एक प्रसिद्ध डेनिष लोककथा है; डेनमार्क के बड़े विचारक और दार्षनिक कीक गार्ड को बहुत प्यारी थी। कथा का सार-संक्षिप्त ऐसा है। एक महान सम्राट.... और प्रेम में पड़ गया एक साधारण युवती के। अति साधारण स्त्री और बड़ा सम्राट ! अड़चन कुछ भी न थी। सम्राट आज्ञा दे - स्त्री भी प्रसन्न होगी; उसका परिवार भी अजादित होगा; यह तो उनका सौभाग्य होगा। आज्ञा भर की बात थी कि स्त्री उसकी हो जाएगी। लेकिन सम्राट विचार में पड़ा। विचार यह कि मेरे कहते ही यह युवती मेरी तो हो जाएगी, लेकिन मेरे और इसके बीच फासला इतना है कि यह कभी भूल न पाएगी कि मैं साधारण हूं और मेरा प्यारा महान सम्राट है। यह दूरी मिटेगी कैसे? मैं कहूंगा तो विवाह कर लेगी।
अनुगृहीत होगी, आनंदित होगी, अहोभाव से भरेगी, जीवनभर धन्यवाद करेगी; लेकिन प्र्रेम कैसे पैदा होगा? अनुग्रह का भाव ही तो प्रेम नहीं। धन्यवाद ही तो प्रेम नहीं? दूरी इतनी होगी कि प्रेम होगा कैसे? सेतु कैसे बनेगा? संबंध कैसे जुड़ेगा ? बहुत विचार में सम्राट पड़ा। कुछ भी करना तो होगा! राह तो खोजनी होगी! उसने जो राह खोजी, सोचने-जैसी है। अंततः उसने निर्णय किया कि मैं सम्राट होना त्याग दूं, मैं सम्राट न रह जाऊं; मैं साधारण आदमी हो जाऊं। फिर कुछ फासला न रहेगा। फिर अनुग्रह की बात न होगी; फिर प्रेम की बात होगी। लेकिन एक जोखिम थी और जोखिम बड़ी थी।
जोखिम यह थी कि सारा देष तो मुझे पागल कहेगा ही। शायद ही कोई समझे इस बात को। वे सभी कहेंगे- ‘स्त्री चाहिए थी, आज्ञा की जरूरत थी; एक क्या हजार स्त्रियां तैयार थीं। इसके लिए राज्य छोड़ने की क्या जरूरत थी?’ लोग मूढ़ समझेंगे, पागल समझेंगे। लेकिन यह भी कोई बड़े खतरे की बात न थी। बड़ा खतरा यह था कि हो सकता है, वह स्त्री भी यही समझे कि यह आदमी पागल है और भी खतरा यह था, जोखिम यह था कि हो सकता है, वह स्त्री साम्राज्ञी होने का अवसर चूक गई, इस क्रोध में मुझसे विवाह करने को भी इन्कार कर दे। ऐसी जोखिम थी। फिर भी उस सम्राट ने जोखिम उठाई। उसने कहा कि प्रेम के लिए सब जोखिमें उठानी जरूरी हंै।
यह जोखिम भी उठानी जरूरी है कि राज्य भी जाए, प्रतिष्ठा भी जाए; और यह भी हो सकता है कि वह स्त्री भी जाए। यहां सारी जोखिम उठानी जरूरी है, लेकिन प्र्रेम के लिए रास्ता बनाना आवश्यक है। प्रेम के मार्ग पर कुछ भी खोना ज्यादा नहीं है। प्रेम के मार्ग पर सब खोया जा सकता है, क्योंकि प्रेम ऐसा अपूर्व धन है। और यह तो कहानी एक सम्राट की एक साधारण स्त्री के प्रेम की है। जब कोई परमात्मा के प्रेम में पड़ता है, तब तो बात बिलकुल उलटी हो जाती है। खोने को तो हमारे पास कुछ भी नहीं होता और पाने को सब कुछ होता है। सम्राट के पास खोने को सब कुछ था और पाना कुछ पक्का नहीं था। परमात्मा के साथ तो बात उलटी है। हमारे पास खोने को है क्या? और जोखिम तो कोई भी नहीं है। सब कुछ मिलने का द्वार खुलता है।
फिर भी लोग कदम नहीं उठा पाते हैं। फिर भी इस यात्रा पर नहीं निकल पाते हैं। क्योंकि जो भी हमारे पास है- क्षुद्र ही सही, क्षणभंगुर ही सही - हमने उसे ही सब कुछ मान लिया है। वह हमारी मान्यता है। पद है, प्रतिष्ठा है, धन है, परिवार है, सुरक्षा है, सुविधा है - उसको हमने सोच रखा है बहुत कुछ है। सोची हुई बात है, मानी हुई बात है; है कुछ भी नहीं। एक सपना है, जो हमने देखा है। सत्य से उसका कोई तालमेल नहीं है। और मौत सब छीन ही लेगी। कितना ही पकड़े रहो, एक दिन छोड़ ही देना होगा; लुट ही जाएगा यह सब। फिर भी परमात्मा के मार्ग पर हम, जहां सब मिलने को हो और कुछ भी खास छोड़ने को नहीं, वहां भी साहस नहीं कर पाते। हमारा बुद्धि-दौर्बल्य अपूर्व है। मीरा ने सब छोड़ा तो सब पाया। सब छोड़ने वाले ही सब पाते हैं।
रत्ती भर भी बचा तो उतनी ही अड़चन हो जाएगी। रवींद्रनाथ की एक छोटी-सी कविता है। एक भिखारी सुबह अपने घर से निकला भीख मांगने। पूर्णिमा का दिन था। कोई धर्मोत्सव था और उसे बड़ी आशा थी- आज बहुत मिलेगा। जैसा भिखारी करते हैं, अपनी थैली में थोड़े-से पैसे खुद ही डाल लिए। उससे देने वाले को सुविधा होती है। क्योंकि कुछ और लोग दया कर चुके; इतना कठोर तो मैं नहीं हूं कि एकदम इनकार ही कर दूं। तो सभी भिखारी इतनी होशियारी रखते हैं। वह उनके धंधे का नियम है; कुछ-न-कुछ लेकर चलते हंै घर से। जैसे ही भिखारी राह पर आया, वह तो चकित हो गया। उसने देखा कि सम्राट का रथ आ रहा है, सम्राट के द्वार से ही लौटा दिया जाता था, महल के भीतर तो प्रवेश का मौका ही नहीं था। सम्राट के सामने झोली फैलाने का तो सौभाग्य कभी नहीं मिला था। सोचा- आज धन्य भाग! आज तो भर जाऊंगा। अब शायद भीख मांगने की जरूरत भी न होगी।
धूल उड़ाता हुआ रथ उसके पास ही आकर खड़ा हो गया। सम्राट रथ से नीचे उतरा, तब तो भिखारी किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया। समझ भी न पाया कि अब क्या करूं! भूल ही गया कि झोली फैलाऊं। एक क्षण को ठिठक गया। और इसके पहले कि कुछ करता, सम्राट ने अपनी झोली उसके सामने फैला दी और कहा- क्षमा करना, ज्योतिषियों ने कहा है कि आज मैं सुबह-सुबह निकलूं रथ पर और जो पहला आदमी मिल जाए, उससे भीख मांगूं, तो इस राज्य पर आने वाला एक संकट टल सकता है, नहीं तो यह राज्य महासंकट में पड़ेगा। तुम ही पहले आदमी हो। मैं जानता हूं कि तुम भिखारी हो, तुम्हारी झोली सब कह रही है। तुमने सदा मांगा है, दिया कभी भी नहीं - यह भी मुझे पता है, देना तुम्हें बहुत कठिन पड़ेगा, लेकिन आज यह करना ही होगा। क्योंकि यह प्रश्न पूरे साम्राज्य का है। इनकार मत कर देना; कुछ भी दे देना; कुछ भी दे देना, जो भी देना हो दे देना। एक चावल का दाना हो तो भी चलेगा।
भिखारी अपनी झोली में हाथ डालता है। कभी उसने दिया तो था ही नहीं। देने की तो कोई आदत ही न थी। देने का संस्कार ही न था। मांगा! मांगा! मांगा! जन्मों-जन्मों का भिखारी था। मुट्ठी बांधता है और खोल लेता है। बांधता है और खोल लेता है। हिम्मत नहीं पड़ती। सम्राट कहता है कि अवसर चूका जाता है। यही तो मुहूर्त है; तुम इनकार तो न कर दोगे? देखो, इनकार मत कर देना! तब उसने बहुत हिम्मत करके चावल का एक दाना निकाला और सम्राट की झोली में डाल दिया। सम्राट चढ़ा रथ पर, स्वर्ण-रथ धूल उड़ाता हुआ चला गया। भिखारी धूल में दबा खड़ा रहा और सोचने लगा - यह भी ख्ूाब रही! सम्राट से कभी तो मिलना हुआ, मांगने का सौभाग्य था, वह भी गया। उसकी तो छोड़ो कि कुछ मिला नहीं, अपने पास का भी एक दाना गया! उस दिन उसे दिन में बहुत दान मिला, लेकिन वह एक दाना खटकता रहा- दिनभर! खयाल करना, मनुष्य का मन ऐसा है - जो मिलता है उसकी हम चिंता नहीं लेते; जो नहीं मिला या जो खो गया, उसकी फिक्र में लगे रहते हैं।
एक पैसा तुम्हारा गिर जाए तो दिन-भर उसकी याद आती रहती है। जैसे तुम्हारा कभी एक दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। ऐसे सदा से था, तब कभी न गई थी; आज टूट गया तो वहीं-वहीं जाती है। जो हैं उन पर नहीं जाती; जो नहीं है उस पर जाती है। ऐसा मनुष्य का मन है। उदास लौटा। सांझ जब आया तो पत्नी तो बहुत आनंदित हुई - इतनी झोली उसकी कभी न भरी थी; लबालब भरी थी। उसने कहा - ‘धन्यभागी हैं हम, आज तो हमें खूब मिला!’ उसने कहा- ‘छोड़, तुझे क्या पता कि आज कितना गंवाया है; एक तो सब कुछ मांग लेता सम्राट से, वह गया।’ उसने सारी कथा कही, ‘और पास का एक दाना भी गया।’
उदास मन उसने झोली उंडे़ली और दोनों चकित खड़े रह गए। चावल के उन दानों में एक दाना सोने का हो गया था। तब वह छाती पीटकर रोने लगा। दिन-भर तो रोया था उस दाने के लिए, अब छाती पीटकर रोने लगा कि यह तो बड़ी भूल हो गई- अगर मैंने सारे ही दाने सम्राट की झोली में डाल दिए होते, तो सारे ही दाने सोने के हो गए होते। क्रमशः