ध्यान में स्वयं के संकल्प के अभाव के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। यदि आप ध्यान में जाना ही चाहते हैं तो दुनिया की कोई भी शक्ति आपको ध्यान में जाने से नहीं रोक सकती है। इसलिए अगर ध्यान में जाने में बाधा पड़ती हो तो जानना कि आपके संकल्प में ही कमी है। शायद आप जाना ही नहीं चाहते हैं। ...... दूसरी बात, ध्यान में अगर कोई कुतूहलवश जाना चाहता हो तो कभी नहीं जा सकेगा। सिर्फ कुतूहलवश- कि देखें क्या होता है? इतनी बचकानी इच्छा से कभी कोई ध्यान में नहीं जा सकेगा। न, जिसे ऐसा लगा हो कि बिना ध्यान के मेरा जीवन व्यर्थ गया है।
‘देखें, ध्यान में क्या होता है?’ ऐसा नहीं; बिना ध्यान के मैंने देख लिया कि कुछ भी नहीं होता है और अब मुझे ध्यान में जाना ही है, ध्यान के अतिरिक्त अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं है- ऐसे निर्णय के साथ ही अगर जाएंगे तो जा सकेगे। क्योंकि ध्यान बड़ी छलांग है। उसमें पूरी शक्ति लगा कर ही कूदना पड़ता है। कुतूहल में पूरी शक्ति की कोई जरूरत नहीं होती। कुतूहल तो ऐसा है कि पड़ोसी के दरवाजे के पास कान लगा कर सुन लिया कि क्या बातचीत चल रही है। अपने रास्ते चले गए। किसी की खिड़की में जरा झांक कर देख लिया कि भीतर क्या हो रहा है; अपने रास्ते चले गए।
वह कोई आपके जीवन की धारा नहीं है। उस पर आपका कोई जीवन टिकने वाला नहीं है। लेकिन हम कुतूहलवश बहुत सी बातें कर लेते हैं। ध्यान कुतूहल नहीं है। तो अकेली क्युरिआसिटी अगर है तो काम नहीं होगा। इंक्वायरी चाहिए। तौ मैं आपसे कहना चाहूंगा कि आप बिना ध्यान के तो जीकर देख लिए हैं- कोई तीस साल, कोई चालीस साल, कोई सत्तर साल। क्या अब भी बिना ध्यान में ही जीने की आकांक्षा शेष है? क्या पा लिया है? तो लौट कर अपने जीवन को एक बार देख लें कि बिना ध्यान के कुछ पाया तो नहीं है। धन पा लिया होगा, यश पा लिया होगा। फिर भी भीतर सब रिक्त और खाली है। कुछ पाया नहीं है। हाथ अभी भी खाली है।
और जिन्होंने भी जाना है, वे कहते हैं कि ध्यान के अतिरिक्त वह मणि मिलती नहीं, वह रतन मिलता नहीं, जिसे पाने पर लगता है कि अब पाने की और कोई जरूरत न रही, सब पा लिया। तो ध्यान को कुतूहल नहीं, मुमुक्षा- बहुत गहरी प्यास, अभीप्सा अगर बनाएंगे, तो ही प्रवेश कर पाएंगे। .... ध्यान मनुष्य की आत्यंतिक संभावना है, आखिरी संभावना है। वह जो मनुष्य का बीज फूल बनता है, वही फूल है ध्यान, जहां मनुष्य खिलता है, उसकी पंखुड़ियां खुलती हैं और उसकी सुगंध परमात्मा के चरणों में समर्पित होती है। ध्यान आखिरी संभावना है मनुष्य के चित की। उसे तो होकर ही जाना जा सकेगा। कोई बीज फूल के संबंध में कितनी ही खबर सुन ले, तो भी फूल को नहीं जान पाएगा, जब तक कि टूटे नहीं और फूल न बन जाए।
और फूल के संबंध में सुनी गई खबरों में फुल की सुगंध नहीं हो सकती है। और फूल के संबंध में सुनी गई खबरों में फूल का खिलना और वह आनंद, वह एक्सटैसी, वह समाधि नहीं हो सकती है। बीज कितनी ही खबरें सुने फूलों के बावत, बीज को कुछ भी पता न चलेगा, जब तक स्वयं न टूटे, अंकुरित न हो, बड़ा न हो, आकाश में पत्तों को न फैलाए, सूरज की किरणों को न पीए और खिलने की तरफ स्वयं न बढ़े।