किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली ग्रहों के उन प्रभावों का चित्रांकन है जिनके साथ वह पैदा हुआ है। सूर्य प्रकाश का स्रोत है और चंद्र किरणें उसका परावर्तन। इसलिए सूर्य एवं चंद्र नेत्रों की ज्योति का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रह हैं। नेत्रों की क्रियाशीलता में मज्जातंतु एवं स्नायु का भी महत्वपूर्ण योगदान है जिन्हें नियंत्रित करने वाले ग्रह बुध एवं शुक्र हैं। जन्मकुंडली में लग्न (प्रथम) भाव समग्र शरीर का, द्वितीय भाव दाईं आंख का एवं द्वादश भाव बाईं आंख का द्योतक माना गया है।
सूर्य की स्वराशि सिंह तथा चंद्र की स्वराशि कर्क भी नेत्रों के परिपे्रक्ष्य में विचाराधीन हो जाती है। जन्मकुंडली में मित्र (6, 8, 12) भाव दुष्ट स्थान माने गए हैं। छठा स्थान रोग, क्षय, शत्रु, चोट आदि का, आठवां मृत्यु, नाश, क्लेश आदि का तथा बारहवां भाव व्यय, हानि, दंड, पाप आदि का है। मंगल और शनि मूल रूप से क्रूर (पापी) प्रकृति के ग्रह हैं।
शनि अंधकार का प्रतिनिधित्व करता है तो मंगल अग्नि जैसी भयंकर पीड़ा का। राहु, केतु की उपस्थिति, दृष्टि या प्रभाव ग्रहों के प्रभाव को उत्प्रेरक के रूप में बढ़ाता है। जन्मकुंडली में उपर्युक्त भावों, राशियों और ग्रहों की वर्णित मूल प्रकृति को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि त्रिक (6, 8, 12) भावों में नेत्रों एवं उनके संचालन का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रहों (सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र) पर क्रूर (पापी) ग्रहों का पाप प्रभाव नेत्र विकार उत्पन्न करेगा। द्वितीय, द्वादश, लग्न भावों तथा सिंह और कर्क राशियों पर भी पाप प्रभाव नेत्र विकार दे सकता है।
नेत्र विकार साधारण दृष्टि दोष से नेत्र नाश तक हो सकता है। नेत्र विकार किस सीमा तक होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पाप प्रभाव की स्थिति और प्रबलता किस प्रकार की और कितनी है। नेत्र विकार कम होने पर उसे चिकित्सा द्वारा ठीक किया जा सकता है, किंतु उसकी प्रखरता बहुत अधिक होने पर उपचार भी संभव नहीं हो पाता। वर्णित भावों, राशियों और ग्रहों पर पाप प्रभाव के साथ यदि शुभ प्रभाव भी हो तो पाप प्रभाव का शमन शुभ प्रभाव की सीमा तक हो जाता है और नेत्र विकार की संभावना क्षीण या नगण्य हो जाती है। वर्णित भावों, राशियों और ग्रहों पर शुभ प्रभावों की प्रबलता, नेत्रों की विशालता, मनोहरता और तीव्र दृष्टि देती है। अस्तु नेत्र विकार के संबंध में फलादेश करने के पूर्व वर्णित भावों, राशियांे और ग्रहों की स्थिति और उन पर शुभ-अशुभ प्रभावों का सही आकलन कर लेना चाहिए। ऊपर वर्णित भावों, राशियों और ग्रहों की परस्पर स्थिति को ध्यान में रखते हुए जन्म कुंडली में निम्नलिखित स्थितियां नेत्र विकार उत्पन्न कर सकती हैं।
-लग्नेश, द्वितीयेश, द्वादशेश सूर्य या शुक्र के साथ त्रिक भाव (6, 8, 12) में होना।
- शुक्र और सूर्य का लग्नेश के साथ त्रिक भाव में होना।
- शनि, मंगल और चंद्रमा की युति त्रिक भाव में होना ।
चंद्र, मंगल, शुक्र और गुरु की युति त्रिक भाव में होना।
- द्वितीय भाव में शुक्र और चंद्रमा का पापी ग्रह के साथ होना।
- द्वितीयेश का शनि और मंगल के साथ अष्टम भाव में होना (तीनों का पूर्ण दृष्टि से द्वितीय भाव को देखना)।
- द्वितीय भाव में बुध और चंद्रमा की युति का पाप प्रभाव में होना ।
- द्वितीय भाव में लग्नेश और द्वितीयेश का सूर्य के साथ होना।
- लग्न में चंद्रमा और द्वितीयेश का होना।
- सूर्य और चंद्रमा का समान अंशों पर द्वादश भाव में होना।
- पापी ग्रहों के साथ सूर्य या चंद्र का द्वादश भाव में होना।
- शुक्र का षष्ठेश और पंचमेश के साथ लग्न में होना।
- द्वादश भाव में द्वितीयेश के साथ मंगल या शनि की युति ।
- लग्न स्थित मंगल और चंद्र पर शुक्र या गुरु की दृष्टि होना।
- सिंह राशि के चंद्रमा पर मंगल की दृष्टि होना।
कुंडली संख्या 1 एक ऐसे व्यक्ति की है जो जन्म से ही अंधा है। यहां सूर्य, बुध, शुक्र और चंद्रमा षष्ठ (त्रिक) भाव में हैं और उस पर केतु की नवम दृष्टि है। द्वितीय भाव कर्क राशि (चंद्र की स्वराशि) में नीच का मंगल विराजमान है। द्वादश भाव पर राहु की नवम दृष्टि है। इस प्रकार नेत्रों एवं उनके संचालन के लिए उत्तरदायी ग्रह सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र, द्वितीयेश (चंद्र), द्वादशेश (शुक्र), द्वितीय और द्वादश भाव सभी पाप प्रभाव में हैं। शुक्र स्नायु को नियंत्रित करता है इसलिए जन्म लग्न में द्वितीयेश के साथ शुक्र और चंद्र की युति रतौंधी दे सकती है। चंद्र और शुक्र की त्रिक भाव में स्थिति भी रतौंधी उत्पन्न कर सकती है। पापी ग्रह के साथ शुक्र के द्वादश भाव में होने पर नेत्र छोटे होते हैं। क्षीण चंद्र पर शुक्र एवं शनि की दृष्टि से भी नेत्र छोटे होते हैं। स्वरूप को विरूप करने का कार्य राहु-केतु करते हैं। मंगल वक्रता प्रदान करता है। अस्तु नेत्रों का प्रतिनिधित्व और उन पर नियंत्रण करने वाले ग्रह या भाव पर मंगल के साथ राहु-केतु का प्रभाव भेंगापन पैदा करता है।
कुंडली संख्या 2 एक ऐसे व्यक्ति की है जिसकी आंखों में जन्म से भेंगापन है। यहां नेत्र कारक ग्रह चंद्रमा पर मंगल की चतुर्थ, शनि की दशम तथा केतु की नवम दृष्टि है। सूर्य, बुध और शुक्र भी राहु-केतु के प्रभाव में हैं।चंद्र जल तत्व है और मंगल अग्नि तत्व। चंद्र और मंगल की समान अंशों पर युति आंखों में धब्बा, फुली, छाला आदि पैदा करती है। चंद्र मंगल की त्रिक भावों में स्थिति बीज द्रव्य क्षरण के कारण अंधत्व पैदा कर सकती है।
कुंडली संख्या 3 इसका एक उदाहरण है। यहां चंद्र और मंगल अष्टम में हंै ंऔर द्वितीय स्थान में स्थित बुध और शुक्र पर पूर्ण दृष्टि डाल रहे हैं। शनि की दशम दृष्टि भी बुध और शुक्र पर पड़ रही है। अष्टमेश शनि पर राहु का प्रभाव है। सूर्य पर केतु की पंचम दृष्टि भी है। फलस्वरूप इस व्यक्ति को नेत्रबीज द्रव्य क्षरण के कारण अपनी ज्योति खोनी पड़ी। दशम भाव शासक (राज्य) का है।अगर दशमेश, षष्ठेश और द्वितीयेश (अर्थात् राज्य, चोट और नेत्र) का संयोग लग्न (तनु) में हो जाए तो यह राज्य के दंड (अत्याचार) से नेत्र हरण को इंगित करता है।
कुंडली संख्या 4 एक ऐसे व्यक्ति की है जिसे पुलिस के जुल्म के चलते अपनी आंख गंवानी पड़ी। यहां सूर्य की स्वराशि सिंह लग्न में शनि (षष्ठेश), बुध (द्वितीयेश) तथा शुक्र (दशमेश) है। नीच का मंगल द्वादश स्थान में है और द्वितीय स्थान में सूर्य पर राहु-केतु का प्रभाव है। चंद्रमा पर मंगल की सप्तम और राहु की पंचम दृष्टि है।