कुंडली में रोग विश्लेषण एवं उपाय
कुंडली में रोग विश्लेषण एवं उपाय

कुंडली में रोग विश्लेषण एवं उपाय  

व्यूस : 10594 | जुलाई 2008
कुंडली में रोग विश्लेषण एवं उपाय साहू बाबूलाल शास्त्राी सौ र मंडल के सभी ग्रह समस्त ब्रह्मांड को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक ग्रह की अपनी विशेषताएं हैं। शनि को दुख और अभाव का कारक ग्रह माना जाता है। किंतु जन्म के समय यदि वह बलवान हो तो जातक के दुखों का शमन करता है। इस तरह शनि के दो रूप हैं। एक रूप जातक को चिंतनशील, गंभीर, योगी एवं खोजी प्रकृति का बनाता है तो दूसरा पतन की राह पर ढकेल देता है। सब कुछ व्यक्ति के पूर्व व इस जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है। शनि आयु कारक ग्रह है। यदि यह शत्रु राशिस्थ या नीचस्थ हो तो आयु घटती है। इसके विपरीत यदि यह उच्च या मित्र राशि में हो तो आयु बढ़ती है। जैसे चतुर्थ भाव में शनि यदि शत्रु राशि में हो तो माता की, और सप्तम भाव में हो तो पति या पत्नी की आयु को खतरा रहता है। भूमि, भवन, पत्थर और लोहे से शनि का विशेष संबंध है। यदि शनि चतुर्थेश अथवा योगकारक होकर बलवान हो एवं व्यवसाय का कारक हो तो भूमि की प्राप्ति होती है। शनि का सप्तम भाव, लग्न या लग्नेश या दशमेश से संबंध होने पर भवन और सड़क निर्माण, पत्थर, सीमेंट आदि के कार्य में सफलता दिलाता है। शनि अधोमुखी ग्रह है, इसलिए भूगर्भ के पदार्थ लोहे, कोयले पेट्रोल आदि का कारक है। जब शनि चतुर्थेश व व्यवसाय का कारक होता है तब इनसे धन लाभ देता है। शनि यदि अष्टमेश, तृतीयेश व व्यवसाय का कारक हो तो व्यक्ति चमडे़ या जूतों का व्यवसाय करता है। शनि रोग कारक भी है। मृत्यु से इसका घनिष्ठ संबंध है। यदि सूर्य राहु से प्रभावित व्यवसाय का कारक हो तो चिकित्सक के कार्य अथवा नौकरी में सफलता दिलाता है। ज्योतिष शास्त्र में जन्मकुंडली के द्वादश भावों के अनुसार रोगों के क्षेत्र एवं उनकी पहचान बताई गई है। राशियों के स्वामी एवं द्वादश भावों के स्वामी पाप ग्रहों से दृष्ट हों या शत्रु या नीच भाव में हांे तो संबंधित अंगों पर संबंधित रोग होते हैं। नवग्रहों में मुख्य रोग कारक ग्रह सूर्य, शनि व राहु हैं। सूर्य नवग्रहों मे राजा एवं अग्नि तत्व ग्रह है जो मानव शरीर रचना का कारक है। नेत्र, हड्डी, हृदय, चिकित्सा, पेट एवं आत्मा पर सूर्य का अधिकार है। शनि दीर्घकालीन रोग का कारक है। इसलिए वात, कफ, चोट, मोच, पेट तथा मज्ज के रोग, दुर्बलता, स ू ख् ा ा प न , व ा य ु - िव क ा र अ ं ग - व क्र त ा , गंजापन, जोडों में दर्द, पिंडलियों के रोग, चर्म रोग, स्नायु रोग, मस्तिष्क रोग आदि देता है। कुंडली में कोई भी भाव किसी ग्रह से कितना ही पीड़ित क्यांे न हो, उसका असर जीवन में षष्ठेश, अष्टमेश अथवा शनि की दशा या साढ़े साती एवं ढैया आने पर ही अधिक होता है। दूसरी तरफ, ज्योतिष में राहु को शनि के समान माना गया है। राहु के प्रभाव से ग्रस्त होने की स्थिति में प्रेत बाधा, मिरगी, पागलपन, भय, वहम, दर्द, चोट, दुर्घटना आदि की संभावना रहती है। अतः सूर्य, शनि और राहु अधिष्ठित राशियों के स्वामी एवं द्वादशेश ये सब पृथकताजनक प्रभाव रखते हैं। जिन भावों पर इनका प्रभाव पड़ता है, जातक को उन भावों से संबंधित व्यक्तियों या वस्तुओं आदि से पृथक होना पड़ता है। उदाहरणार्थ, यदि उक्त पृथकता जनक प्रभाव द्वितीय भाव पर पड़े तो जातक कुटुंब को त्याग देता है। यदि चतुर्थ भाव पर पड़े तो जातक घर गृहस्थी छोड़ देता है। यदि सप्तम भाव पर पड़े तो तलाक तक की नौबत आ जाती है। दशम भाव पर दुष्प्रभाव पड़े तो व्यवसाय या नौकरी में हानि होती है। सूर्य, शनि और राहु में से कोई भी दो ग्रह यदि किसी भाव पर प्रभाव डाल रहे हांे तो नकारात्मक प्रभाव जरूर मिलते हैं। खासकर तब, जब उस भाव के साथ-साथ उसका स्वामी तथा कारक दोनों पृथकताजनक प्रभाव में हों। उत्तर कालामृत के अनुसार किसी भी भाव का विचार करते समय संबद्ध भाव, उसके स्वामी एवं कारक ग्रह पर विचार किया जाना आवश्यक है। यहां कालपुरुष की चतुर्थ राशि कर्क एवं जन्मकुंडली के चतुर्थ भाव से पीड़ित एक जातक की जन्म कुंडली प्रस्तुत है। जातक क्षय रोग से पीड़ित है। कुंडली के अनुसार कर्क राशि पर सूर्य, केतु, राहु, मंगल, शनि आदि पापी ग्रहों का प्रभाव है। सूर्य स्वयं द्वादशेश है। चंद्र, जो कर्क राशि का स्वामी है तथा फेफड़ों का कारक है, मंगल से युक्त है एवं अष्टम भाव में है। शनि, जो उच्च राशिस्थ है, रोगेश है, की पूर्ण दृष्टि चंद्र पर है। गुरु की पंचम दृष्टि चंद्र पर है, किंतु गुरु स्वयं शनि की तीसरी दृष्टि से पीड़ित है, अतः सहायता करने में विफल है, क्योंकि शनि की तृतीय दृष्टि चतुर्थ भाव एवं चतुर्थेश गुरु पर पड़ रही है। चंद्र स्वयं राहु का प्रभाव लिए हुए है। अतः जातक पीड़ित है। साधारणतया ग्रह दूषित एवं पीड़ित होने पर एक सीमा तक रोगी को कष्ट दिया करते हैं। शनि की अवधि सबसे ज्यादा एक वर्ष की है। सूर्य की अवधि छः मास, बुध की दो मास, बृहस्पति की एक मास, शुक्र की पंद्रह दिन, मंगल की दो दिन, चंद्र की 48 सेकेंड, राहु की शनि के समान एक वर्ष एवं केतु की अवधि मंगल के समान दो दिन की होती है। इस तरह स्पष्ट है कि सूर्य, शनि और राहु की रोग की अवधि अधिक है। किसी की कुंडली में शनि रोग ाुकारक हो तो उससे उत्पन्न रोग जातक को एक वर्ष भोगना पड़ेगा। कभी-कभी पूरी दशा रोग कारक होती है। रोगी को रोग देने वाले ग्रह के शत्रु ग्रह की दशा में ही रोग से छुटकारा मिलता है। मारकेश ग्रह अगर वक्री हो तो ऐसी दशा में या मारकेश की दशा-अंतर्दशा नहीं हो तो जातक लंबी बीमारी के बाद ठीक हो जाता है। हस्त, अश्विनी, पुष्य (लघु), मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा (मृदु) स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा (चर) नक्षत्रों में दवा लेना उत्तम है। मूल नक्षत्र भी उत्तम है। वारों में सोमवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार उत्तम है एवं रविवार प्रशस्त है। लग्नों में द्विस्वभाव राशि मिथुन, कन्या, धनु, और मीन लग्न शुभ हैं। लग्न से सप्तम, अष्टम तथा द्वादश में कोई पाप ग्रह नहीं होना चाहिए। चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या के अलावा सभी तिथियां शुभ हैं। विशेषकर अपने नक्षत्र में दवा लेना शुभ नहीं है। हनुमान बाहुक या रामचरित मानस के सुंदर कांड का पाठ करने से रोग से जल्दी मुक्ति मिलती है। गणेश जी का स्मरण करते हुए निम्न मंत्र का मन ही मन पाठ कर दवा ली जाए तो रोग से जल्दी छुटकारा मिलता है। औषध जाह्नवी तोय। वैद्यो नारायणो हरिः।। रोग मुक्ति के उपाय जिस ग्रह का रोग हो उस ग्रह का सप्त धान्य रोगी उसी ग्रह के वार को कूबतरों को डाले तो रोग से मुक्ति शीघ्र मिलती है। शनि द्वारा प्रदत्त रोग से मुक्ति हेतु काली वस्तुओं यथा चने, उड़द, काले कपड़े, लोहे, तांबे, नीलम, तेल आदि का दान करना चाहिए। पीपल पर जल चढ़ाएं, चिड़ियों को बाजरा और कौओं एवं मछलियों को आटा डालें। सवा पाव या सवा किलो उड़द को एक पुराने काले कपड़े में बांधकर रोगी से स्पर्श कराकर नदी में बहा देने या रोगी के सिर से वार कर किसी कोढ़ी को देने से भी कष्ट दूर होते हैं। शनिवार को लोहे के बर्तन में सरसों का तेल व तांबे का पैसा डालकर उसमें रोगी का मुंह दिखाकर दान करने से भी रोग से मुक्ति मिलती है। शुक्रवार की रात तांबे के बर्तन में पानी भर कर रखें और शनिवार को रोगी को उसी पानी का सेवन कराएं। शुक्रवार को काले या नीले रंग के कांच के बर्तन या बोतल में पानी भरें व उसमें तांबे का टुकड़ा डालकर धूप में रखें। फिर वह पानी शनिवार को रोगी को पिलाएं। ब्लड प्रेशर के रोगी को लाल शीशे में मूंगा एवं मोती दोनांे डाल कर पानी रखना चाहिए। हृदय रोगी एवं नेत्र रोगी को माणिक्य एवं मोती को पीली शीशी में डालने चाहिए। पेट दर्द व शूल रोग से मुक्ति के लिए मोती एवं गोमेद को नीले रंग की शीशी में पानी डालकर रखना और सोम अथवा शनि को रोगी को उस पानी का सेवन कराना चाहिए। स्नायु रोग, नपुंसकता एवं अग्नि भय से मुक्ति के लिए लोहे के भस्म का सेवन करना चाहिए। कई बार नसें तन जाती हैं एवं शरीर सूखने लगता है। ऐसी स्थिति में पांवों के अंगूठे अथवा कलाई पर काला धागा बांधना ठीक होता है। शनि एवं बुध नपुंसक ग्रह हैं। यदि कोई जातक हीन भावना का शिकार हो और उसे आत्मविश्वास की कमी हो तो उसे हरे या काले रंग की बोतलों में पानी भरकर धूप में रखना चाहिए और उसका सेवन करना चाहिए। शनिवार को शनि के नक्षत्र (अनुराधा, पुष्य या उत्तरा भाद्रपद) में काली वस्तुओं का दान शनि मंदिर में करें। शनिवार को सूर्योदय से पूर्व कौआंे को उड़द की दाल के बड़े या गुड़ की मीठी पूड़ियां या उबले चने खिलाएं। काली गाय या काले भैंसे को भर पेट चारा खिलाने से भी रोगी को रोग से शीघ्र मुक्ति मिलती है। द्वादश भाव, कालपुरुष के अंग एवं संबंधित रोग भाव राशि अंग रोग प्रथम मेष सिर सिर-दर्द, मस्तिष्क रोग, नेत्र रोग, अपस्मार, पित रोग द्वितीय वृष मुख आंख, नाक, कान, स्वर, वाणी, सौंदर्य, दांत, कंठ आदि के रोग, सूजन तृतीय मिथुन भुजा, कंधे, दमा, खांस और, फेफडे तथा श्वास संबंधी रोग, श्वास नली कंधांे, बांहों, हाथों के रोग, एलर्जी चतुर्थ कर्क छाती, हृदय उदर और छाती, के रोग, हृदय रोग, जलोदर, कैंसर, वात रोग, गुर्दे के रोग पंचम सिंह पेट, दिल पाचन-तंत्र, गर्भाशय, मूत्र पिंड, वस्ति, हृदय, अस्थि और फेफडों के रोग षष्ठ कन्या गुर्दे, अंतड़ियां घाव, अल्सर, आंतांे के रोग, एंेठन, दस्त, गठिया और गुदा मार्ग के रोग। सप्तम तुला नाभि, गुप्तांग जननेंद्रिय, गुदा, मूत्राशय के रोग, पथरी, मधुमेह, रीढ़ की हड्डी के रोग अष्टम वृश्चिक लिंग, गुदा, अंडकोष गुप्त रोग, दुर्घटना, बवासीर, कैंसर, हर्निया, रक्त दोष नवम धनु जंघाएं, नितंब मानसिक रोग, रक्त विकार, गठिया, पक्षाघात, घाव व चोट दशम मकर घुटने आत्मविश्वास में कमी, जोड़ों में दर्द, गठिया, चर्म रोग एकादश कुंभ पिंडलियां पिंडलियों का रोग, स्नायु दुर्बलता, हृदय रोग, रक्त विकार, पागलपन द्वादश मीन चरण, पैर अनिद्रा रोग, पैरों के रोग, लकवा, मोच, रोग भूमि, भवन, पत्थर और लोहे से शनि का विशेष संबंध है। यदि शनि चतुर्थेश अथवा योगकारक होकर बलवान हो एवं व्यवसाय का कारक हो तो भूमि की प्राप्ति होती है। शनि का सप्तम भाव, लग्न या लग्नेश या दशमेश से संबंध होने पर भवन और सड़क निर्माण, पत्थर, सीमेंट आदि के कार्य में सफलता दिलाता है।



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