दशा एवं गोचर विश्लेषण
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दशा एवं गोचर विश्लेषण  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 18797 | जून 2006

दशा एवं गोचर विश्लेषण आचार्य अविनाश सिंह जन्मपत्री में किसी भी घटना की जानकारी के साथ उसके घटने के समय की भी जानकारी आवश्यक होती है। इसके लिए दशा एवं गोचर की दो पद्धतियां विशेष हैं। दशा से घटना के समय एवं गोचर से उसके शुभाशुभ होने का ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न: ज्योतिष में दशा और गोचर का क्या महत्व है?

उत्तर: दशा और गोचर दोनों ही ज्योतिष में जातक को मिलने वाले शुभाशुभ फल का समय और अवधि जानने में विशेष सहायक हैं। इसलिए ज्योतिष में इन्हें विशेष स्थान और महत्व दिया गया है।

प्रश्न: दशा और गोचर का आपसी संबंध क्या है?

उत्तर: शुभाशुभ फलकथन के लिए दोनों को बराबर का स्थान दिया गया है। दशा का फल गोचर के बिना अधूरा है और गोचर का फल दशा के बिना।

प्रश्न: दशा वास्तव में है क्या?

उत्तर: प्रत्येक ग्रह अपने गुण-धर्म के अनुसार एक निश्चित अवधि तक जातक पर अपना विशेष प्रभाव बनाए रखता है जिसके अनुसार जातक को शुभाशुभ फल प्राप्त होता है। ग्रह की इस अवधि को हमारे महर्षियों ने ग्रह की दशा का नाम दे कर फलित ज्योतिष में विशेष स्थान दिया है। फलित ज्योतिष में इसे दशा पद्ध ति भी कहते हैं।

प्रश्न: भारतीय ज्योतिष में कितने प्रकार की दशाएं होती हैं?

उत्तर: भारतीय फलित ज्योतिष में 42 प्रकार की दशाएं एवं उनके फल वर्णित हैं, किंतु सर्वाधिक प्रचलित विंशोत्तरी दशा ही है। उसके बाद योगिनी दशा है। आजकल जैमिनी चर दशा भी कुछ ज्योतिषी प्रयोग करते देखे गये हैं।

प्रश्न: विंशोत्तरी दशा ही सर्वाधिक प्रचलित क्यों?

उत्तर: विंशोत्तरी दशा से फलकथन शत-प्रतिशत सही पाया गया है। महर्षियों और ज्योतिषियों का मानना है कि विंशोत्तरी दशा के अनुसार कहे गये फलकथन सही होते हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इस दशा की सर्वाधिक चर्चा की गई है।

प्रश्न: यह कैसे जानें कि किस जातक का जन्म कौन सी दशा में हुआ?

उत्तर: दशा चंद्रस्पष्ट पर आधारित है। जन्म समय चंद्र जिस नक्षत्र में स्पष्ट होता है, उसी नक्षत्र के स्वामी की दशा जातक के जन्म समय रहती है। नक्षत्र का जितना मान शेष रहता है, उसी के अनुपात में दशा शेष रहती है।

प्रश्न: अंतर्दशा से क्या अभिप्राय है?

उत्तर: किसी भी ग्रह की पूर्ण दशा को महादशा कहते हैं। महादशा के आगामी विभाजन को अंतर्दशा कहते हैं। यह विभाजन सभी ग्रहों की अवधि के अनुपात में रहता है। जो अनुपात महादशा की अवधि का है उसी अनुपात में किसी ग्रह की महादशा की अंतर्दशा होती है।

उदाहरण के लिए शुक्र की दशा 20 वर्ष की होती है जबकि सभी ग्रहों की महादशा की कुल अवधि 120 वर्ष होती है। इस प्रकार शुक्र को 120 वर्षों में 20 वर्ष प्राप्त हुए। इसी अनुपात से 20 वर्ष में शुक्र की अंतर्दशा को 3 वर्ष 4 मास 0 दिन प्राप्त होते हैं जो कि शुक्र की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा की अवधि हुई। इसी प्रकार शुक्र महादशा में सूर्य की अंतर्दशा 1 वर्ष, चंद्र की अंतर्दशा 1 वर्ष 8 मास 0 दिन की होगी।

प्रश्न: अंतर्दशा का क्रम किस आधार पर लेते हैं?

उत्तर: अंतर्दशा का क्रम भी उसी क्रम में होता है जिस क्रम से महादशा चलती हैं अर्थात केतु, शुक्र, सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी।

प्रश्न: प्रत्यंतर्दशा भी क्या अंतर्दशा की तरह होती है?

उत्तर: प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभ¬ाजन होता है।

प्रश्न: क्या इसके आगे भी दशा का विभाजन होता है? यदि हां, तो कहां तक?

उत्तर: महादशा को अंतर्दशा में विभ्¬ाक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा मे,ं प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं। विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है।

प्रश्न: दशा का इतना विभाजन करने से क्या लाभ होता है?

उत्तर: फलकथन की सूक्ष्मता में पहुं¬चने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं।

प्रश्न: क्या दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल देती है?

उत्तर: दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा।

प्रश्न: कुंडली में यह कैसे जानें कि कौन सी दशा शुभ फल और कौन सी दशा अशुभ फल देगी?

उत्तर: कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं। तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है।

प्रश्न: दशा का फलकथन करते समय किन-किन बातों का विशेष विचार करना चाहिए?

उत्तर: दशा फल करते समय कुंडली में आपसी संबंधों पर विशेष विचार करना चाहिए जैसे:

1. दो या अधिक ग्रहों का एक ही भाव में रहना।

2. दो या अधिक ग्रहों की एक दूसरे पर दृष्टि।

3. ग्रह की अपने स्वामित्व वाले भाव में बैठे ग्रह पर दृष्टि हो।

4. ग्रह जिस ग्रह की राशि में बैठा हो, उस ग्रह पर दृष्टि भी डाल रहा हो।

5. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों।

6. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों और उनमें से कोई एक दूसरे पर दृष्टि डाले।

7. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठकर एक दूसरे पर दृष्टि डाल रहे हों।

दशाफल विचार में लग्नेश से पंचमेश, पंचमेश से नवमेश बली होता है एवं तृतीयेश से षष्ठेश और षष्ठेश से एकादशेश बली होता है। इसके अतिरिक्त शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध, पूर्ण चंद्र केंद्रेश हों तो शुभ फल नहीं देते, जब तक उनका किसी शुभ ग्रह से संबंध न हो। ऐसे ही पाप ग्रह क्षीण चंद्र, पापयुत बुध तथा सूर्य, शनि, मंगल केन्द्रेश हों तो पाप फल नहीं देते, जब तक कि उनका किसी पाप ग्रह से संबंध न हो। यदि पाप ग्रह केन्द्रेश के अतिरिक्त त्रिकोणेश भी हो तो उसमें शुभत्व आ जाता है। यदि पाप ग्रह केंद्रेश होकर 3, 6, 11 वें भाव का भी स्वामी हो तो अशुभत्व बढ़ता है। चतुर्थेश से सप्तमेश और सप्तमेश से दशमेश बली होता है।

प्रश्न: महादशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा आदि का फल विचार कैसे करें?

उत्तर: महादशा में अंर्तदशा, अंतर्दशा में प्रत्यंतर दशा आदि का विचार करते समय दशाओं के स्वामियों के परस्पर संबंधों पर ध्यान देना चाहिए। यदि परस्पर घनिष्टता है और किसी भी तरह से संबंधों में वैमनस्य नहीं है तो दशा का फल अति शुभ होगा। यदि कहीं मित्रता और कहीं शत्रुता है तो फल मिश्रित होता है।

प्रश्न: गुरु की दशा में शुक्र का अंतर जातक को कैसा फल प्रदान करेगा?

उत्तर: गुरु और शुक्र आपस में नैसर्गिक शत्रु हैं लेकिन दोनो ही ग्रह नैसर्गिक शुभ भी हैं। दशाफल का विचार करते समय कुंडली में दोनों ग्रहों का आपसी संबंध देखना चाहिए। पंचधा मैत्री चक्र में यदि दोनों में समता आ जाती है तो फल शुभ होगा। इसके विपरीत यदि गुरु मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी। प्रश्न: प्रत्यंतर्दशा भी क्या अंतर्दशा की तरह होती है? उत्तर: प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभ¬ाजन होता है।

प्रश्न: क्या इसके आगे भी दशा का विभाजन होता है? यदि हां, तो कहां तक?

उत्तर: महादशा को अंतर्दशा में विभ्¬ाक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा मे,ं प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं। विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है।

प्रश्न: दशा का इतना विभाजन करने से क्या लाभ होता है?

उत्तर: फलकथन की सूक्ष्मता में पहुं¬चने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं।

प्रश्न: क्या दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल देती है?

उत्तर: दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा।

प्रश्न: कुंडली में यह कैसे जानें कि कौन सी दशा शुभ फल और कौन सी दशा अशुभ फल देगी?

उत्तर: कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं। तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है।

प्रश्न: दशा का फलकथन करते समय किन-किन बातों का विशेष विचार करना चाहिए?

उत्तर: दशा फल करते समय कुंडली में आपसी संबंधों पर विशेष विचार करना चाहिए जैसे:

1. दो या अधिक ग्रहों का एक ही भाव में रहना।

2. दो या अधिक ग्रहों की एक दूसरे पर दृष्टि।

3. ग्रह की अपने स्वामित्व वाले भाव में बैठे ग्रह पर दृष्टि हो।

4. ग्रह जिस ग्रह की राशि में बैठा हो, उस ग्रह पर दृष्टि भी डाल रहा हो।

5. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों।

6. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों और उनमें से कोई एक दूसरे पर दृष्टि डाले।

7. दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठकर एक दूसरे पर दृष्टि डाल रहे हों।

दशाफल विचार में लग्नेश से पंचमेश, पंचमेश से नवमेश बली होता है एवं तृतीयेश से षष्ठेश और षष्ठेश से एकादशेश बली होता है। इसके अतिरिक्त शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध, पूर्ण चंद्र केंद्रेश हों तो शुभ फल नहीं देते, जब तक उनका किसी शुभ ग्रह से संबंध न हो। ऐसे ही पाप ग्रह क्षीण चंद्र, पापयुत बुध तथा सूर्य, शनि, मंगल केन्द्रेश हों तो पाप फल नहीं देते, जब तक कि उनका किसी पाप ग्रह से संबंध न हो। यदि पाप ग्रह केन्द्रेश के अतिरिक्त त्रिकोणेश भी हो तो उसमें शुभत्व आ जाता है। यदि पाप ग्रह केंद्रेश होकर 3, 6, 11 वें भाव का भी स्वामी हो तो अशुभत्व बढ़ता है। चतुर्थेश से सप्तमेश और सप्तमेश से दशमेश बली होता है।

प्रश्न: महादशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा आदि का फल विचार कैसे करें?

उत्तर: महादशा में अंर्तदशा, अंतर्दशा में प्रत्यंतर दशा आदि का विचार करते समय दशाओं के स्वामियों के परस्पर संबंधों पर ध्यान देना चाहिए। यदि परस्पर घनिष्टता है और किसी भी तरह से संबंधों में वैमनस्य नहीं है तो दशा का फल अति शुभ होगा। यदि कहीं मित्रता और कहीं शत्रुता है तो फल मिश्रित होता है।

प्रश्न: गुरु की दशा में शुक्र का अंतर जातक को कैसा फल प्रदान करेगा?

उत्तर: गुरु और शुक्र आपस में नैसर्गिक शत्रु हैं लेकिन दोनो ही ग्रह नैसर्गिक शुभ भी हैं। दशाफल का विचार करते समय कुंडली में दोनों ग्रहों का आपसी संबंध देखना चाहिए। पंचधा मैत्री चक्र में यदि दोनों में समता आ जाती है तो फल शुभ होगा।

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