होता है। अश्विनी का प्रथम चरण, मघा के पहले दो चरण व रेवती का अंतिम चरण अनिष्ट कारक होता है। गंडमूल नक्षत्रों का जातक पर क्या प्रभाव होता है? अश्विनी : मेष राशि एवं केतु के इस नक्षत्र में पैदा हुए जातक सुंदर, सौभाग्ययुक्त, चालाक, स्त्री प्रिय, शूरवीर, बुद्धिमान, दृढ़निश्चयी, जल्दबाज, निरोग, राजपक्ष से लाभ कमाने वाले और संघर्षमय जीवन व्यतीत करते हैं। अश्विनी प्रथम चरण : पिता के लिए कष्टकारक। दूसरा चरण : अधिक पैसा खर्च करने वाले। तीसरा चरण : घूमने वाला (भ्रमणशील) चौथा चरण : अपने शरीर के लिए कष्टकारी आश्लेषा नक्षत्र : कर्क राशि व बुध के नक्षत्र में पैदा हुये जातक शीघ्र ही बदल जाने वाले, धनवान, कलाकार, चतुर बुद्धि, लोगों के काम करने में तत्पर, खाने-पीने के शौकीन व हंसमुख होते हैं। अगर यह नक्षत्र पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो जातक धूर्त, क्रूर कार्य करने वाला, परस्त्रीगामी, व्यसनी, स्वार्थी तथा शीघ्र क्रुद्ध हो जाता है। आश्लेषा प्रथम चरण : विशेष दोष नहीं। दूसरा चरण : पैतृक धन हानि तीसरा चरण : माता या सास के लिए अरिष्ट कारक चतुर्थ चरण : पिता को कष्टकारी मघा नक्षत्र : सूर्य की राशि सिंह एवं केतु के नक्षत्र में पैदा हुये जातक स्पष्टवादी, मुंहफट, जल्दी गुस्सा करने वाले व हठी प्रकृति के होते हैं। कठोर मन वाला और स्त्री पक्ष से द्वेष रखने वाला होता है। मघा प्रथम चरण : माता या मातृ पक्ष को हानि। दूसरा चरण : पिता को अरिष्ट तीसरा चरण : शुभ फलदायक चौथा चरण : विद्या और धन के लिए शुभ होता है। ज्येष्ठा नक्षत्र : मंगल की राशि (वृश्चिक) बुध के इस नक्षत्र में पैदा हुये जातक क्रोधी, सरल हृदय, अध्ययनशील, स्पष्टवादी, तर्कशील, वाकयुद्ध में प्रवीण, धार्मिक, सहयोगी व अहंकारी होते हैं। ज्येष्ठा प्रथम चरण : बड़े भाई को अरिष्ट दूसरा चरण : छोटे भाई को अरिष्ट तीसरा चरण : माता या नानी को अरिष्ट चौथा चरण : जातक स्वयं को अनिष्टकारी ज्येष्ठा नक्षत्र के संपूर्ण मान को दस भागों में विभाजित करें। यदि ज्येष्ठा नक्षत्र का कुल मान 60 घड़ी है तो 10 द्वारा भाग देने पर प्रत्येक खंड का मान 6 अंश होगा। इसका फल नीचे लिखे विभाग संखया द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। मूल नक्षत्र : केतु के नक्षत्र और गुरु की राशि धनु में पैदा जातक धार्मिक, उदार हृदय, धनी, ईमानदार, मिलनसार, परोपकारी, नीतिवान, सामाजिक कार्यों में व्यस्त और अच्छे संस्कारों से युक्त होते हैं। सामान्यतया समस्त मूल नक्षत्र को अरिष्ट कारक माना गया है। मूल नक्षत्र में पैदा हुये जातक का शुरू एवं अंत की घड़ियों में विद्वान आचार्यों में मतांतर पाया जाता है। मूल प्रथम चरण - पिता का नाश दूसरा चरण - माता का नाश तीसरा चरण - धन का नाश चौथा चरण - जातक सुखी, धनी मूल नक्षत्र के संबंध में अनेक मत प्रचलित हैं। लेकिन जयार्णव नामक ग्रंथ में मूल नक्षत्र के बारे में विशेष पद्धति से बताया गया है जोकि प्रचलित तथा मान्यताप्राप्त हैं। मूल नक्षत्र का संपूर्ण मान 60 घड़ी है। इसे 8 विभागों में बांटा है। इस प्रकार 7+8+10+11+12+5+4+3 = 60 घड़ी। अब दूसरे प्रकार से अनिष्ट देखते हैं। संपूर्ण मूल नक्षत्र के मान को 15 से विभाजित करें। देखें कि जन्म समय मूल नक्षत्र के कितने घड़ी पल व्यतीत हो चुके हैं। जिस खंड में जन्म हो, इसके अनुसार अनिष्ट फल होगा। 1. पिता 2. पिता का भाई 3. बहनोई 4. पितामह 5. माता 6. मौसा 7. मामा 8. ताई या चाची 9. सर्वस्व 10. पशु 11. नौकर 12. स्वयं जातक 13. बड़ा भाई 14. बहन 15. नाना। रेवती नक्षत्र : बुध के नक्षत्र और गुरु की राशि मीन में पैदा हुये जातक धनवान, सुंदर, तर्कशील, विद्यावान, पुत्र एवं कुटुंब से युक्त, बुद्धिमान, धार्मिक अध्ययनशील, सरल स्वभाव के होते हैं। रेवती के प्रथम चरण : राजा के समान वैभवशाली दूसरा चरण : मंत्री के समान सुखी तीसरा चरण : धनवान चौथा चरण : माता-पिता के लिए आरिष्टकारी। केवल नक्षत्र गण्डांत पर ही विचार नहीं किया जाता अपितु तिथि एवं लग्न के भी गण्डांत का विचार किया   जाता है। क्या गंडमूल नक्षों का प्रभाव बड़ी अवस्था में होता है? केवल गंडमूल नक्षत्र देख कर जातक की आयु माता-पिता, भाई-बहन और अपने लिये अरिष्ट फलों की व्याखया करना उचित नहीं। ज्योतिष में और भी शुभ योग हैं जो जातक को उसकी आयु और शुभ फल देने में सार्थक होते हैं। बड़ी अवस्था में गंडमूल नक्षत्रों का बलहीन होना : मूल का अरिष्ट बचपन में ही होता है। यदि कुंडली में नीचे लिखित प्रमाण मिले तो बड़ी अवस्था में इनका बलहीन होना स्वाभाविक है। नक्षत्र गण्डांत पर अपवाद : वशिष्ठजी का मत है कि अगर जातक का रात्रि में मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में अथवा दिन में मूल के दूसरे चरण में जन्म हो तो जातक माता-पिता के लिये अरिष्ट कारक नहीं होता। गर्गाचार्य का मत है कि रविवार को अश्विनी, बुध या रविवार को हस्त, चित्रा, स्वाती अनुराधा, ज्येष्ठा अथवा रेवती नक्षत्र में जन्म हो तो त्रिविध गण्डांत का दोष नहीं होता। चंद्रमा की शुभ स्थिति में कुंडली में केंद्र और त्रिकोण में शुभ एवं उच्च के ग्रहों की स्थिति में गंडमूल नक्षत्रों का प्रभाव बलहीन हो जाता है। मंत्रेश्वर महाराज ने बहुत सुंदर लिखा है कि लग्न और लग्नेश के बलवान होने से सारी कुंडली सुधर जाती है। त्रिकोण (5, 9) व केंद्र (1, 4, 7, 10) में बलवान बुध होने पर 100 दोषों का तथा बलवान शुक्र होने पर 200 दोषों का और बलवान गुरु होने पर एक लाख दोषों का नाश हो जाता है। इसी तरह लग्नेश केंद्र या लग्न नवांशेश हो तो वह भी दोष समूह को इस प्रकार शांत करता है जैसे अग्नि रूई को जला देती है। शुभ राशि में पूर्णिमा के चंद्रमा पर शुभ ग्रहों की दृष्टि बालारिष्ट को निर्बल बनाती है। लग्न पर पूर्णिमा के चंद्रमा की दृष्टि और गुरु केंद्र में हो तो जातक की आयु बढ़ जाती है। जन्म समय में शुभ ग्रहों की दशा भी जातक की बड़ी अवस्था में गंडमूल नक्षत्रों के अरिष्ट फल को बलहीन करती है। वशिष्ठ के मत से जातक का अभिजित में जन्म होने पर समस्त गण्डांत दोष शांत हो जाता है। मूल नक्षत्र वास विचार यदि जन्म लग्न व जन्म मास के अनुसार मूल का वास भूमि पर हो तो विशेष कष्ट होता है। स्वर्ग व पाताल में वास आने पर तुलनात्मक ढंग से कम कष्ट होता है। गंडमूल नक्षत्रों के उपाय कब करना चाहिये? जिस गंड मूल नक्षत्र में बच्चे का जन्म हो वही नक्षत्र 27 दिन के बाद आए या जन्म से 12वें दिन अथवा आठवें वर्ष में जब कभी भी शुभ समय में अपना जन्म नक्षत्र हो। इसी नक्षत्र में किसी सुयोग्य ब्राह्मण द्वारा नक्षत्र, ग्रह, देवी-देवताओं का पूजन और हवन कराना चाहिए। यह मत बहुत प्रचलित है। गंडमूल नक्षत्रों के उपाय : सूतक समाप्त होने के बाद पिता गंडमूल नक्षत्र की शांति करने के बाद पुत्र का मुंह देखें। तिथि गंड में बैल का दान, नक्षत्र गडांत में गोदान, लग्न गण्डांत में सोने का दान करने से भी दोष निवारण होता है। शांति की विधि : नक्षत्र देवता (आश्लेषा के देवता नाग, मघा के पितर, ज्येष्ठा के इंद्र, मूल के नृति रेवती के पूषा, अश्विनी के अश्विनी कुमार) की 3 ग्राम सोने की मूर्ति। सोने की मूर्ति के अभाव में तांबे की मूर्ति भगवान विष्णु की भी रख सकते हैं। पूर्ण पात्र : तांबे या स्टील का बर्तन चावल डालने के लिए प्रत्येक कलश में डालने योग्य द्रव्य पूर्व दिशा : इस दिशा में स्थित कलश में डालने योग्य वनस्पतियां एवं द्रव्य-देव दारू, श्वेत चंदन, लाल चंदन, कमल गट्टा, नीलोफर, कंगनी, कूट, नागर, मोथा, आंवले, वच, सरसों, अगर, तगर, मुरा, मांसी शुद्ध जल । दक्षिण दिशा : इस दिशा में स्थित कलश में डालने योग्य द्रव्य पंचामृत (गोदुग्ध, गोघृत, गोदही, शहद और मिश्री), गजमद, सप्तधान्य (जौ, तिल, गेहूं मालकगंनी मूंग, चावल और चने) सोना, शुद्ध जल। पश्चिम दिशा : इस दिशा के कलश में घुड़साल, हाथी और शेर के पांव के नीचे की मिट्टी, राजदरबार की मिट्टी, जंगली सूअर द्वारा खोदी गयी मिट्टी, गौशाला और चौराहे की मिट्टी। उत्तर दिशा : इस दिशा के कलश में पंच रत्न- मूंगा, माणिक्य, हीरा नीलम और मोती, पंच पल्लव-पीपलबरगद, ढाक, गूलर और जामुन के पत्ते, कदंब, नीम, इमली, आम के पत्ते, सात नलकूपों का जल। पंचम कलश : चार कलशों के बीच 27 छिद्रों वाला कच्चा घड़ा, इसमें रखने के लिए शतौषधियां । गंडमूल नक्षत्रों के शांति करने के उपाय और विधि : समतल भूमि पर स्वच्छ स्थान में गाय के गोबर से लीपकर मंडप बनाएं। यह मंडप घर के पूर्व या उत्तर दिशा में होना चाहिए। मंडप का नाप पिता के हाथ से 8 हाथ या 4 हाथ वर्गाकार बनायें। चारों तरफ केले की टहनियां तोरण आदि बनायें। मंडप के बाहर हवन कुंड बनायें। इसमें यज्ञ शास्त्र की विधि का अनुसरण करें। यजमान, उसकी पत्नी और स्वयं पंडित जी अपने-अपने ऊनी आसन बिछा लें। गंगा जल द्वारा मिश्रित जल द्वारा मंत्र उच्चारण करते हुये आसन शुद्धि और भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए तीन बार मंत्रपूर्वक आचमन करके यजमान सपत्नीक पूर्व दिशा की ओर मुख करते हुये अपने-अपने आसन पर बैठ जायें। एक लकड़ी की चौकी पर साथ लगे चित्र के अनुसार हल्दी से तिलक मंडल बना लें जिसमें श्री गणेश, सूर्य आदि नवग्रह कलश स्थापना करें। 64 योगिनी, षोडश मातृकाओं, क्ककार, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, श्री दुर्गा, लक्ष्मी, नाग, नक्षत्र देवता की 3 ग्राम सोने की मूर्ति रखें। सोने में सभी देवताओं का निवास होता है। चारों दिशाओं में चार कलश, पीतल या तांबे धातु के बने हुये, पांचवा रुद्ध कलश ईशान कोण में, एक मध्य में कच्ची मिट्टी वाला 27 छिद्रों से युक्त घड़ा स्थापित करें। कलशों में विभिन्न औषधियां, वनस्पतियां, सात कुओं या तीर्थों का जल पंचगव्य (गोमूत्र, गोघृत, गो दही, गोबर युक्त जल, गो दुग्ध) शतोषधी रखें। इसके बाद पंडित जी स्वस्ति वाचन से गंडमूल शांति प्रक्रिया शुरू करें। अधिदेव के रूप में इंद्र की प्रत्यधिदेव के रूप में जल की पूजा करें। उसके बाद प्रधान देव व महादेव जी की प्रीत्यर्थ हवन करें। उसकी 108 आहुतियां डालें। मृत्यु तुल्य कष्ट होने के निवारण में त्रयंबक मंत्र का जप और हवन करें। बाद में लकड़ी की पटरी पर बैठकर माता-पिता व जातक आचार्य का अभिषेक करें। बाद में कच्चा कलश जो छिद्रों वाला है उसमें शतौषधी, सात कुओं का जल एवं समस्त कलशों के जल को डालते हुये यजमान को स्नान करायें। आचार्य को दूध देने वाली गाय का दान, दक्षिणा और भोजन करायें।



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