यूनानी ग्रन्थों के अनुसार वहां के निवासी शंख में पारा भरकर अग्नि में तपाकर सोना-चांदी बनाने में दक्ष थे। धातु रूपान्तर उनके लिए सहज कार्य था। उन्होने शंख में पारे की बनी भस्म को सिद्धसूत नाम दिया और ऐसे भस्मों को चमत्कारिक बताया। यह ज्ञान मिस्र से यूरोप मंे फैला। उसका उद्देश्य था शंख एवं पारे के माध्यम से ऐसे तरीके को खोजना जिसके द्वारा कम कीमत वाली धातु को मूल्यवान धातु सोना-चांदी में बदला जा सके। इस भस्म के चमत्कारिक गुणों के माध्यम से व्यक्ति को बुढ़ापे से पूरी तरह मुक्ति दिलाई जा सकती है। धातुओं में सर्वाधिक मूल्यवान सोने को माना गया है। इसे नष्ट नहीं किया जा सकता है तथा इसमें जंग नहीं लगता है। आग भी इसे खत्म नहीं कर सकती है इसलिए सर्वप्रथम मिस्र के लोगों ने शंख के माध्यम से पारा व तांबे से सोना बनाने का काम किया। इसी के साथ घोल तैयार किया जिससे शरीर की बीमारी ठीक की जा सके। उन्होंने शंख को मानव जीवन का अमृत कहा है। मिस्र ने नई खोज नहीं की है। भारत से उन्होंने इस विधि को लिया है। भारत में हिमालय के योगियों द्वारा पारा एवं शंख के द्वारा ऐसा घोल तैयार किया जाता है जो तरल होता है जिसका सेवन किया जा सकता है।
शरीर में रक्त को बढ़ाने शरीर को स्वस्थ रखने में सहयोग देता है। भारत में महान रसायनज्ञ नागार्जुन ने इस प्रयोग को बहुत पहले करके संसार को चमत्कृत किया है। नागार्जुन भारत के रसायन वैज्ञानिक थे। उन्होंने अपने जीवन में 25 ग्रंथों की रचना की। जो सभी धातु परिवर्तन से सम्बन्धित हंै। अभी तक 16 ग्रन्थों की खोज हो पाई है। इनके माध्यम से पूरे संसार में तहलका मचाया जा सकता है और बहुत आसानी से एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में रूपान्तरित किया जा सकता है। नागार्जुन ने शंख में पारा, दिव्य वनस्पतियों के घोल के माध्यम से असम्भव व असाध्य बीमारियों को दूर करने में दक्षता हासिल की। प्रयोग विधि: कामधेनु शंख में पारा भरकर 11 दिन तक अग्नि में पकायें। साधक प्रातः-सायं एक-एक माला स्फटिक से पूर्वामुखी लाल आसन पर बैठकर ऊँ कामधेनु गोमुखी शंखायः धातु परिवर्तन स्वर्ण सिद्धि कुरू-कुरू स्वाहाः के मंत्र के साथ हिमालय धूप घी की 108 बार आहुति दें। मध्य में कनक धारा का पाठ करंे। 12 वंे दिन शंख एवं पारा की एक दिव्य भस्म प्राप्त होती है। वह सिद्धसूत कहलाती है। तांबे को गरम करके सिद्धसूत डालते ही शुद्ध सोना बन जाता है।
यह रहस्यमयी विद्या आगे चलकर शंख रसायन विज्ञान नाम से प्रसिद्ध हुई। प्राचीन ग्रन्थ ‘शंख संहिता’ में इस विधि का वर्णन मिलता है। यह अलौकिक प्रयोग लुप्त प्राय हो गया है। हमारे प्राचीन ग्रन्थ और रसायन विद्या से सम्बन्धित ग्रन्थों में शंख से सोना बनाने की कई विधियां हैं। हिमालय के साधु-संन्यासी एवं योगियों ने इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त की है। उन्होंने शंख से पारा गरम करके तांबे से सोना बनाया है। प्राचीन ग्रन्थ शंख संहिता में बताया है कि श्री सूक्त लक्ष्मी जी का प्रिय है। नागार्जुन की टीका के अनुसार श्री सूक्त में सोना बनाने की विधियां हैं। शंख साधक श्रीसूक्त को समझकर सोना बना लेता है तो जीवन में करोड़पति एक ही क्षण में बन जाता है। सोना बनाना असम्भव कार्य नहीं है। शंख, पारा व तांबे के माध्यम से रसायन क्रिया द्वारा सोना बनाना सम्भव हो सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में जो नुस्खे हैं उन्हंे हम समझ नहीं पाए इसलिए यह विद्या गोपनीय रह गई थी। हिमालय के कई साधु-संन्यासी और रसायन शास्त्रियों ने सोना बनाने की विधियां अवष्य बताईं परन्तु बताने के बाद यह कहा कि किसी और को यह गोपनीय विधियां मत बताना क्योंकि यह विद्या गलत लोगों की षिकार नहीं बन जाय।
धन्वन्तरी और आगे चलकर नागार्जुन ने इस क्षेत्र में सिद्ध हस्तता प्राप्त की। शंख एवं पारा से सोना बनाने का जो ज्ञान और विवेचन उस युग में हुआ अपने आप में आष्चर्यजनक है। शंख के पारा और तांबा काफी निकट है। थोड़ी साधना की जाय तो व्यक्ति सफलता पा सकता है। हम अपने प्राचीन साहित्य को देखें तो शंख रसायन विद्या का वर्णन ऋग्वेद के श्रीसूक्त में मिलता है। यह तो अब भली प्रकार से सिद्ध हो चुका है कि श्रीसूक्त के प्रथम तीन पद स्वर्ण बनाने की प्रक्रिया से ही सम्बन्धित हंै। अथर्ववेद में भी पक्षी रूप उड़नषील पारे को शंख से स्वस्थ शरीर में प्रवेष कर अजर-अमर बनाने व रोगों से मुक्त करने की विधि स्पष्ट की गई है। शंख रसायन विद्या के प्रवर्तक भगवान षिव हंै जो वैदिक काल में शंख देव नाम से विख्यात थे। उन्होंने रसायन विद्या का जो स्पष्टीकरण किया वह शंख संहिता रूद्रयामल तन्त्र व रसमहोदधि ग्रन्थों में स्पष्टता के साथ अंकित है। बाद में अष्विनीकुमार ने इन सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की और उन्होंने इसको सरल भाषा में रूपान्तरित किया। उनका ग्रन्थ धातु रत्न माला इस दृष्टि से बेजोड़ है। देवगुरू बृहस्पति ने भी शंखरसचक्र नाम के एक रसायन ग्रन्थ की रचना की थी जिसमें शंख और पारे से स्वर्ण बनाने की प्रामाणिक विधि दी हुई है।
पौराणिक काल में भगवान षिव से धन के देवता कुबेर ने यह रसायन विद्या सीखी और सही अर्थों में वे देवताओं के कोषाध्यक्ष बने जो उस कोष को अक्षय बनाए रखता था और अपनी रसायन विद्या के द्वारा क्षतिपूर्ति कर देता था। षिव ने अपने गण नन्दी तथा वीरभद्र को भी यह रसायन विज्ञान सिखाया था। वीरभद्र ने शंखरस नामक ग्रन्थ की रचना की थी जो आज भी उपलब्ध है। आगे चलकर उमा नामक रस विज्ञानी ने रस महोदधि तथा शंखरसोपनिषद ग्रन्थ रचे जो इस क्षेत्र के अन्यतम ग्रन्थ कहे जाते हैं। ब्रहा्रा ने एक शंखब्रह्म सिद्धान्त नामक रसायन ग्रन्थ की रचना की थी। सही अर्थों में देखा जाए तो इन्द्र स्वयं रसायन विद्या के आचार्य थे। उनके पास दो विद्या रत्न थे जिन्हें कामधेनु शंख और कल्पवृक्ष कहा गया है। कल्प शब्द का आषय नवीन स्वरूप देने में प्रयुक्त होता है।
इस प्रकार कल्पवृक्ष का तात्पर्य ऐसे वृक्ष से हुआ जिसके रस के माध्यम से जर्जर शरीर जवान हो जाए और धातुएं जो जंग लगने से खराब हो जाती हैं वे इस कल्पवृक्ष के संयोग से स्वर्ण में परिवर्तित हो जाएं इसलिए कल्पवृक्ष को इच्छित वस्तु देने वाला बताया गया। इसी प्रकार इन्द्र के कामधेनु लेने का विवरण भी आया है। धेनु का अर्थ गाय होता है। गौ शब्द का तात्पर्य किरणों के तीव्रगामी होने से है। इस प्रकार शंख से नवीन पदार्थ परिवर्तन को ही कामधेनु विद्या कहा गया है। इन किरणों से पदार्थ को दूसरे पदार्थ में रूपान्तरित करने का ज्ञान इन्द्र के पास था। इसी कामधेनु विद्या के बल से विष्वामित्र ने नवीन सृष्टि रचने का विधान किया था। महर्षि भृगु ने अपनी भृगुसंहिता में शंख रसायन विद्या का उल्लेख किया है। जमदग्नि ने अपने पुत्र परषुराम के हाथों अपनी पत्नी का सिर कटवाकर इसी शंख विज्ञान रूपी कामधेनु विद्या के माध्यम से ही उसे पुनर्जीवित करने का सफल प्रयास किया था। परषुराम ने रसायन विद्या का विस्तार से उल्लेख शंख स्वर्णतन्त्र नामक ग्रन्थ में किया है।