आपके विचार प्र श्न: अयनांश से क्या अभिप्राय है? ज्योतिष में निरयण पद्धति का प्रयोग करना चाहिए या सायन का एवं क्यों? सविस्तार लिखें। किसी नियत काल में क्रांतिवृŸास्थ रेवत्यंत बिंदु (स्थिर संपात) से वास्तविक वसंत संपात (चल संपात) बिंदु तक की अंशात्मक दूरी उस नियत काल का अयनांश कहलाती है।
लगभग 72 वर्षों में अयनांश में एक अंश की वृद्धि हो सकती है। स्थूल मान से अयनांश की वार्षिक गति 50 विकला है, किंतु अयन बिंदु की वास्तविक वार्षिक गति भी प्रतिवर्ष न्यून मात्रा में निरंतर बढ़ रही है। एक शताब्दी में यह 0.0227 विकला बढ़ती है। सूक्ष्म गणनाएं बताती हैं कि 1 जनवरी 1996 को अयन बिंदु की गति 50.2777 विकला प्रतिवर्ष तथा 1998 को 50.28 विकला थी।
अयन बिंदु की स्पष्ट गति में राहु की स्थिति के अनुसार भी कुछ विकला की वृद्धि या कमी संभव है। स्थूल और स्पष्ट गति की भांति मध्यम और स्पष्ट अयनांश में ध¬ूनन के कारण $-18.40 विकला तक का अंतर बने रहने की गुंजाइश रहती है। जनवरी 1996 को अयन बिंदु की गति 50.2777 विकला प्रतिवर्ष तथा 1998 को 50.28 विकला थी। अयन बिंदु की स्पष्ट गति में राहु की स्थिति के अनुसार भी कुछ विकला की वृद्धि या कमी संभव है।
स्थूल और स्पष्ट गति की भांति मध्यम और स्पष्ट अयनांश में ध¬ूनन के कारण $-18.40 विकला तक का अंतर बने रहने की गुंजाइश रहती है। यद्यपि शून्य अयनांश वर्ष का सर्वशुद्ध निर्धारण संभव नहीं क्योंकि भिन्न-भिन्न करण एवं सिद्धांत ग्रंथों के आधार पर इसमें अंतर आता है, किंतु यदि 1 जनवरी 2003 को वास्तविक अयनांश 23 अंश 53 कला 48 विकला माना जाए तो 50 विकला प्रतिवर्ष की स्थूल गति दर्शाती है कि आज से लगभग 1721 वर्ष 8 माह पूर्व अर्थात लगभग ई. 285 शून्य अयनांश वर्ष था (यद्यपि यह प्रामाणिक नहीं)।
भारत सरकार ने स्व. निर्मल चंद लाहिरी की अनुशंसा पर इसे ही आधार मानते हुए 21 मार्च 1956 को अयनांश 23 अंश 15 कला स्वीकृत किया था। अयन बिंदु की यही गति साक्ष्य है कि आज से लगभग 436 वर्ष पश्चात अर्थात 2443 ई. के आसपास अयनांश का मान 30 अंश (अर्थात एक राशि) हो जाएगा। तब सायन मेष राशि निरयण मीन तथा पूर्वा भाद्रपद के तृतीय व चतुर्थ चरण के संधि बिंदु से आरंभ होगी। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि चित्रा नक्षत्र के मध्य बिंदु (180 अंश) पर शारद संपात तथा इससे 180 अंश स्थित रेवत्यंत बिंदु पर वसंत संपात की आदर्श स्थिति है, किंतु वास्तव में ऐसा है नहीं।
पृथ्वी की धुरी के झुकाव में होने वाले अयन-चयन के फलस्वरूप ये दोनों संपात बिंदु भी वास्तव में अपनी आदर्श स्थिति से हटते जा रहे हैं। अचल (आदर्श) संपात बिंदुओं से नक्षत्र या राशि विस्तार के प्रारंभ को मानने वाली पद्धति निरयण तथा खिसके हुए (विचलित) संपात बिंदु से नक्षत्र या राशि विस्तार का आरंभ मानने वाली पद्धति ही सायन पद्धति कहलाती है। प्रायः देखा गया है कि सायन और निरयण पद्धतियों से बनाई गई एक ही जातक की जन्मपत्रियों की ग्रहावस्था में लगभग 80 प्रतिशत तक की विषमरूपता पाई जाती है।
साथ ही ग्रह भावादि के नवांशक भी सर्वथा मेल नहीं खाते, किंतु दोनों पद्धतियों के अनुयायी दैवज्ञ अपनी-अपनी पद्ध तियों को शुद्ध एवं प्रामाणिक सिद्ध करने में तत्पर दिखाई पड़ते हैं। निरयण पद्धति का प्रयोग केवल भारत, नेपाल तथा लंका आदि तीन-चार देशों में ही प्रचलित है जबकि विश्व के अन्य शेष भागों में सायन पद्धति का प्रयोग चलन में है।
सायन पद्धति में विसंगति: खिसका हुआ वसंत संपात बिंदु, जिसे सायन पद्धति के ज्योर्तिविद राश्यानुसार मेष का आरंभ बिंदु मानते हैं, वास्तव में अश्विनी नक्षत्र का आरंभ बिंदु नहीं है। यह बिंदु वास्तविक अश्विनी के प्रथम बिंदु से वर्तमान में लगभग 23 अंश 56 कला पीछे अर्थात 336 अंश 04 कला के निकट मीन राशिस्थ उत्तरा भाद्रपद के प्रथम चरण में है। इस प्रकार देखें तो सायन पद्धति में मेषादि राशियों का अश्विन्यादि नक्षत्रों से सामंजस्य भंग हो गया है। यही कारण है कि पाश्चात्य ज्योतिर्विद मात्र राशि व्यवस्था के अनुयायी हैं जबकि निरयण पद्धति के दैवज्ञ नक्षत्र व्यवस्था (ैजमससमत ैलेजमउ) पर आधारित फल कथन की विधा का अनुसरण करते हैं। सायन गणना में मेषारंभ बिंदु विचलन का परिणाम यह हुआ कि वह मेषारंभ बिंदु, जो आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व रेवत्यंत तारे पर था, अब क्रांतिवृŸा पर लगभग 24 अंश पश्चिम में हट गया है।
तदनुसार ही मेषारंभ बिंदु के साथ-साथ अन्य राशियों के आरंभ बिंदु भी 24-24 अंश पश्चिम में हट गए हैं तथा यह प्रक्रिया अभी भी निरंतर जारी है। फलस्वरूप सायन मेषादि राशियों का उनके विशिष्ट तारा मंडलों के विस्तार से सामंजस्य पूर्णतः भंग हो गया है, जिनकी विशिष्ट रचना आकृति के आधार पर राशियों का मेष, वृषादि नामकरण निर्धारित किया गया था, यही इस पद्धति की प्रमुख विसंगति सिद्ध होती है।
निरयण पद्धति की विसंगति: ईसा से कई शताब्दियों पूर्व तारामंडलों का उनकी आकृति-प्रकृति के अनुसार नामकरण निर्धारित किया गया था। तत्पश्चात शताब्दियों पर्यंत क्रांतिवृŸा पर मेषादि राशियों की सीमाएं इनके अपने-अपने तारामंडलों के असमान विस्तार के आधार पर अलग-अलग मान की मानी जाती रहीं। इसके अंतर्गत विभिन्न राशियों को कहीं 20 अंश, कहीं 15, कहीं 30 तो कहीं 40 अंश का माना जाता रहा। परिणामस्वरूप उस समय मेषादि विभिन्न राशियां विषम विभागात्मक रहीं।
ऐसी व्यवस्था में उस समय ग्रह चार का निर्धारण किया जाता था। तत्कालीन दैवज्ञ जातक की आकृति-प्रकृति का निर्णय भी उनके तारामंडलों से बनने वाली काल्पनिक आकृति वाले मेषादि प्राणियों की आकृति-प्रकृति के सादृश्य पर ही घोषित करते थे।
आज तक निरयण फलित ज्योतिष में इसी सादृश्य का प्रयोग चलन में है। राशियों का यह विषम विभागात्मक प्रयोग शताब्दियों पर्यंत यथावत रहा। पश्चात नक्षत्रविदों ने राशियों के असमान विस्तार को ग्रहों की गति-स्थिति में असुविधाजनक जानकर इन्हें बराबर अर्थात 30-30 अंशों में विभाजित किया। राशियों की विस्तार सीमाओं का यह समानात्मक निर्धारण यद्यपि ईसा से पूर्व किया जा चुका था, किंतु मेष राशि के आरंभ बिंदु का यथार्थता से निर्धारण ईसा बाद की चैथी सदी में किया गया।
उस समय मेषारंभ तत्कालीन आदर्श वसंत संपात को माना गया जो उस समय मीन तारामंडल के एक तारे (स्म.चपेबनउ) पर था, जिसे आज रेवत्यंत बिंदु कहा जाता है। ऐसे समान विभागात्मक विभाजन के कारण मेष के आरंभ बिंदु (रेवत्यंत) से प्रत्येक 30-30 अंश के अंतर पर क्रांतिवृŸा में वृषादि अन्य राशियों की सीमाओं के आरंभ बिंदु भी निर्धारित हो गए।
ज्ञातव्य है कि ऐसे विभाजन के फलस्वरूप कुछ राशियों के तारामंडलों के कुछ तारे तो उनकी सीमा में ही रहे जबकि कुछ तारे स्व राशियों की विस्तार सीमा से पूर्ववर्ती अथवा उŸारवर्ती राशियों की विस्तार सीमा में चले गए क्योंकि राशियों तथा नक्षत्रों का अंशात्मक विस्तार समान नहीं था। यही निरयण पद्धति की प्रमुख दोषपूर्ण विसंगति है। संतोषजनक बात यह रही कि ऐसा होने पर भी इन राशियों के तारामंडलों के अधिकांश प्रमुख भाग इनकी अपनी-अपनी 30 अंशों वाली विस्तार सीमा से पूर्णतः विचलित नहीं हो सके अतः समान विभागात्मक राशियां अपने तारामंडलों से अलग नहीं हो पायीं।
वास्तव में वैदिक से महाभारत काल तक भारतीय ज्योतिष में राशियों को कोई स्थान नहीं दिया गया था, केवल जन्म नक्षत्र अथवा नक्षत्रों के आधार पर भविष्य कथन किया जाता था जैसे:
(1) राम वनवास से पहले दशरथ का कथन था ‘अंगारक मेरे नक्षत्र को पीड़ित कर रहा है’।
(2) महाभारत काल में कृष्ण ने जब कर्ण से भेंट की तब कर्ण के कथनानुसार ग्रह स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया गया- शनि रोहिणी नक्षत्र से मंगल को पीड़ित कर रहा है। मंगल ज्येष्ठा नक्षत्र में वक्री होकर अनुराधा नक्षत्र से युति कर रहा है।
इस प्रकार के कई उदाहरण ज्योतिष ग्रन्थों में प्राप्त हो सकते हैं जिनमें केवल नक्षत्रों को ध्यान में रख कर फल कथन किया जाता था। नक्षत्र वर्गीकरण निरयण पद्धति में ही है। कई ज्योतिषीय तथ्य हैं जो पृथ्वी के 23) झुकाव के अयन चलन के कारण प्रभावित होते हैं। सूर्य दक्षिणायन व उŸारायन अपनी नाक्षत्रीय परिवर्तन के फलस्वरूप होता है।
भारतीय ज्योतिषानुसार अश्विनी के प्रथम बिंदु (0व्म्) को वसंत संपात व चित्रा के मध्य बिंदु (180व्म्) को शरद संपात कहते हैं। अतः एक वसंत संपात से पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए जब पुनः उसी पर आती है, तो एक वर्ष पूरा माना जाता है।
परंतु संपात के पिछड़ने के कारण पृथ्वी कुछ समय पहले ही पुनः वसंत संपात पर पहुंच जाती हे। इस प्रकार वर्ष के दो मान हो जाते हैं। अश्विनी के प्रथम बिंदु (0व्म्) से पुनः इसी बिंदु पर भ्रमण् ाोपरांत आने में पृथ्वी को समय लगता है यह द्वितीय प्रकार का वर्ष मान है। 360व्म् का भ्रमण सर्वमान्य है, संपात 50.28’’ खिसक रहा है।
इस प्रकार गणना करें तो पृथ्वी 360-50.28=359 अंश 59 कला 9 विकला ही चली। इस प्रकार पृथ्वी का परिभ्रमण काल 365 दिन 5 घंटे, 48 मिनट, 45 सेकंेड अर्थात एक वर्ष हुआ। इसमें चल संपात की कल्पना की गई है। इस वर्ष को अयन या सायन वर्ष कहते हैं परंतु एक वंसत संपात से पुनः उसी मूल स्थान पर अचल संपात की कल्पना कर जो समय पृथ्वी को पहुंचने में लगा वह 365 दिन, 6 घंटे, 9 मिनट, 10 सेकेंड है। इसे नाक्षत्र वर्ष या निरयण वर्ष कहा जाता है।
इस प्रकार सायन वर्ष से निरयण में 20 मिनट, 24.58 सेकेंड अधिक होते हैं। इस प्रकार सायन पद्धति के अनुसार मकर संक्रांति (सूर्य की दैनिक गति व अयनांश के आधार पर) 22-23 दिसंबर को व निरयण पद्धति के अनुसार 24 दिन बाद 14 जनवरी को मानी जाती है। अन्य संक्रांतियां भी (सूर्य) सायन पद्धति के अनुसार 21,22 तारीखों के आसपास हो सकती हैं, जो खिसके हुए संपातों पर आधारित है।
परंतु भारतीय ज्योतिष के अनुसार निरयण पद्धति अचल संपात पर आधारित है। भारतीय नक्षत्र एवं राशि पद्धति (निरयण) अधिक वैज्ञानिक व तर्कसंगत है क्योंकि इस पद्धति के अनुसार पृथ्वी सूर्य की पूरी परिक्रमा 360 अंश पर करती है। निरयण पद्धति के अनुसार यह भी कहा जा सकता है कि सूर्य 365 दिन, 6 घंटे, 9 मिनट व 9.76 सेकेंड में 27 नक्षत्रों को पार करता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि सूर्य नक्षत्र के एक चरण को 3( से 3) दिन में पार कर लेता है।
यह स्पष्ट है कि वैज्ञानिक तथ्यों व ज्योतिष शास्त्र में सटीकता हेतु निरयण पद्धति ही श्रेष्ठ है। सायन पद्धति में राशियों को प्रमुखता दी जाती है, नक्षत्रों का विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। परंतु जैसा कि पूर्व में कहा गया है, नक्षत्रों का प्रभाव व्यक्ति विशेष पर पड़ता है। ग्रहों के नक्षत्र प्रवेश के कारण घटनाएं पृथ्वी पर घटित होती हैं, ऋतुएं परिवर्तित होती हैं, शास्त्र वर्णित नक्षत्रों को आकाश में स्पष्ट देखा जा सकता है।
वैदिक व महाभारत काल में केवल नक्षत्र ही ज्योतिष के आधार थे। राशियों की अवधारण् ाा पाश्चात्य जगत की देन है। फिर भी भारतीय ज्योतिष शास्त्रियों ने बड़ी सूझ-बूझ से राशियों का समायोजन ज्योतिष शास्त्र में किया। उन्होंने राशियां भी सम्मिलित कर लीं और निरयण पद्धति भी नहीं छोड़ी।
भारतीय ज्योतिर्विदों ने राशियों की गणना प्रथम नक्षत्र अश्विनी के प्रथम बिंदु (निरयण) से प्रारंभ की न कि मेष के प्रथम बिंदु (सायन) से। सायन पद्धति में चंद्र नक्षत्र का कोई महत्व नहीं है। परंतु निरयण पद्धति में कुछ कुयोग चंद्र के नक्षत्र प्रवेश के कारण घटित हुए सर्वमान्य हैं जैसे ‘पंचक काल’। जब चंद्र धनिष्ठा के तृतीय चरण में प्रवेश करता है, तो ‘पंचक काल’ का प्रारंभ माना जाता है व चंद्र के रेवती से अश्विनी में प्रवेश का समय पंचक का समाप्ति काल माना जाता है।
इस प्रकार इन 4) नक्षत्रों (धनिष्ठा प्प् व प्प्प् चरण () नक्षत्र), शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उŸारा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र 18 चरण कुंभ व मीन राशियों में पड़ते हैं। अतः कंुभ व मीन राशियों में चंद्र भ्रमण ‘पंचक काल’ कहलाता है। इसी प्रकार जन्म नक्षत्र का निर्धारण भी चंद्र राश्यांश के अनुसार ही किया जाता है। गंडमूल इत्यादि योग चंद्र की स्थिति के अनुसार ही घटित होते हैं।
अश्विनी, अश्लेषा, मघा, मूल, ज्येष्ठा व रेवती गंडमूल नक्षत्रों की श्रेणी में आते हैं। वैवाहिक संबंधों की मेलापक सारणी में भी जन्म नक्षत्र (चंद्र नक्षत्र) का विशेष महत्व है जिनका सटीक वर्णन निरयण पद्धति द्वारा ही संभव है। नक्षत्र पद्धति (निरयण् ा) ही अधिक वैज्ञानिक व तर्कसंगत है, अतः ज्योतिष में निरयण पद्धति का प्रयोग करना ही उचित है। सायन व निरयण पद्धति में नक्षत्रीय एकरूपता नहीं है, जबकि यह सर्वविदित है कि यदि राशियों के साथ-साथ नक्षत्रों का ध्यान भी रखा जाए तो फल कथन में सटीकता अधिक आ सकती है।
इस क्षेत्र के विद्वानों ने भरसक प्रयास करके यह निष्कर्ष निकाला है कि निरयण पद्धति में राशियां अश्विनी नक्षत्र के प्रथम बिंदु 0 अंश से प्रारंभ होकर 30-30 अंश पर प्रारंभ व समाप्त होती हैं, परंतु सायन राशियां 24 अंश पहले प्रारंभ होकर 24 अंश पहले ही समाप्त हो जाती हैं। सायन राशियों का विस्तार भी 30 अंश ही है, परंतु 24 अंश पहले प्रारंभ हो जाने के कारण नक्षत्र बदल गए हैं।
जहां निरयण मेष राशि में अश्विनी, भरणी व कृŸिाका प् चरण विद्यमान है वहीं सायन मेष राशि में उत्तरा भाद्रपद प्प् प्प्प् प्ट, रेवती, अश्विनी प् प्प् चरण आते हैं। अतः अयनांश बढ़ने के साथ-साथ सायन राशियों के विस्तार क्षेत्र में परिवर्तन की संभावनाएं प्रबल हैं जबकि निरयण राशियों की नक्षत्र व्यवस्था अपरिवर्तित रहेगी। शायद इसी कारण पाश्चात्य ज्योतिर्विद नक्षत्र व्यवस्था को नहीं मानते।
परंतु प्राचीन काल से ही भारतीय ज्योतिष में नक्षत्रों का विशेष ध्यान रखा गया है। ज्योतिष शास्त्रों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि शुभारंभ योग, मुर्हूत इत्यादि नक्षत्रों पर आधारित हैं। अतः निरयण पद्धति ही भारतीय ज्योतिष के अनुरूप है। निरयण = सायन - अयनांश सायन = निरयण $ अयनांश ज्योतिषीय गणनाओं के लिए ग्रहों के निरयण व सायन राश्यांशों को परस्पर परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है।
अतः शास्त्रकारों/विद्वानों का परामर्श है कि निरयण व सायन राशियों का उपर्युक्त संबंध का ज्ञान ज्योतिर्विद को अवश्य होना चाहिए। जहां तक ज्योतिष में किसी पद्धति के प्रयोग का सवाल है, अनेक विद्वान एक मत हैं कि निरयण पद्धति का प्रयोग ही भारतीय ज्योतिष में करना चाहिए। क्षेत्र के पारंगत विद्वानों का मत है कि प्रत्येक ग्रह जन्म नक्षत्र से गिनने पर कुछ नक्षत्रों में शुभ फल देते हैं। तो कुछ में अशुभ।
निम्नलिखित कई ऐसी विधाएं हैं जो इस शुभाशुभ फल को आंकने में प्रयोग में लाई जाती हैं। जन्म नक्षत्र से शुभाशुभ तारे में ग्रह गोचर की स्थिति के अनुसार। जन्म नक्षत्र से ग्रह के अंग-भ्रमण के अनुसार। सूर्य संक्रांति के आधार पर नक्षत्रानुसार पुरोलता एवं पृष्ठलता के अनुसार। नक्षत्र वेध के अनुसार। कृष्णमूर्ति पद्धति और गोचर। नक्षत्र पद्धति ज्योतिष जगत को भारत की अनूठी देन है।
राशियों का समायोजन भारतीय ज्योतिष में नहीं था। ईसा की प्रारं¬िभक शताब्दियों में राशियां बेबीलोन, यूनान व खल्दिया से भारत में आईं जिनमें नक्षत्रों की प्रमुखता नहीं थी। भारतीय ज्योतिर्विदों ने बड़ी ही सूझ-बूझ से राशियों का समायोजन नक्षत्र ज्योतिष में किया
जन्म कुंडली के विश्लेषण के लिए बात करें देश के प्रसिद्ध ज्योतिषियों से केवल फ्यूचर पॉइंट पर