जन्म का समय कौन सा लेना चाहिए
जन्म का समय कौन सा लेना चाहिए

जन्म का समय कौन सा लेना चाहिए  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 6632 | फ़रवरी 2006

ब्रह्मा जी की सृष्टि में जल-थल-नभ वासी 84 लाख योनियों में भ्रमण करने वाले संपूर्ण चराचर जगत के प्राणियों की उत्पत्ति चार प्रकार से होती है-अंडज, पिंडज, स्वेदज व उद्भिज्ज। अंडे से उत्पन्न होने वाली जीव योनियां अंडज कहलाती हैं जैसे पक्षी, मछली, सर्प आदि। दूसरी श्रेणी है पिण्डज अर्थात वे प्राणी जो पिंड या मांस के लौंदे के रूप में जन्म लेते हैं। इन्हें जरायुज भी कहते हैं- आंवल, खेड़ी या जरायु में लिपटे मां के गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव। जरायु से तात्पर्य उस झिल्ली से है जिसमें लिपटा हुआ बच्चा गर्भाशय से बाहर आता है। स्वेद अर्थात पसीने से उत्पन्न होने वाली जूं आदि जीव स्वेदज कहलाते हैं। भूमि फोड़कर निकलने वाले पेड़-पौधे, गुल्म, लता, वनस्पति आदि उद्भिज्ज हंै। मनुष्य जरायुज प्राणी है।

‘‘आकर चारि लाख चैरासी। जाति जीव जल थल नभवासी’’ भारतीय ज्योतिष को जातक शास्त्र कहते हैं। इस शास्त्र में जातक के फल कथन करने का विधान है। जिज्ञासु प्रवृत्ति होने की वजह से ही मानव की सर्वोत्कृष्ट अभिलाषा, आदिकाल से ही, अपना भविष्य जानने की रही है। नवजात शिशु के भविष्य को जानने के लिए उसके जन्म समय का ज्ञान होना परम आवश्यक है, ताकि माता-पिता या अभिभावक जन्मपत्री का निर्माण करा सकें। जन्म-समय के अनुसार जन्म कुंडली ज्योतिषीय आधार पर बनवाई जाती है। जब इतनी ज्यादा महत्ता किसी भी शिशु के सही जन्म समय की है तब यह प्रश्न उठता है कि जन्म का समय कौन सा मानना या लेना चाहिए - शिशु के प्रसविका के गर्भ से बाहर निकलने का क्षण, मातृ शरीर से शिशु की नाल कटने पर उसके शरीर के अलग अस्तित्व में आ जाने का क्षण, अथवा जन्म लेते ही शिशु के रुदन करने का अर्थात प्रथम श्वास लेने का क्षण। काल को समय या क्षण कहते हैं। समय या काल ही सृष्टि के सृजन का मूल कारण होता है-

‘‘कालः सृजति भूतानि’’। काल-गणना पर ही ज्योतिष के गणित फलित स्कंध टिके हुए हंै। ब्रह्मा के द्वारा जिसके भाग्य का निर्धारण पूर्व में ही किया जा चुका होता है उस जातक की उत्पत्ति ठीक उसी क्षण होती है जिस समय की सौरमंडलीय ग्रह-स्थिति उसे उसके प्रारब्ध या भाग्य का यथायोग्य फल देने वाली होती है। वह न तो कुछ समय पूर्व पैदा हो सकता है और न ही कुछ समयोपरान्त, यह अटल सत्य है। जन्म समय का निर्धारण करने में विद्वानों/आचार्यों के विचारों में मतभेद हैं। उनके विचारों का विश्लेषण निम्न बिंदुओं पर किया जा सकता है।

जन्म समय से संबंधित अति प्राचीन धारणा है- गर्भ कोश के फटने वाले समय को जन्म समय मान लेने की। यह धारणा सर्वमान्य नहीं हो सकी क्योंकि गर्भ कोश या गर्भ थैली में भरे हुए चिकनाई युक्त द्रव पदार्थ, जिसके माध्यम से शिशु बाहर आता है, के बह जाने पर भी शिशु का गर्भ से बहुत देर तक, (कभी कभी) मोक्ष नहीं हो पाता, और न ही बहुत देर तक उसके अंग ही दिखलाई पड़ते हैं। बड़ी विकट स्थिति निर्मित हो जाती है। अतः इसे जन्म समय नहीं माना जाता। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन यह शरीर क्षेत्र (खेत) है (‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते) जैसे खेते में बोये हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोये हुए कर्मों के संस्कार रूपी बीजों का फल समय पर प्रकट होता है।

इस प्रसंग का उल्लेख करने का अभिप्राय मात्र इतना ही है कि जन्म समय के संबंध में भारतीय ज्योतिष विद्या के मनीषियों/पूर्वाचार्यों का मत बीज के अंकुरण काल के सदृश्य ही है। इस मत के अनुयायी जननक्रिया के दौरान माता के गर्भलोक से भूलोक पर आने वाले शिशु के प्रकटित होते अंग के दृष्टिगोचर होने लगने के समय विशेष के क्षण को सही जन्म-समय स्वीकार करते हैं जैसे किसी भूमि में बीज-वपन करने के उपरांत बीजांकुर देखकर वृक्ष विशेष या पौधे का प्रादुर्भाव मानना। इस विचारधारा के अनुसार शिरोदय काल ही किसी भी शिशु के जन्म लेने का प्रारंभिक पल होता है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि जीवन रूपी पाठशाला में पढ़ने के लिए निकल पड़ने को उद्यत हो जाने के अवसर को जन्म काल मान लिया जाए।


Navratri Puja Online by Future Point will bring you good health, wealth, and peace into your life


इस तरह के मत को मानने वाल विज्ञजनों के अनुसार अंग दर्शन काल ही जन्म काल है जिस तरह दूज के चांद को चन्द्रोदय कहते हैं। द्वितीय बिंदु में निर्दिष्ट मत का जब क्रमिक विकास हुआ तब लोगों ने अपनी सोच में थोड़ा सा बदलाव लाकर अपने इस मत का प्रतिपादन किया कि प्रसव क्रिया आरंभ हो जाने के उपरांत शिशु के जिस अंग विशेष के द्वारा प्रसव हो उसके पूर्ण रूप में निकल आने के समय को जन्म समय मान लिया जाए। अर्थात इस मत को स्वीकार करने वालों ने जन्म लेने वाले शिशु के अंग विशेष के पूर्णरूपेण बाह्य आगमन काल को जन्म-काल निर्धारित किया। इस मत की पुष्टि तत्कालीन ज्योतिर्विद गर्गाचार्य के निम्नलिखित कथन से हो जाती है।

शिरसा प्रसवो ज्ञेयः समयः स्कंधदर्शनात्।। तात्पर्य यह है कि माता की जनन क्रिया के दौरान यदि उसके शिशु का जन्म सिर से हो रहा हो तब जिस घड़ी कंधे के ऊपरी भाग सहित शिशु का पूरा सिर दिखाई देने लगे वही समय उसका जन्मकाल समझा जाए। कराभ्यां प्रसवः कालो मणिबंधस्य दर्शनात्।। जब किसी शिशु का प्रसव हाथों से हो रहा हो तब कलाई दृष्टिगोचर होने वाले पल को जन्म समय समझा जाए। पदाभ्यां प्रसवो कालो जंघासंदर्शनात्।। अर्थात प्रसूतिका की जनन क्रिया के संपन्न होते वक्त उसके शिशु का जन्म पैरों से होने पर एड़ी के ऊपर तक के हिस्से दिखलाई देने के समय को जन्म समय माना जाए। ‘‘जंघासंदर्शनात’’ से तात्पर्य घुटनों के ऊपर के हिस्से अर्थात जांघ के दृष्टिगोचर होने से ही रहा होगा। कुछ टीकाकारों ने पैर-प्रसव के मामले में पिंडली तक का हिस्सा दिखलाई देने वाले क्षण को जन्म समय इंगित किया है। उपर्युक्त बिंदु क्रमांक द्वितीय और तृतीय में दर्शाए गए मतों के अनुसार शिरोभाग आदि अथवा शिशु के जन्म के समय उसके चैथाई अथवा आधे शरीर के प्रकट-समय को जन्म काल माना गया है। ये मत सहस्रों वर्ष पूर्व के हैं।

इनका व्यावहारिक महत्व नहीं रह गया है।

Û जन्म-काल-निरूपण के संबंध में ऊपर वर्णित विभिन्न मतों के अतिरिक्त एक मत पूर्व आचार्यों/मनीषियों की दृष्टि में यह भी रहा है कि जिस समय शिशु का धरा-परस हो जाए अर्थात जब माता के शरीर से निकलते समय उसका जमीन से स्पर्श हो जाए वही उसका जन्म काल होगा।

Û अंतिम और सर्वसम्मत मत यह है कि जब प्रसविनी की शिशु जनन-क्रिया पूर्ण रूपेण संपन्न हो चुकी हो वही बेला उसके जन्म का समय कहलाएगी। इसी समय को अर्थात गर्भ से शिशु के निष्क्रमण काल को धरा पदार्पण काल भी कहते हैं। इसे ही जातक का जन्म समय हजारों वर्षों से लोग मानते चले आ रहे हैं। आगे भविष्य में भी मानते रहेंगे। ऐसी आशा इस संबंध में की जा सकती है। जब जन्म क्रियाएं प्रायः घर पर ही संपन्न की जाती थीं और प्रसविनी को बिठाया जाता था तब शिशु का भूमि स्पर्श संभव था। अब जब लिटाकर यह कार्य प्रसूतिका गृहों, अस्पतालों में संपन्न कराया जाने लगा है तब शिशु का भूमि स्पर्श संभव नहीं होता। गर्भ की अपनी क्षुधा, पिपासा कुछ नहीं होती। उसका जीवन मातृ अधीन होता है।

गर्भ की वृद्धि माता के आहार रस से होती है- गर्भ की नाभि में लगी नाड़ द्वारा। माता के सांस लेने के साथ साथ उसके रक्त के साथ गर्भ के रक्त की शुद्धि होती रहती है। इस तरह गर्भ अपनी माता के उदर में 270 से 290 दिनों तक वास करते हुए जीवित रहता है। यथार्थ में देखा जाए तो गर्भ न तो सांस लेता है, न शयन करता है, न खाता-पीता है और न ही विष्ठा आदि का त्याग स्वतंत्र रूप से करता है। माता के हर कर्म के साथ उसकी आत्मवृत्ति मातृवृत्ति पर निर्भर करती है। नाल काटी गई हो या नहीं, जनन-क्रिया चाहे सामान्य हो अथवा शल्य क्रिया से, शिशु के सशरीर मातृ शरीर से निकलने का समय जन्म समय है। जन्म का समय कौन सा लेना चाहिए इसकी पुष्टि हेतु उदाहरण स्वरूप उपर्युक्त विचार व्यक्त करते समय यथा संभव जन्म समय की तुलनात्मक स्थिति का विवरण ही दिया गया है

जैसे जन्म सिर, पाद या हस्त से होने पर संबंधित अंग या अंग का भाग दिखलाई देना बीजांकुरण या द्वितीया का चांद दिखने अथवा सूर्योदय का आभास होने वाली स्थिति के समान है जब हम प्रातःकाल पूर्व दिशा में जमीन और आसमान मिले हुए दिखाई देने वाली जगह अर्थात क्षितिज पर सूर्य प्रकाश को देखकर सूर्योदय होने का अनुमान लगा लेते हैं जबकि उस समय सूर्य बिंब की ऊपरी सतह का किनारा क्षितिज के थोड़ा नीचे ही रहता है। इसे सूर्य का उगना कहते हैं। जब सूर्य का आधा बिंब क्षितिज पर दिखाई देने लगता है तभी सैद्धांतिक रूप में उसका उदय होना स्वीकृत किया जाता है। इस तरह यह कह सकते हैं कि शिरोदय काल, पादोदय काल अथवा हस्तोदय काल जन्म-काल नहीं है और ज्योतिष शास्त्र इसे मान्यता नहीं देता। शर से जन्म होने की स्थिति में स्कंध भाग दृष्टिगोचर होने पर शेष शरीर भी तुरंत बाहर हो जाता है

जबकि हस्त एवं पाद से जन्म होने की स्थिति में पूरा शरीर जल्द बाहर न आकर काफी समय के उपरांत बहुत देर व कठिनाई से ही बाहर आ पाता है। इस प्रकार जनन क्रिया की सारी स्थितियां सदा समान व अनुकूल न रहने की वजह से माता के शरीर से शिशु के शरीर के चैथाई, तिहाई अथवा अर्द्ध भाग के प्रकटन काल को सैद्धांन्तिक रूप में जन्म-समय की मान्यता या स्वीकृति ज्योतिष शास्त्र नहीं देता जैसी कि उसने आदित्य मंडलोदय के अर्द्ध-बिम्ब-दर्शन को दी है। व्याकरण की दृष्टि से देखें तो जन्म समय निरूपण में अपूर्ण काल की क्रिया लागू नहीं होती। पूर्ण काल की क्रिया ही लागू होती है।


Book Online 9 Day Durga Saptashati Path with Hawan


माता के शरीर से शिशु के पूरे शरीर के बाह्य आगमन काल के पल ही जन्म-समय के पल कहलाते हैं और मेरे विचार से यही विचार-गोष्ठी के प्रश्न का हल है। किंतु विज्ञान शास्त्र से सिद्ध होता है कि इस घटना तथा जातक शरीर के पूर्ण रूपेण बाहर आने में कभी कम और कभी अधिक समय लगा करता है। साथ ही इस घटना विशेष पर्यन्त जातक का स्वयं का विलग कोई अस्तित्व नहीं होता क्योंकि वह माता से गर्भ नाल द्वारा जुड़ा होकर प्रसूतिका के शरीर का ही एक अंगमात्र होता है। जीवन की पोषणादि आवश्यकताओं का माध्यम बनी गर्भ नाल अभी भी क्रियाशील रहकर सक्रिय रहती है। विज्ञान सिद्ध करता है कि इस स्थिति में यदि माता की मृत्यु हो जाए और गर्भ नालोच्छेदन न किया जाए तब निश्चय ही नवजात शिशु का जीवन भी समाप्त हो जाएगा। जन्म समय को लेकर अनेक मत प्रचलन में हैं।

यद्यपि अनेक मत और विवादास्पद जन्म समय की चर्चा की जाती है परंतु हजारों वर्षों से प्रचलित, विद्वानों द्वारा पूर्ण समर्थित एवं तार्किक और मान्य मत यह है कि जन्म समय निस्संदेह वह काल है जब शिशु की नाल कटे या न कटे, उसका संपूर्ण शरीर जिस समय गर्भ से बाहर आ जाए। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार चिकित्सकों का भी यह मत है कि शिशु का गर्भ से पूर्ण रूप से बाहर आना तथा श्वास लेना इस क्रिया में अधिकतम कुछ ही सेकंडों का अंतर होता है। यदि शिशु के बाहर आने में और श्वास लेने में कुछ मिनट का समय पूरा हो जाए तो शिशु की मृत्यु हो सकती है। शिशु के बाहर निकलने के कारण बच्चे के फेफड़े माता के शरीर के दबाव से दब जाते हैं जिसके द्वारा प्रारंभ होता है यह श्वास लेना और यही शिशु का जन्म काल कहलाता है। यदि कुछ सेकंड के अंदर बच्चा श्वास न ले तो उसे कृत्रिम सांस दी जाती है।

अध्यात्म के अनुसार व्यक्ति का जन्म श्वास द्वारा प्रारंभ होता है और श्वांस समाप्त होने पर मृत्यु होती है। इस प्रकार बच्चा यदि पूर्ण रूप से बाहर आ जाए परंतु श्वास न ले तो उसके बाहर आने का समय ही जन्म काल कहलाएगा, भले ही वह मृत बच्चे का जन्म माना जाएगा। ऐसा बच्चा जो बाहर आने के कुछ सेकंड बाद पहला श्वास लेगा वह समय जन्म काल कहलाएगा। इसमें यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि बच्चे के श्वास लेने पर उसके रोने की आवाज निकले ही क्योंकि संभव है गूंगे बच्चे के मुंह से रोने की आवाज न आए। लेकिन बच्चे के श्वास लेने की मुद्रा से हम जान सकते हैं कि उसने श्वास लिया है या नहीं। जन्म के समय चिकित्सकों द्वारा भी यह प्रमाण पत्र दिया जाता है कि बच्चा पूर्ण रूप से निकलने के बाद इतने समय पर रोया या नहीं रोया। नहीं रोना मृत शिशु के जन्म का द्योतक है।

यदि शिशु का जनन सामान्य है तो वह बाहर निकलते ही सांस लेने लगता है। बाहर निकलना व सांस लेना दोनों क्रियाएं आपस में जुड़ी हुई हैं। सांस के साथ होता है प्रथम रोदन। यह आवश्यक नहीं है कि उसकी नाल काटी जाए या नहीं। कभी कभी शिशु का मां से संपर्क बनाए रखने के लिए नाल कुछ मिनटों बाद काटी जाती है। इससे भी प्रमाणित होता है कि चिकित्सा विज्ञान में भी बच्चे के रोने के समय अर्थात प्रथम श्वास को ही बच्चे का जन्म काल माना जाता है। यह बात समझ लेना बहुत आवश्यक है कि शिशु का मां के शरीर से बाहर निकलना एक रासायनिक प्रतिक्रिया की तरह से है जिसके कारण मां के स्तनों में दूध व शिशु का स्वावलंबी जीवन शुरू हो जाता है

शिशु की सांस भी मां के शरीर के बाहर निकलने के दबाव से ही शुरू हो जाती है। अतः बाहर निकलना या सांस लेना एक ही बात है। लेकिन यदि बच्चे को कृत्रिम रूप से शल्य चिकित्सा द्वारा बाहर निकाला जाता है तो उसे दबाकर या आॅक्सीजन देकर सांस शुरू करवाई जाती है। कई बार ऐसी स्थितियां आती हैं जब शिशु आधा बाहर आकर अटक जाता है और सांस शुरू हो जाती है, लेकिन शल्य चिकित्सा द्वारा बाहर निकाला जाता है, ऐसे सभी कारणों में शिशु की पहली सांस ही उसका जन्म है, अन्य सभी कार्य जन्म की प्रक्रिया है। नाल काटना तो शिशु को मां से केवल अलग करने की प्रक्रिया है, उसके जन्म समय की नहीं। मृत शिशु के जन्म में उसका बाहर आना ही उसके जन्म का द्योतक है।


जानिए आपकी कुंडली पर ग्रहों के गोचर की स्तिथि और उनका प्रभाव, अभी फ्यूचर पॉइंट के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्यो से परामर्श करें।




Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.